साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
आर्य की भूमि
पुराणों एवं वेदों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि आर्य बहुत दूर तक फैले थे। अभी सिकुड़ गये हैं। आर्यों का कार्य क्षेत्र या आर्यावर्त उत्तर कुरु (सुमेरू से ऊपर) से लेकर पश्चिम में वर्तमान ईरान, इराक, सीरिया, असीरिया, इजिप्त, अरब स्थान (अर्बस्थान), नेपाल, भूटान तक फैला है। इन्हों प्रदेशों में प्रियव्रत उत्तानपाद से लेकर सातवें मन्वंतर तक ने राज किया। अत्रि का भी निवास ईरान में ही था। जिससे चन्द्रवंश फैला। अभी भी इस्लामी देशों में चन्द्रमा एवं उनके लड़के तारा (बुध) की पूजा करते हैं। यानी वे चन्द्रवंशी ही हैं। समयानुसार उन्होंने धर्म परिवर्तन कर लिया। इसी तरह मैत्रावरुण के नाम पर मित्र से मिश्र बना। जहाँ विवस्वान (सूर्य) और उनके वंशधरों का राज्य था। विवस्वान के ही पुत्र थे शनि। शनि ने मिश्र से ग्रीस तक अपना राज्य विस्तार किया। अभी भी ग्रीस में शनि की उपासना होती है। ग्रीस का पहला दिन भी शनिवार ही है। वहाँ के इतिहासकार शनि को ही अपना मूलपुरुष मानते हैं। उनकी कथाएँ कहानियाँ शनि से ही शुरू होती हैं। इसलिए मालूम होता है कि ये लोग शनि के वंशज है अतएव सूर्यवंशी
चन्द्रवंश एवं सूर्यवंश से ही पूरे मानवगण फैले। चन्द्रवंश का फैलाव ज्यादा हुआ। इस वंश के कई लोग देवराष्ट्र को जीतकर देवेन्द्र भी बने थे। राजा रजि. नहुष, इत्यादि चन्द्रवंशी देवराष्ट्र के राष्ट्राध्यक्ष बने एवं आर्यावर्त की सीमारेखा का विस्तार बर्मा, चीन के पश्चिमी भाग एवं तिब्बत तक किया। सूर्यवंश के राजा कैकय, (कैकय देश वर्तमान ताशकन्द रूस) की लड़की थी कैकेयी। कैकय देश देवलोक ही था। उसी सम्बन्ध के चलते सम्भवत: दशरथ जी को देवासुर संग्राम में जाना पड़ा। श्रीराम का भी बनवास का कारण वही देवगण हुए। सूर्यवंश में ही जनकपुर भी आता है। कालान्तर में सूर्यवंशीयों ने अपनी राजधानी अयोध्या बनायी। अयोध्या के राज में भी एक-से-एक प्रतापी चरित्रवान, शक्ति सम्पन्न एवं राष्ट्रभक्त हुए हैं। सगर, भागीरथ, ध्रुव, ऋषभ, पृथु, भरत, हरिश्चन्द्र, रोहित, दशरथ एवं राम हुए। जिनके इतिहास पुराणों में भरे पड़े हैं। इसी वंश के राजा जनक भी थे। इसी से वैवाहिक सम्बन्ध भी था। ऋषभ देव जैनियों के आदि तीर्थकर हुए एवं जैनियों के 24 तीर्थकर सबके सब क्षत्रिय वंश में ही अवतरित हुए, जिसमें से अधिकांश सूर्यवंश के ही थे। इसी तरह बौद्धों के भी 24 तीर्थकर हुए हैं। वे सभी इसी वंश से आये हैं। यह विचित्र घटना है कि दोनों तीर्थकर एवं दोनों के 24-24 तीर्थकर, सब राज परिवार एवं ज्यादा सूर्यवंश में ही जन्म लिए। अन्तिम महावीर एवं बुद्ध भी इसी वंश के थे। सांख्य योग के प्रवर्तक भगवान् कपिल का अवतार भी इसी वंश से है। हिरण्यगर्भ भगवान अष्टांग योग का आदि प्रवर्तक, जो योग पातंजलि में है। वे भी इसी वंश के हैं।
