साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

????जीवन साधना की अन्य विधि????

      साधक को सर्वप्रथम गुरु अनुकम्पा ग्रहण करना अत्यन्त श्रेयस्कर है। गुरु का वचन ही ब्रह्म-वाक्य मानकर अनुपालन करना ही सही कदम होगा। अन्यथा विभिन्न साधकों में भिन्नता देखी जाती है। उनके इष्टदेव भी विभिन्न उपास्य होते हैं जिनसे अनुग्रह अनुकम्पा की आशा ही नहीं की जाती बल्कि मनोकामनायें पूर्ण करने की अपेक्षा भी की जाती है। जबकि पराधीनता की स्थिति में स्वामी की इच्छा पर ही सभी कुछ निर्भर करता है। सेवक तो अनुनय-विनय ही कर सकता है परन्तु स्वधर्म (साधना) के सम्बन्ध में यह बात नहीं है। उसकी अभ्यर्थना सही रूप में बन पड़ने पर वह सभी कुछ इसी जीवन में प्राप्त किया जा सकता है, कहीं अन्यत्र से पाने की आशा करना भ्रांतिधारणा है। आप अपने को जैसा सोचें एवं कार्य करें वैसा ही बन जायेंगे। जिसने अपने अन्दर में महानता आरोपित की है उसे अपना अस्तित्व मानवीय गरिमा से ओत-प्रोत दिखायी पड़ेगा। परमात्मा सभी कुछ करने में समर्थ है। आपको मन्दिर बनाकर वह आप में ही बैठ गया है। अतएव आप पर निर्भर करता है कि आप अपने को परमात्मा का पुत्र समझें या उत्तराधिकारी या भेड़ों के बीच में पल रहे सिंह की तरह अपने को भेड़ समझ लें परन्तु आप तो अत्यन्त शुद्ध चित्त-आनन्द स्वरूप ही हैं। तब ही तो वेदान्त कहता है-"शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि।" अब आप स्वयं निर्णय कर सकते हैं कि "कस्मै देवाय हविषा, विधेम।" यानी हम किस देवता के लिए भजन करें? इसका उत्तर आपके पास है आप स्वयं परमशुद्ध परमात्मा स्वरूप ही हैं।

    जीवन को तीन भागों में बाँट सकते हैं (1) आत्मा (2) शरीर, (3) पदार्थ सम्पर्क। प्रत्येक व्यक्ति शरीर की सुन्दरता पर ध्यान देता है। आज-कल लड़के की शादी में सुन्दर से सुन्दर शरीर वाली लड़की का चुनाव करते हैं। जरा-जरा की बात के लिए लड़की में काँटछाँट करते हैं। वही स्थिति पदार्थ की भी है। पूरा परिवार पदार्थ के झाड़ में लगा है। सुन्दर लड़की भी चाहिए एवं दहेज थी। मात्र दो में ही सारा जगत् लगा है। परन्तु आत्म-चिन्तन या आत्म-परिष्कार है। कहीं बात ही नहीं की जाती है। जिससे सारा परिवार सब कुछ होते हुए भी कुरूप हो जाता है। इसलिए सबसे प्रधानता आत्मा (चेतना) को देना होगा। तभी तो आत्म-बल को जीवन की सर्वोपरि सम्पदा एवं सफलता माना गया है। इससे मन में ओजस्, तेजस् और वर्चसकारी प्रतिभा का जन्म होता है। इस आत्मिक पूजा का सार्वभौम एक ही उपाय है-वह है उपासना। उपासना के लिए जप, ध्यान एवं प्राणायाम की जरूरत है। इससे अन्य पूजा आत्मबोध का प्रयोजन पूरा नहीं कर सकता है। आज के युग में लोग कर्मकाण्ड को या कृत्य विधान को किसी पुरोहित से ठेके पर करा लेते हैं उसी से अपने को पुण्यवान समझ बैठते हैं। फलतः उसमें संलग्न लोगों के जीवन में विकास के कोई लक्षण नहीं दिखते हैं। अतएव साधक अपने जीवन में तीन को अवश्य अपनाये (1) उपासना (2) साधना (3) आराधना। (1) उपासना-(उप + आसन) नजदीक बैठना। यानी ईश्वर के नजदीक बैठने को ही उपासना कहा गया है। साकार बैठना है तो गुरु के नज़दीक बैठ सकते हैं। एवं उसके आदेश से आत्मदर्शन करना ही उपासना होगा।

(2) साधना-यानी साध + लेना। शरीर धर्मा-धर्म की धारा विद्या ही साधना है। जिसकी व्याख्या कुण्डलिनी जागरण पुस्तक में कर दी गयी है। इसमें रहन-सहन, आहार-विहार, संयम, कर्तव्य का पालन, सद्गुणों का अभिवर्धन, दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन आदि आते हैं।

