जो व्यक्ति कर्म करते हुए अपने को साक्षी भाव से देखता है --- वही संत है।जो व्यक्ति कर्म करते हुए अपने मन को गुरु पर लगाया है। सुरति में लगाया है। वही परम हंस है।

प्रदीप नायक अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

जो व्यक्ति कर्म करते हुए अपने को साक्षी भाव से देखता है --- वही संत है।जो व्यक्ति कर्म करते हुए अपने मन को गुरु पर लगाया है। सुरति   में लगाया है। वही परम हंस है।

नारद जी! यदि मैं भूल ही जाऊं तो आप कृपया करके हमें याद दिला देंगे। भगवान विष्णु वाराह के रूप में अवतरित हो गए।अपने किशोरावस्था में ही पृथ्वी को जल से बाहर कर दिए। अपना कार्य पूर्ण समझकर स्वर्ग लौटने को उद्धत हुए। तभी उनके मां-बाप ने कहा-बेटा! हम लोग तुम्हारा पालन-पोषण बहुत ही आशा-उम्मीद से किए हैं। तु्म्ही हमारे बुढ़ापे का सहारा होंगे। हम लोग तुम्हारी शादी करना चाहते हैं। घर में बहू आ जाएगी। घर-गृहस्ती का कार्य संभाल लेगी। फिर बाल-बच्चे हो जाएंगे। हम लोगों का भी मन लग जाएगा। वाराह भगवान मां-बाप की इच्छानुसार शादी किए। संसार के कार्य में बुरी तरह फसते गए। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है। वासना वैसे-वैसे उफान पर आती है।

देवता निराश होने लगे। भगवान विष्णु के लिए बैकुंठ खाली है। वे वाराह (सूअर) योनि में ही भूले हैं। हे नारद! आप जाकर उन्हें याद दिलाओ। नाराज जी मृत्युलोक में आ गए। भगवान वाराह के घर (सोहर-बाड़ा) के नजदीक जा नारायण-नारायण का अलख जगाए। वाराह भगवान के अंतसमन में नारायण के प्रति रुचि जग गई। फिर सोचने लगे, यह फकीर कहीं हमारे बच्चे-बच्चियों को फकीर ना बना दे। वे स्वयं नारद की तरफ बढ़ गए। अपने बच्चों से दूर जाकर नाराज से बोले-कहो फकीर तुम क्या चाहते हो? यहां कुछ भी मिलने वाला नहीं है। तुम हमारे बच्चों को फकीर बनाने की चेष्टा मत करना।

नारद उन्हें बार-बार समझा रहे हैं कि भगवान आप ही नारायण हैं। आप पृथ्वी के उद्धार के लिए आए थे। वह कार्य पूर्ण हो गया। अब आप बैकुंठ चलें। वाराह बार-बार प्रतिउत्तर देते रहे-हे नारद! अभी तक मैं अपने पुत्र-पुत्रियों का शादी भी नहीं किया। यह ऋण मेरे सिर पर है। तुम जाओ, इस ऋण से मुक्त होते ही मैं वापस लौट आऊंगा।

नारद कुछ वर्षों के बाद पुनः आए। अलख जगाए। वाराह भगवान ने कहा-हे नारद! तुम्हें दूसरा कोई कार्य नहीं है। अभी बेटा-बेटी की शादी से निवृत हुए हैं। जरा नाती-पोता देख लेने दो। आखिर बेटा-पतोहू मेरे सुख से वंचित हो जाएंगे। तुम जाओ मुझे अपने परिवार में, अपने घर में ही सुख शांति से रहने दो। समयानुसार मैं स्वयं वापस लौट आऊंगा।