सौदास और वशिष्ठ
इस वंश के पुरोहित शुरू से वशिष्ठ रहे। परन्तु यह याद रखना होगा कि क्या एक ही वशिष्ठ या विश्वमित्र सदा से रहते हैं। ऐसा नहीं, इनकी वंश परम्परा थी। जैसे आदि शंकराचार्य पैदा हुए एवं अपनी अल्पावस्था में ही शरीर छोड़ दिया, परन्तु अभी तक उनकी गद्दी पर बैठने वाले शंकराचार्य ही कहलाते हैं। उसी तरह इनकी गद्दी पर बैठने वाले एवं उनकी परम्परा को आगे बढ़ाने वाले उसी नाम से पुकारे गये। ये चाहे वशिष्ठ हो या विश्वमित्र, अत्रि हो या भारद्वाज या गौतम। ऐसा इतिहास नहीं मिलता कि कहीं शुभ किया हो। भी वशिष्ठ ने इस वंश के लिए
पुराणों के अध्ययन से पता चलता है कि शुरू से ही इस वंश के राजाओं का वशिष्ठ वंशीय पुरोहितों ने किसी-न-किसी रूप में प्रताड़ित कर दोहन ही किया है। जो राजा इनके चंगुल से छूटना चाहता वह दण्ड (श्राप) का भागी बनता। जैसे भागीरथ की नौवीं पीढ़ी में राजा सौदास हुए हैं। जो सुदास के पुत्र थे। इन्हें ही मित्रसह के नाम से पुराणों में जाना जाता है। चूंकि प्रजा से इनका मित्रवत सम्बन्ध था। इनकी पत्नी दमयन्ती भी अत्यन्त शील, सुशीला एवं पतिभक्त थी। राजा ने प्रजा के सुख में खलल डाल रहे एक देवगण (जिसका कर्म अत्यंत नीच का था। अतएव उसे राक्षस (घृणा वाचक) भी कहते थे) को मार डाला। जिससे वशिष्ठ का क्रोधित होना स्वाभाविक था। उस राक्षस का भाई राजा से बदला लेने के लिए राजा सौदास के घर रसोईया बनकर आ जाता है। वशिष्ठ भी राजा के घर भोजन करने आते हैं। थाली में खाद्य पदार्थ (माँस) रखा जाता है। वशिष्ठ खाने को उद्यत होते हैं। पूर्व सूचना के अनुसार या देववाणी (आकाशवाणी) के द्वारा उन्हें मालूम होता है कि वह अभक्ष्यमांस (भक्ष्य मांस नहीं) है। श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार-
"परिवेक्ष्यमाणं वशिष्ट विलोक्याभक्ष्यमंजसा ।राजानमशपत् कुद्धो रक्षा होमं भविष्यसि ॥"
वशिष्ठ जी अत्यन्त क्रोधित हो जाते हैं एवं पूछताछ की कोई आवश्यकता नहीं समझते। झट श्राप दे देते हैं जा तू राक्षस (शूद्र) हो जा। जब राजा को इस श्राप के सम्बन्ध में ज्ञात हुआ तो तुरन्त इसका कारण पता किया। तब वशिष्ठ जी से सौदास नम्रतापूर्वक बोले- हे ऋषिवर! आप कहते हैं कि आप त्रिकालदर्शी हैं। आपको यह ज्ञात नहीं हुआ कि भोजन बनाने वाला, आपको खिलाने वाला आपका ही कोई गण है। आप हमें श्राप दिए हैं अतएवं आप भी श्राप के पात्र