(3) आराधना-यानी अर्चना। जन-कल्याण, लोक मंगल के लिए जो कुछ भी किया जाये वह आराधना है।

इस साधना में स्वाध्याय की, संयम शीलता की लोकमंगल के लिए निरन्तर समयदान, अंशदान लगाते रहने की आवश्यकता है। इसके बिना पुण्य संचय होगा ही नहीं। संयम तो अपने शरीर, मन और स्वभाव में स्वयं ही साधा जायेगा। परन्तु सेवाधर्म अपनाने के लिए समयदान के साथ साधन दान की भी जरूरत पड़ती है। अपने उपार्जित धन का सारा भाग परिवार के लिए ही खर्च करते रहना श्रेयस्कर नहीं है बल्कि समाज के प्रति अपराध भी है। उसका महत्त्वपूर्ण अंश लोक मंगल के लिए नियमित और निश्चित रूप से निकालते रहना चाहिये अन्यथा प्रकृति आपको मुफ्त में हवा, प्रकाश, ऊर्जा, वर्षा, शीतलता आदि जो देती है उसका कर वसूल कर लेती है। नास्तिक उन तथाकथित आस्तिकों से अच्छे हैं जो प्रत्यक्ष ईश्वर को न देखकर उसकी सत्ता को नकार देते हैं परन्तु आस्तिक तो पक्षपात की मूढ़ता में लम्बी-चौड़ी मनोकामनाओं की पूर्ति चाहते रहते हैं। वह ईश्वर पर, गुरु पर दबाव डालते हैं कि उसके पक्ष के लिए ईश्वर प्रदत्त विधि-व्यवस्था को तोड़ दें। यदि उनकी मनोकामना पूर्ण नहीं होती तो गुरु के प्रति, ईश्वर के प्रति आस्था समाप्त हो जाती है। ये नास्तिकता से भी खतरनाक है। इसमें चेतन शक्ति की सम्भावना नहीं होती जबकि संसार में यही शक्ति सबसे कीमती है।

        ????संयम????

साधक को चार प्रकार के संयम का पालन अवश्य करना चाहिये।

(1) इन्द्रिय संयम

(2) समय संयम

(3) अर्थ संयम

(3) विचार संयम

(1) इन्द्रिय संयम-साधक प्रधानतः दो ही इन्द्रिय से परेशान हो उठता है। एक जीभ दूसरा जननेन्द्रिय। जीभ के वश होकर नाना प्रकार का खट्टा-मीठा तीता पदार्थ ग्रहण करते। शरीर बेकार हो जाता। मन बुद्धि भी मारी जाती है। पूरा जन्म जीभ के चलते बर्बाद हो जाता है अतएव साधक अभक्ष्य ग्रहण कदापि न करे। बिना नमक, बिना मीठा का भोजन सप्ताह में एक दिन अवश्य करे तथा जीभ ही कटु शब्द का प्रयोग करती है। इसे संयमित करना होगा। दूसरा जननेंद्रिय कामुकता की प्रवृत्ति, कुदृष्टि की प्रवृत्ति लाती है जिसपर संयम करना अत्यन्त जरूरी है। असंयम से शरीर और मस्तिष्क खोखला हो जाता है। इसी तरह श्रवण एवं भ्राणेन्द्रिय पर भी अवलोकन करते रहना है।

(2) समय संयम- मनुष्य व्यर्थ गप करने में, ताश खेलने में व्यर्थ का समय बर्बाद कर देता है। साधक पूरे दिन के लिए धर्म-कर्म हेतु समय निर्धारण कर एक-एक मिनट का सदुपयोग करे। जब खाली समय हो तो गुरु द्वारा प्रदत्त धर्म का प्रचार करे जिससे एक भी तो व्यक्ति रास्ते पर आकर अपना जीवन सुधार सके। प्रति दिन कम-से-कम एक घंटा समय परोपकार में धर्म प्रचार में

अवश्य लगाए। (3) अर्थ संयम-अर्थ को अनर्थ में खर्च न किया जाये। ईमानदारी और परिश्रम से ही अर्थ कमाया जाये। सादा जीवन एवं उच्च विचार की नीति से जिया जाये। विलास, कुरीति के नाम पर अर्थ न खर्च किया जाये। बचत का बड़े-से-बड़ा अंश परमार्थ में ही खर्च किया जाये। कम-से-कम प्रत्येक माह में अपना एक दिन का पारिश्रमिक अवश्य दान करें।