नारद जी, अपनी बातों को देवलोक में जाकर रख दिए। देवतागण बहुत चिंतित हो गए। सभी ने निर्णय लिया कि भगवान शंकर स्वयं जाए। भगवान शंकर डमरू बजाते हुए अलख जगाए। वाराह भगवान, भगवान शंकर से अपनी समस्याएं रखें। हमारी समस्याएं अनंत है। वे अपनी पौत्र-पौत्री, प्रपौत्र-प्रपौत्री की समस्या रखें। मानो उनके जाने से जगतका कार्य रुक जाएगा। भगवान शंकर ने एक न सुनी। वे अपने त्रिशूल से उनके हृदय में प्रहार कर दिए। जिसके लगते ही वाराह शरीर से मुक्त होकर सूक्ष्म शरीर में आ गए। नारायण के स्वरूप को प्रदान कर भगवान शिव को प्रणाम किए। अपने स्वरधाम को प्राप्त कर आनंदित हुए।

आप की स्थिति यही है। आप ही नारायण के स्वरूप हैं। आप में निराकार परमात्मा-साकार हुआ है। आप सांसारिक वासना में बुरी तरह आबद्ध है। इसे ही सत्य समझ लिए हैं। किसी संत, सुमिरन एवं सत्संग में भाग नहीं लेते हैं। यदि कभी ले भी लिए तो सद्गुरु का सानिध्य आपको नहीं मिला। यदि भाग्य प्रबल है---मिल भी गया तो आप अपने अहंकार वश समर्पण नहीं कर पाए। अपने संसार को छाती से चिपकाए हुए हैं। गुरु से भी माया वृद्धि का आशीर्वाद चाहते हैं। उसे भी अपने धन-दौलत में आबद्ध करना चाहते हैं। तब आपका स्वरूप वाराह का है। जो कीचड़-विष्ठा में रहना पसंद करता है। वासना कीचड़ है। विष्ठा है। बच्चे-बच्चियां ही संसार है।

आपका जीवन ही ऊर्जा है। जो स्थूल शरीर को संचालित करता है। ऊर्जा के तीन रूप हैं। एक बीज के रूप  है। जिसमें कुछ भी प्रकट नहीं है। दूसरा वृक्ष रूप है। जिसमें सभी कुछ प्रकट है, लेकिन प्राण अप्रकट है। तीसरा फूल रूप है--जिसमें सुगंध आ गई है। और उसकी पंखुड़ियां खुले आकाश से मिल रही है। अनंत से एकता स्थापित कर ली है। प्राण प्रगट हो गया है।

वासना, कामना ही बीज है। प्रेम ही वृक्ष है। फूल ही भक्ति है। बीज की ही यात्रा प्रेम से भक्ति तक होगी।

बर्फ स्थूल है। बर्फ का एक टुकड़ा दूसरे से नहीं मिल पाते हैं। बर्फ जैसे ही पानी बनता है, उसमें दूसरे बर्फ का पानी भी मिल जाता है। उसे अलग नहीं किया जा सकता है। पानी जैसे ही वाष्प बनता है, वह ऊपर उठता है--आकाश की तरफ। इसकी सीमा खो जाती है। इसी तरह शरीर ठोस है। पंच तत्व निर्मित है। शरीर के बल पर शरीर की मांग स्वाभाविक है। शरीर की मांग ही वासना है। मन सूक्ष्म है। वह शरीर और आत्मा दोनों को जोड़ता है। इसका अपना कोई आकार जल की तरह नहीं है। इसे जैसा ढालना चाहे ढाल सकते हैं। शरीर का मिलन क्षणिक है। मन-से मन का मिलन स्थायी है। मन के मिलन को ही प्रेम करते हैं। यह जीवन भर चल जाता है। आत्मा का आत्मा से मिलन चिर स्थायी है। यह वाष्प की तरह है।

शरीर जड़ है। इसे खरीदा-बेचा जा सकता है। मन तरंग है। थोड़ा-थोड़ा चेतन भी है। इसे खरीदा-बेचा नहीं जा सकता है। मन से मन  के मिलन को ही प्रेम कहते हैं। मन के पार का नाम आत्मा है। यह अदृश्य है। भाप की तरह। आत्मा से आत्मा के मिलन का नाम ही भक्ति है।
  
     आभार सदविप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की कृति रहस्य मय लोक से