हैं। राजा हाथ में जल लेकर अभिमंत्रित किये तब तक धर्मज्ञ दमयन्ती विनयपूर्वक कहती है-हे पति ! क्रोध करना उचित नहीं। एक तो ऋषिवर अपने को महात्मा कहते हैं एवं बात-बात पर क्रोध करते हैं। इन्हें तो कई पत्नियाँ हैं। कितने पुत्र भी हैं। (श्रीमद् भागवत पुराण में तीन पत्नी का नाम मिलता है एवं 103 पुत्रों के सम्बन्ध में भी ज्ञात होता है) परन्तु यहाँ तो आप और मैं ही हूँ। अतएव आप इन्हें क्षमा कर दें। बड़ों को क्षमा हो शोभा देता है। छोटों की क्रोध एवं उत्पात। अतएव हे धर्मज्ञ। आप इन्हें क्षमा कर दें। राजा सौदास के जल अभिमंत्रित करने मात्र से पृथ्वी कांप उठी थी। देवगण भयभीत हो
भाग चले थे। पशु-पक्षी भयभीत एवं अशान्त हो गये थे। पूरे वातावरण को भयभीत देख सौदास कहे कि यह जल कहाँ छोडू। जहाँ भी फेंकूँगा, वहाँ का नाश हो जायेगा। वे अत्यन्त करुणावस्था में, लोकहित में, मंगल की कामना से जल को अपने ही पैर पर छोड़ देते हैं, जिससे उनका पैर तुरन्त काला हो जाता है। जिससे इसका नाम "कल्माषपाद" पड़ा। ये अपना श्राप भी अपने ऊपर ले लिए। तब वाशिष्ठ जो लज्जित होकर इनका श्राप 12 वर्ष तक कर दिए। यह तो बात ठहरी बर्षि जी की। पता नहीं कैसे इन्हें अक्रोधी, अकामी, इन्द्रियों को पूर्णरूपेण अपने कश में किये हुए ब्रह्मर्षि कहते हैं। जबकि अपने भाई जरथुस्त को जो युनान का पैशाम्बर भी कहा जाता था, की भी हत्या कराये थे। खैर हो सकता है ब्रह्मर्षि की यही परिभाषा रही हो।
राजा नेमि और वशिष्ठ
ब्रहर्षि वशिष्ठ जी का उत्पात एक से बढ़कर एक है। जो आपको पुराणों को आँख खोलकर पढ़ने पर, अपने आप ज्ञात हो जायेगा। इक्ष्वाकु के पुत्र थे राजा नेमि । जो अत्यन्त धर्मात्मा एवं गुणवान थे। इनके धर्म, चरित्र एवं राज्य करने के ढंग से देवता तथा दानव दोनों में जलन होना स्वाभाविक था। ये यज्ञ अपने ढंग से शुद्ध सात्विक किया करते थे। राजा "नेमि" ने एक यज्ञ का अनुष्ठान किया। जिसका समय व तिथि निश्चित कर वशिष्ठ को भी आमन्त्रित किया। वे निमन्त्रण स्वीकार किये। जिस यज्ञ में वशिष्ठ को ऋत्विज बनाये थे। वशिष्ठ जी यज्ञ के समय देवलोक चले गये। देवेन्द्र का यज्ञ कराने। इधर राजा नेमि धर्मात्मा व्यक्ति जो ठहरे। सोचने लगे शरीर क्षणभंगुर है। कब नष्ट हो जाये, कुछ पता नहीं यज्ञ शुरू करा दिया जाये। वशिष्ठ जी के आने पर उन्हें भी दक्षिणा दे दी जायेगी। यज्ञ प्रारम्भ हो गया। इचर वशिष्ठ जी यज्ञ के मध्य में ही आ गये। जब उन्होंने देखा कि मेरे बिना ही यज्ञ शुरू कर दिया, अतएव हमें तो दक्षिणा मिलेगी नहीं। वे अत्यन्त क्रोधित हो आप दे बैठते हैं-
"शिष्य व्यतिक्रमं वीक्ष्य निर्वयं गुरुरागतः । अशपत् पतताद देहो निमेः पण्डिमानिनः ।। "