(4) विचार संयम-कभी भी अनर्गल विचार नहीं उठने दिया जाये। हर समय
 मिध्या कल्पना में रहना अत्यन्त हानिकारक है। यह अकर्मण्यता का प्रतीक है। अतएव विचार के लिए विवेक को एक चौकीदार बना दें। विचार हर समय श्रेष्ठ काम के प्रति रखना चाहिये। गुरु द्वारा प्रदत्त कार्य पर विचार करना, लोक मंगल कार्य के लिए ही विचार करना श्रेष्ठतम है।

विशेष विधान-साधक को साप्ताहिक विशेष साधना के लिए विशेष नियम अपनाना उचित है। चूंकि व्यक्ति कार्य करते-करते थक जाता है तो सप्ताह में एक दिन छुट्टी मिलती है जिससे वह ऊर्जा का संचय करता है एवं पुनः कार्य में जुट जाता है। दिन भर कार्य करते-करते थक जाता है तो रात्रि में सो जाता है। प्रातः ऊर्जा से भरा जागता है एवं कार्य में लग जाता है। प्रकृति भी परिवर्तन करती रहती है। जाड़ा के बाद गर्मी, गर्मी के बाद वर्षा। इससे प्रकृति में नवीनता बनी रहती है। अतएव साधक निम्न चार विद्या को अपनाते हैं।

(1) उपवास

(2) ब्रह्मचर्य

(3) प्राण संचय

(4) मौन।

(1) उपवास-हालाँकि इसकी व्याख्या पूर्व पुस्तक में की जा चुकी है। उप यानी नजदीक वास यानी निवास। परमात्मा के नजदीक निवास करना। परन्तु हम इतना दूँस-दूँस कर जीभ के चलते खा लेते हैं कि नाना प्रकार की बीमारियों का शिकार हो जाते हैं। परमात्मा के नजदीक न जाकर बीमारी के नज़दीक चले जाते हैं। अतएव सप्ताह में एक दिन गुरु के निर्देश पर उपवास करें। यदि सप्ताह में नहीं रह सकते तो अमावस्या तथा चतुर्दशी पूर्णिमा को अवश्य रहें। भजन कीर्तन में समय व्यतीत करें। जिससे शरीर का विकार दूर होता रहे तथा तरोताजा बना रहे।

(2) ब्रह्मचर्य-इसका भी वर्णन किया जा चुका है परन्तु फिर भी शरीर रूप से विकृत यौनाचार से दूर रहें। मानसिक रूप से ब्रह्मचर्य से रहें जिसके लिए कुदृष्टि अश्लील पत्र, पत्रिका, कल्पना का परित्याग करना होगा। प्रत्येक नारी को माँ, बहन के रूप में देखें, नारी पुरुष को भाई, पुत्र, पिता के रूप में ही देखें। पति-पत्नी भी एक-दूसरे के प्रति अर्धांग की उच्चस्तरीय आत्मीयता संजोये। अश्लीलता दुश्चिन्ता को नजदीक न फटकने दें। इसके लिए जरूरी है कि अपने इष्ट के प्रति श्रद्धा प्रेम से भरे रहें जिससे कुविचार नज़दीक नहीं आयेंगे।

(3) प्राण संचय-प्राणायाम से ही प्राण संचय आसानी से सम्भव है या गुरु के निर्देशन में प्राण संचय की कला सीख लें। शिव नृत्य से भी प्राण संचय होता है। जिसका वर्णन आगे किया जायेगा।
 (4) मौन-यानी चुप रहना। बोलना नहीं। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। बोलने में बहुत ऊर्जा का क्षय होता है। बिना मौन हुए कुछ भी प्राप्त करना अत्यन्त दुष्कर है। यदि व्यक्ति मौन हो जाये तो 95 प्रतिशत समस्या अपने आप दूर हो जायेगी। केवल बोलने से व्यक्ति 95 प्रतिशत समस्याएँ स्वयं आमन्त्रित करता है। मौनता में ही बीज वृक्ष बनता है, मौनता में ही बुद्धत्व अवतरित होता है। अतएव मौन रहकर प्राण संचय करें। जगत् मंगल कार्य करें। गुरु के निर्देशन में जगत मंगल कार्य अनवरत करते रहो जिससे मौनता में चार चाँद लग जायें। मौनता जीवन का श्रेष्ठतम उपहार है। बोलना कोई कला नहीं, मौनता ही कला है। मौनता में ही श्रद्धा-प्रेम का उद्भव होता है जो परमपुरुष की तरफ अग्रगति से बढ़ता है। अतएव साधक सुबह चार बजे से आठ बजे तक प्रतिदिन अवश्य मौन रहे। सारा कार्य सम्पादन मौनता से ही करे।

क्रमशः.....