साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

????मन में सोच रहा था। इतना साधन एवं वैभव-सुख संपन्न देवता आखिर परमतत्व को क्यों नहीं प्राप्त करते । मनुष्य तो पृथ्वी पर सूखी रोटी के लिए मुहताज है। तभी यक्ष महोदय ने उत्तर दिया- स्वामीजी हमारी तपस्या में कामना थी। इन्हीं सुखों को उपलब्ध होने की। जिसको जिस तरह की कामना होती है, उसे वहीं मिलता है। इसमें कोई संशय नहीं है। परंतु ये कामनाएं तुच्छ हैं, श्रेष्ठ नहीं हैं।

सामने गगनचुम्बी फुलझड़ियां निकल रही थी। मैं रुककर देखने लगा। उससे श्वेत, नील, रक्त, बैंगनी, पीत, नारंगी आदि रंगों की झंडियां निकल रही थीं। जो गगन को स्पर्श करती प्रतीत हो रही थी। आगे का रास्ता बंद था। उसके दाएं विशाल सरोवर था। जिसमें विभिन्न रंग से युक्त कमल खिले थे। क्या यहीं कुबेर कमल है ? आवाज आई, हां है। मैं जहां रहता हूं, वहां धन-धान्य से परिपूर्ण रहता है। बाएं बहुत बड़ा पर्वत था। वह पर्वत तो पत्थरों का नहीं है बल्कि मणियों का है। क्या यही कुबेर पर्वत है ? आवाज आई-हां स्वामी जी! हम मणि पर्वत हैं।
 हमारा उपयोग मात्र वही कर सकता है जिसे हमारे स्वामी कुबेर जी की इच्छा होगी।

कुछ ही क्षणों में उस वृहद फुलझड़ी के मध्य से द्वार प्रकट हो गया। बहुत उच्च- चौड़ा द्वार था। उस द्वार के दाएं तरफ से एक छोटा द्वार खुल गया। एक सुंदर युवक जो दण्डधारी था। झुकते हुए आदाब स्वर में निवेदन किया- "स्वामीजी का स्वागत है। हमारे गणाध्यक्ष कुबेर जी आपका इंतजार कर रहे हैं।"

मैं अंदर गया। अंदर का दृश्य बहुत बड़ा था। दूर-दूर तक बाग-बगीचे, उपवन फैले थे। लम्बी-चौड़ी सड़कें थीं। मेरा कमल धावक दायें दिशा में चल दिया। एकाएक सामने स्फटिक का पर्वत आ गया। रास्ता अवरुद्ध हो गया। ऐसा प्रतीत हुआ। कुछ क्षण में उस पर्वत के मध्य में एक आभायुक्त द्वार खुला। उसके सड़क भी स्फटिक के थे। वे स्फटिक अलग-अलग रंग के थे। विभिन्न प्रकार के महल थे। उससे एक सुंदर आवाज निकल रही थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि शिव के पंचाक्षर का वह मंत्र हो। मनमोहक सुगन्ध फैल रहा था। आकाश अंक में भर रहे थे। मेघ घेर रहे थे। सुहावना दृश्य। मेरा धावक कमल आगे बढ़ा। सामने एक बहुत बड़ा सरोवर दिखाई दिया। उसका जल पारदर्शी था। अति स्वच्छ था। उस सरोवर में यात्रा कर दिया। वह वैसे ही गमन करता था जैसे सड़क पर चल रहा था। सरोवर में हंस भी तैर रहे थे। कुछ हंस मुझे देखकर मेरे तरफ मुखातिब हुए। उनका मुंह खुला - शायद कुछ कह रहे हैं। मेरे कानों में आवाज आई-स्वामीजी हम सभी हंस आपका स्वागत करते हैं। मेरा नमन है।