"नेमि को अपनी विचारशीलता और पाण्डित्य का बड़ा घमण्ड है, इसलिए शरीरपात हो जाये।" (श्रीमद् भागवत पुराण)
प्रत्युत्तर में नेमि भी श्राप दे दिए -
"निमः प्रतिददौ शापं गुरवेऽधर्मवर्तिने । तथापि पतताद देहो लोभाद् धर्मम जानतः ॥"
"नेमि ने कहा गुरु वशिष्ठ यह श्राप धर्म अनुकूल नहीं था, प्रतिकूल था। अतएव उन्होंने भी श्राप दिया कि आपने लोभवश अपने धर्म का आदर नहीं किया, इसलिए आपका भी शरीर गिर जाये। यह कहकर आत्मविद्या में निपुण नेमि ने स्वतः शरीर छोड़ दिया।" इधर वशिष्ठ को भी श्रापवश शरीर छोड़ना पड़ा परन्तु बिना शरीर के वे नहीं रह सके। चूँकि निम्न एवं मध्यम आत्माएँ एक क्षण भी बिना शरीर के नहीं रह सकतीं। अतएवं पुनः वे मित्रावरुण एवं उर्वशी के संयोग से जन्म ग्रहण कर ही लिए।
वशिष्ठ का पुनर्जन्म
ऋग्वेद जो आदि ग्रंथ है। उसमें लिखा है- उतासि मैत्रावरुणो वसिष्ठोर्वश्या । (7:13:11)
अर्थात् मित्र और वरुण के द्वारा उर्वशी से वशिष्ठ पैदा हुए। पुराण में लिखा है-
गणिकागर्भ सम्भूतो वशिष्ठरच महामुनि तपसा, ब्राह्मणो जातः संस्कारस्तत्र कारणम ॥
अर्थात् महामुनि वशिष्ठ गणिका (वेश्या) के गर्भ से उत्पन्न हुए थे और तप के द्वारा ब्राह्मण हुए।
यही वशिष्ठ राजा दशरथ के पुरोहित थे। वशिष्ठ का अर्थ है- जिसके वश में हो देवता। अपने तपोबल से सभी देवताओं को वश में कर लिए थे। इसका दूसरा अर्थ यह भी होगा कि जिसके वश में हो इष्ट अर्थात् राजा। सूर्यवंशी राजा इसके वश में रहते थे।
इनके पूर्व जो वशिष्ठ थे उनका जन्म ब्रह्मा एवं उर्वशी से हुआ था। दूसरा जन्म मित्र अर्थात् सूर्य एवं वरुण दोनों से। दोनों क्षत्रिय राजा थे। माँ गणिका थी। अंदोग्य उपनिषद के उॐ 3; खण्ड 4 में लिखा है-
राजा नेमि के यज्ञ में आए महात्मा ऋषिगणों ने उनके शव को पुष्प एवं सुगन्धित वस्तु में रख सत्रयज्ञ की समाप्ति की। सभी ऋषि महात्मागण यह जानते थे कि राजा नैमि ने शरीर स्वयं परित्याग किया है अतएव प्रार्थना करने पर पुनः शरीर में प्रवेश कर जायेंगे। सभी प्रार्थना करने लगे कि हे महाराज अभी आपको कोई पुत्र नहीं था। आपके नहीं रहने पर राज्य का भार कौन ग्रहण करेगा। सारी प्रजा बिना आपके मर जायेगी। आप प्रसन्न होवें, शरीर में पुनः प्रवेश करें। जी उठें। यह सुनकर नेमि बोले-
"राज्ञों जीवतु देहोऽयं प्रसन्नाः प्रभवो थदि । तथेत्युक्ते निभिः प्राह मा भून्ये देहवन्धनम् ॥"
मुझे देहबन्धन नहीं चाहिये। आगे वे कहते हैं एक-न-एक दिन यह शरीर अवश्य ही छूटेगा। इस भय से भयभीत होने के कारण वे इस शरीर का कभी संयोग नहीं चाहते। वे तो मुक्त होना ही चाहते हैं। अतएव
"देहं नावरूरुसे ऽहं दुःख शोक भयावहम् । सर्वत्रास्य यतो मृत्युर्भत्स्यानामुदके यथा ॥"
मैं अब दुःख, शोक और भय के मूल कारण इस शरीर को ग्रहण नहीं करना चाहता। जैसे जल में मछली के लिए सर्वत्र ही मृत्यु के अवसर हैं वैसे ही इस शरीर के लिए भी सब जगह मृत्यु ही मृत्यु है।
जब वीतराग से भरे राजा ने शरीर धारण करने से इनकार कर दिया तब महर्षिगणों ने प्रार्थना की- हे महाराज! आप हम लोगों के पलकों पर निवास करें जिससे आपके रहने का अहसास होता रहे। महात्मा ऐसी प्रार्थना कर सोचने लगे, राजा के न रहने पर राज्य में अराजकता फैल जायेगी। अन्त में विचार-विमर्श कर राजा नेमि के शरीर का मन्थन किया गया। आज विज्ञान भी इसमें सक्षम हो गया है कि कोई भी व्यक्ति यदि बिना पुत्र के मर जाता है तो उससे शुक्राणु निकालकर बैंक में सुरक्षित रख दिया जाता है तथा उसकी पत्नी को देकर पुत्र उत्पन्न कराया जाता है। सम्भवतः उनका विज्ञान इससे भी आगे बढ़ा हो। जो हो मन्थन करने से एक लड़के का जन्म हुआ। जन्म लेने के कारण ही उसका नाम जनक पड़ा। विदेह से उत्पन्न होने के कारण वैदेह और मन्थन से उत्पन्न होने के कारण उस बालक का नाम मिथिल हुआ। उसी ने मिथिलापुरी बसायी। इसी से वहाँ के सब राजाओं का नाम जनक पड़ा। परन्तु वे विभिन्न नाम के जनक थे। आज जर्मनेटिक सेल एवं सोमेटिक सेल दोनों से विज्ञान बच्चा पैदा करने में सक्षम हो गया है। जबकि उस समय पिता के शरीर मंथन अर्थात् उनके सेल से ऋषियों द्वारा पुत्र पैदा किये गए। अतएव वे जनक कहलाये।
राजा जनक का वंश
जनक का खानदान निम्न प्रकार चला- आदि जनक जो मंथन से पैदा हुए थे, उनके लड़कों का नाम क्रमश: इस प्रकार है-
जनक-उदावसु-नन्दिवर्द्धन- सुकेतु-देवरात-वृहद्रथ- महावीर्य - सुघृति- सृष्टकेतु - हर्यश्व मरू- प्रतीक-कृतिरथ-देवमीढ़-विश्रुत- महाधृति-कृतिरात- महारोमा - स्वर्णरोमा-रोमा जो दशरथ की पुत्री शान्ता को गोद लिए थे। इनके लड़के का नाम ह्रस्वरोमा-सीरध्वज। इन्हीं के धरती रूपी यज्ञ के सिर से सीताजी का जन्म हुआ था। सम्भवतः इसी से राजा का भी नाम सीरध्वज जनक पड़ा। इसके बाद भी इनका खानदान चला। इन्हें मानो आत्मज्ञान विरासत में ही मिलता था।सभी के सभी राजा आत्मज्ञानी हुए। संन्यासियों, ब्राह्मणों के गुरु हुए। इनका ज्ञान अदभुत था। ये शोक, मोह, रागद्वेष से रहित हुए। अतएवं इनका चरित्र उज्जवल एवं अनुकरणीय रहा। इनके पुरोहित गौतम वंशीय सदानन्द एवं याज्ञवल्क्य रहे। जो बन्द्रवंशी थे। परन्तु गुरु तो अपने पिता (जनक) को ही बना लेते थे। जिससे इन्हें सहज ही आत्मज्ञान उपलब्ध हो जाता था। क्योंकि इनका जन्म भी तो ऐसे ही महापुरुष के