एकाएक जल स्तर दो भागों में विभक्त हो गया। मैं नीचे चल दिया। ऊपर देखा जल फिर पूर्ववत हो गया। हमारा कोई अंग जल से भीगा नहीं। बहुत नीचे जाने पर एक मंदिर दिखाई पड़ा। वह मंदिर नील स्फटिक का बना था। द्वार दिखाई पड़ता था। परंतु सामने जाने पर प्रतीत हुआ कि यह बंद है। वह स्वतः खुल गया। अंदर गया। एक भव्य वृहद राज महल। सैकड़ों सेवक, सेविकाएं इधर-उधर सेवा में रत थीं।

मेरे सामने दो युवतियां आईं। प्रेम से मुस्कराते हुए अभिवादन कर बोली- सामने के कक्ष में गणपति आपका इंतजार कर रहे हैं। मेरे धावक कमल से आवाज आई-" स्वामी जी मेरा गमन यहीं तक है।" मैं अपना पैर श्वेत स्फटिक के फर्श पर रखा। फर्श भी मखमली कालीन ज्ञात हो रहा था। वहां की नक्काशी विश्वकर्मा प्रदत्त था। अंदर गया। सम्राट के वेश-भूषा में मणिमुकुट धारी व्यक्ति मुस्कुराते हुए झुककर नमन करते हुए विनम्र स्वर में बोला "स्वामी जो मुझे ही यहां के निवासी कुवेर कहते हैं। आपके यहां के लोग धनपति कहते हैं। मैं आपका         अलकापुरी में स्वागत करता हूं। आप अपना आसन ग्रहण करें। दो सम्राट सिंहासन लगे थे। एक पर मैं विराजमान हो गया। दूसरे पर कुबेर स्वामी।'

सामने बहुत बड़ा फर्श था। फर्श भी पारदर्शी प्रतीत हो रहा था, लेकिन पैर रखने पर अति कोमल था। फर्श पर हजारों यक्ष गण अनुशासित ढंग से बैठ गए। कहीं कोई आवाज नहीं। कोई शोर-गुल नहीं। सभी मौन थे। सभी की आंखें चमक रही थीं। उस भवन के ऊपर से, दीवार से, तारों की तरह प्रकाश निकल रहा था। सभी प्रसन्नतापूर्वक अपना-अपना आसन ग्रहण कर लिए।

यक्षपति कुबेर खड़े होकर बोलना प्रारंभ किए, "आज का यह आयोजन स्वामी जी के स्वागत में किया गया है। आज हम लोग अपने बीच इन्हें पाकर अत्यंत हर्षित हैं। हमारे लोक में किसी से किसी तरह की कोई गलती हुई हो तो मैं क्षमा प्रार्थी हूं। स्वामी जी! क्षमा करेंगे। यक्ष तो अहंकारी होते हैं। अपने स्वभाव वश बहुत बार इनसे मानव संस्कृति से, राक्षस संस्कृति से युद्धों का भी सामना करना पड़ा है। परंतु स्वामी जी जन्मों-जन्म से इन युद्धों से दूर रहने वाले हैं। आपके वाणी से, आपके दृष्टिपात से दुर्जन, सज्जन बन जाते हैं। अपने श्राप से मुक्त हो देव योनि ग्रहण कर लेते हैं। जो जड़ मूर्ख प्रारब्ध वंश जड़त्व ग्रहण कर लिए हैं। जैसे यदि अग्नि की वर्षा हो तो भी वह न फल लेगा न फूल। आपके उपस्थिति मात्र से अलकापुरी स्पन्दित होने लगा। आप हमारे पुरी के बाह्य द्वार पर जैसे ही पहुंचे थे कि हमारे यहां का वृक्ष, लता, बाग-बगीचे, तड़ाग पशु-पक्षी सभी भाव विह्वल होने लगे थे। मैं भी भाव समाधि में चला गया था। आपके द्वार पर पहुंचने के उपरान्त किसी तरह भाव समाधि से बाहर निकला हूं। हमारी पुरी आज धन्य हो गई।

आपकी स्तुति, सेवा, पूजन कैसे करूं? यह समझ में नहीं आती है। हमारे गण आपकी जो कुछ भी कर सकें हैं उसे उनकी पवित्र मनसा समझकर ग्रहण करेंगे। गलतियों को क्षमा करेंगे। आपके प्रेम से, स्नेह से, उदारता से हम यक्षगण दबे चले जा रहे हैं। आपका बार-बार स्वागत करते नहीं थक रहे हैं।