सान्निध्य से होता रहा कि पात्रता स्वयं आती गयी। अतएव आत्मज्ञान भी सहज होना स्वाभाविक रहा। आत्मज्ञान रूपी तंत्र को सहज ही हस्तांतरित किया जाता रहा। जिससे ये स्वयं सिद्ध होते रहे। अक्सर महात्मा के लड़के महात्मा होते है। कहीं उसका जीन यदि माँ के पक्ष का ही प्रबल हुआ तो उसके अनुरूप हो जाता है। परन्तु जनक तुल्य पिता, अत्रि तुल्यपिता, वसुदेव तुल्य पिता, राम कृष्ण तुल्य पिता के पुत्र तो अवश्य ही अपने आप में परम-श्रेष्ठ, श्री सम्पन्न, आत्मज्ञान से पूर्ण होने चाहिये। तभी तो बुद्ध के भी लड़के ने सहज संन्यास ग्रहण कर लिया एवं कबीर का कमाल तो अद्भुत कमाल का ही था। वह बचपन से ही कुछ माने में कबीर से भी बढ़-चढ़ कर आगे था। आत्मज्ञान तो उसे जन्म के साथ ही धरोहर स्वरूप प्राप्त हुआ था। गुरुनानक के पुत्र श्रीचन्द्र जी महाराज भी बेजोड़ हुए। जिनके नाम पर अभी भी उदासी अखाड़ा चलता है। इसी तरह अर्जुनसिंह देव भी थे। यदि ऐसे महापुरुष पुत्र उत्पन्न करते तो पृथ्वी अवश्य ही कुछ और होती। परन्तु दुखद घटना है कि शंकराचार्य के बाद अधिकतर लोग पुत्र उत्पन्न करने से भयभीत हो गये। परन्तु अभी भी जो संस्कारवान महात्मा थे, उन्होंने किये जैसे हंसा महाराज के पुत्र, सतपाल एवं बालयोगेश्वर। इसी तरह गायत्री के संस्थापक श्रीराम शर्मा जिनका पुत्र गायत्री संस्थान को सँभाले हुए है। गरीबदास पंथ प्रवर्तक धर्मदास, कबीर पंच के आचार्य, मध्यप्रदेश छत्तीसगढ़ के गृद्ध मुनिदास साहब, बलिया के सदाफल देव जी। इस तरह अभी इन लोगों के पुत्र तो औरों के तथाकथित ज्ञान से अच्छे एवं उच्च विचार वाले हैं। चूँकि इनका शरीर एवं ज्ञान दोनों ही सहज पिता के माध्यम से पुत्र तक पहुँचा है। अभी भारत का कुरूप होना, यहाँ के महात्माओं का कुरूप होना, भ्रष्ट होना, अनैतिक होना इसी का परिणाम है। आप ही जरा सोचो, गाय एवं पशु का तो अच्छे बीज देकर नस्ल सुधार होता है। परन्तु मानव जो इस पृथ्वी की धरोहर है, अमूल्य निधि है। उसको उत्पन्न करने का अधिकारी है चोर, गुण्डा, भ्रष्ट राजनेता, कोढ़ी, पागल, दरिद्र, दीन-हीन, अकिंचन व्यक्ति, तो कैसा बनेगा आज का समाज ? कैसा बनेगा संन्यासी ? चूंकि ये भी तो उसी के वंशज हैं। जैसे माँ-बाप वैसा पुत्र, वही पुत्र संन्यासी। परन्तु यह भी विचित्र विडम्बना है। आज का मानव सोचता है अमुक संन्यासी लोभी है, तो अमुक कामी । इत्यादि-इत्यादि मिथ्या धारणाएँ मानव के मन में चल रही हैं। वे कहते हैं संन्यासी तो हमसे बिल्कुल भिन्न होना चाहिये। आखिर कैसे ? उसका भी जन्म सड़े-गले मानव मस्तिष्क से हुआ। रह भी रहा है उसी तरह की झुग्गी-झोपड़ी में, किसी-न-किसी कष्ट में। किसी-न-किसी दुःख से वह भाग खड़ा हुआ। अपने जीने की राह खोज ली एवं रातों रात हो गया सिद्ध बाबा, नाग बाबा, खड़ेश्वरी बाबा, तपस्वी बाबा। जो बाबा जितना ही ढोंगी, मूर्ख वह उतना ही सिद्ध। अब मूखौँ के द्वारा पूजा होने लगी। विक्षिप्तों के द्वारा पूजित हो गया, मूर्खाधिपति। अब आप क्या उम्मीद करते हो उससे ? क्या कर सकता है तुम्हारे लिए? तुम्हारे विश्व-परिवार के लिए। अतएव तुम्हें स्वयं जागना होगा। शिव की तरह पार्वती के साथ रह कर, शिव के परम तंत्र को समझना होगा। तब कहीं तुमसे ही कार्तिकेय एवं गणेश का जन्म हो सकता है। स्वस्थ मन, सबल सशक्त चित्त, तपस्वी शरीर ही स्वस्थ सन्तान समाज को प्रदान कर सकता है। तब समाज अग्रगति की तरफ बढ़ सकता है। परन्तु दुःख का विषय है कि शंकर का, सदाशिव का उत्तराधिकारी बन गया है वो जो पार्वती को गाली दे रहा हो। अपनी ही माँ (पार्वती) को यज्ञ में बैठने से मना कर रहा हो। कह रहा हो यज्ञ भ्रष्ट कर देगी। स्वयं पिता (शंकर) के रूप में यक्ष बन इस बार भी पार्वती को यज्ञ रूपी, विषमता रूपी अग्नि में धक्का दे रहा है। तब इस पृथ्वी को कौन बचायेगा ? वह तो यक्ष पहचान में आ गया जिससे शिवगणों ने उसका सिर काट दिया, परन्तु यह तो यक्ष पहले से ही शिव के चोला में है। उन्हीं के रूप में है। उन्हीं का स्वयं प्रतिनिधित्व कर रहा है। अब यह पार्वती को जला भी रहा है। इसे विद्वतापूर्ण शब्दों में उचित भी ठहरा रहा है। चूँकि स्वयं बिन माने धर्म का ठेकेदार भी बन बैठा है। क्या इससे मुक्ति दिलाने हेतु स्वयं शिव को ही तो नहीं आना पड़ेगा। परन्तु आने पर उन्हें भी भ्रम हो सकता है चूँकि उन्हीं की तंत्रोक्त बातें अपने ढंग से कह रहा है। समझा रहा है।
आप जैसे ही तंत्र को पकड़ कर अपने अन्दर प्रवेश करेंगे, पायेंगे उस अनन्त को, उस विराट को जहाँ यह सब क्षुद्रत्व गिर जायेगा। मिट जायेगा। तब आप सचमुच में पहचान पायेंगे शिव पार्वती के वास्तविक रूप को। अतएव जरूरत है आप जहाँ हैं, वहीं रुकें। वहीं खड़े हो जायें। एक मिनट के लिए अपने अन्दर झाँकें, देखें। कहाँ हैं आप? तब यात्रा प्रारम्भ करें। कठिनाई हो रही है, देखें आपको कोई-न-कोई सद्गुरु अवश्य मिल जायेगा। परमपिता उस सद्गुरु के माध्यम से बह जायेगा आप तक । उत्तर जायेगा आप में। तब आप इस पृथ्वी के लिए रामतुल्य, कृष्णतुल्य, सन्तान दे पायेंगे। तब होगी पूर्ण तपस्या आपकी । पूरी होगी यात्रा आपकी। पूरा होगा मंगल विश्व का। मानव मन जैसे-जैसे शान्त होता है, चित्त वृत्तियाँ स्थिर होती हैं। स्व को पहचानना शुरू कर देता है। 'स्व' में स्थिर होकर पूर्णत्व को प्राप्त कर लेता है।
क्रमशः...