आपसे निवेदन है कि आप हमारे भोग शरीर एवं भोग लोक को देखते हुए कुछ ऐसा विधि बताएं कि हम लोग पुण्य खत्म होने पर अधोगति को न प्राप्त हों। हमें परम पुरुष की सेवा का मौका मिले। आप ऐसे सद्पुरुष के सानिध्य में रहने का शुभावसर की प्राप्ति हो। प्रतीक्षा में हैं हम सभी यक्षगण।"

"मेरे प्रिय आत्मस्वरूप यक्षगण एवं गणाधिपति! युगों-युगों से मानव-मन भटका है। वह भटकाव को ही सत्य मान लिया है। जैसे जन्म से ही कैदी अपने हथकड़े एवं पैर के बेड़े को अपना आभूषण मानकर उसी के रख-रखाव में अपनी
  प्रतिष्ठा समझता है। वही जगत्-मन की स्थिति है। सद्गुरु सच्चा उपदेश देता है। वह बंधन से मुक्ति देकर सच्च खण्ड में भेज देता है। परंतु जागतिक व्यक्ति को यह उचित प्रतीत नहीं होता है। वह प्रातः स्नान कर देवी-देवता का पूजन करना ही सच मानता है। सद्गुरु के बातों पर अविश्वास कर उसे मारने दौड़ता है। देवी- देवताओं के चक्कर में यह बार-बार चौरासी का चक्कर भोगते-भोगते वह उसी का अभ्यासी बन गया है। उसे वही सच प्रतीत होता है। जैसे किसी को पीलिया रोग हो जाता है, तब उसे पूरा जगत ही पीला दिखाई पड़ता है। वह अपने रोग को स्वीकार नहीं करता है। न ही संयमित होकर दवा लेकर, अपने रोग के निवारण में विश्वास करता है। जिससे वह व्यक्ति उसी रोग से मृत्यु को प्राप्त होता है। अपने उपदेश से पारिवारिक लोगों को भी मृत्यु के गाल में डाल देता है।

सद्गुरु के दुःख का कारण यही है। उसकी कोई नहीं मानता है। उसे ही समझाने के लिए लोग दौड़ते हैं। जो मिलता है, वह गुरु ही मिलता है। गुरुम् से पृथ्वी भरी पड़ी है। परम्परावादी गुरु, देववादी पाखण्डवादी गुरुओं की भीड़ है।" अतएव आप लोग जरा कान खोलकर ध्यान से श्रवण करेंगे। चूंकि आप लोग देव योनि में हैं। आप चाहें तो इससे उच्च, उच्चतर, उच्चतम लोकों में पहुंच सकते हैं। अपने कर्मों का फलाफल भोगते हुए सद्गुरु के शब्द को पकड़ ले एवं विहंगम मार्ग द्वारा वायुयान द्वारा जन्मों-जन्म की यात्रा क्षण भर में तय कर ले।

यदि आप दीक्षोपरान्त गुरु गोविंद का अपने अंदर आगमन का अनुभव नहीं करते हैं, तब आपको अपने मलिन वासना साफ करना ही होगा। उस तकनीक को , सीख लो। आध्यात्मिक जीवन में पुरुषार्थ अपरिहार्य है। अपनी पूर्ण क्षमता से सच्चा प्रयास किए बिना आप कभी भी आत्मसमर्पण नहीं कर सकते हैं। वायुयान से सवार होने के लिए अपने को पूर्णरूपेण उस पर समर्पित होना ही पड़ता है। शास्त्रों को रटकर केवल अद्वैत की बात करने की अपेक्षा अनुभूति संपन्न द्वैत यादी होना सदा श्रेष्ठकर है। वास्तविक गुरु दर्शन उच्च से उच्चतर आध्यात्मिक स्तरों की ओर जाने वाली एक सीढ़ी है। जबकि अनुभूति रहित सैद्धान्तिक अद्वैत वाद मात्र भटकाव है।????
 क्रमशः....