साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

अवतार

जब कभी भी मानव पूर्णत्व को प्राप्त करता है तो उसे अवतार कहते हैं। अवतार शब्द भी विचारणीय है। अवतार यानी अव+ तु+अप्-उतार अवतरणम् - अव+र्+ल्युट्-नीचे आना; उतार, अवतार।

अवतारः - अव+तृ+ धृत्-उदय, प्रकट होना, उतार।

इस तरह प्रत्येक व्यक्ति ही अवतार है। सभी की आत्मायें उतरी हैं, उदय हुई हैं, प्रकट हुई हैं। समय पर अन्तर्ध्यान हो जायेंगी। जिसका कार्य सम्मानीय, आदरणीय, लोकहित, जन-कल्याण में होता है। उन्हें हम अवतार मान लेते हैं। उसकी पूजा स्तुति करते हैं। अच्छे मानव चित्त, उच्चतम मानव मन को विष्णु का अवतार माना गया है, परन्तु अदिति पुत्र विष्णु नहीं। वह देवताओं का ही सदैव हित करता रहा। यह विष्णु मानव का प्रतिनिधि है। विष धातु से नुक् पद लगकर जो विष्णु बनता है वह है अदिति पुत्र विष्णु। इस विष्णु के शब्द की उत्पत्ति इस प्रकार दी गई है-

"यस्माद्विश्वमिदं सव्र तस्य शक्या महात्मनः ।

तस्मादेवोच्यते विष्णु विशुधातेः प्रवेशनात् ॥"

    जो भी व्यक्ति जन-कल्याण की भावना रखते हुए यानी आत्म मोक्षार्थच जगत् हितायश्च की भावना से पूर्ण होकर पूर्णत्व को प्राप्त करता है। उसे ही नारायण कहते हैं। नर का ही नारायण में रूपान्तरण भी कैसे कहें। पूर्णत्व ही कहा जा सकता है। भले ही ये जब तक रहते हैं इन्हें बुराइयों, अनीतियों से अनवरत संघर्ष करना पड़ता है। जिसके फलस्वरूप वर्तमान समाज के अधिकतर लोग इनके विरोध में ही खड़े हो जाते हैं। परन्तु इनका संकल्प महान् होता है। अतएव मानव हित में विजयश्री इनके माध्यम से प्राप्त हो जाती है। हरिवंश पुराण में भगवान शब्द का अर्थ किया है-

"ऐश्वर्यस्यः समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रिय।

ज्ञान वैराग्ययोश्चैव षष्णां भग इतिरणा ॥"

   पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, ज्ञान, वैराग्य, तेज इन सबका नाम भग है। इन छह वस्तुओं की जिनमें पूर्णता हो ऐसे योगी, महात्मा, राजा, आदि के लिए भगवान् शब्द का प्रयोग होता है। अत्रि, वेद व्यास, परशुराम, विश्वमित्र, भारद्वाज, याज्ञवल्क्य, राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, इत्यादि महामानव को भगवान् शब्द से विभूषित कियागाया। रति देव एवं जनमेजय को भी तत्कालीन पुरोहितों ने प्रभो एवं भगवान शब्द से सम्बोधित किया। इस तरह हम शास्त्रों में ही अवलोकन के पश्चात् पाते हैं कि मानव श्रेष्ठ ही भगवान् कहलाया। रक्ष संस्कृति, देव या यक्ष संस्कृति के लोगों में भगवान शब्द का प्रचलन नहीं था। सम्भवतः उनमें महत् लोक कल्याण की भावना की कमी हो, जिससे पूर्णत्व को नहीं प्राप्त कर सके। इसी से देवता भी मानव शरीर ग्रहण करना चाहते हैं; वह भी भारत खण्ड में। जहाँ का हवा-पानी, जलवायु ऋषि-परम्परा ऐसे हैं कि मानव सहज ही पूर्णत्व को प्राप्त कर सकता है। यह भी देखने में मिलता है कि जैसे ही कोई मानव पूर्णत्व को प्राप्त करता है। वैसे ही देवगण उनकी सेवा में, स्तुति में हाज़िर हो जाते हैं। जैसे उनके लिए अनहोनी घटना हो। बुद्ध के बुद्धत्व मिलने पर भी देवतागण स्तुति करने लगे। बुद्ध का प्रथम शिष्य जैसे ही परमतत्व को पाता है देखता है, प्रकाश ही प्रकाश। आगे देखता है बाहर देवतागण फूल बरसा रहे हैं। स्तुति कर रहे हैं। कबीर को भी सद्‌गुरु का अवतार कहा जाता है। जो स्वयं सिद्ध हुए। कमल के फूल पर ही बाल्यावस्था में मिले। ये चरखा कातते रहे। देवगण भी इनका सत्संग सुनने आते। इनके भण्डारे का आयोजन करते। बस मानव मन को जरूरत है, उस पूर्ण को जानने की जिस पूर्ण से आया है, भ्रमवश भूल गया है या संस्कारों का आवरण पड़ गया है तभी तो अपने को भूल भिखमंगे के सदृश दीन-हीन अकिंचन अवस्था में नाना प्रकार के दुःखों से आबद्ध है। अब यह सोचना तंत्र में प्रवेश कर जाना है कि मैं भी वही हूँ जो परमब्रह्म परमपिता है। जब मैं भी उसी परमपिता का पुत्र हूँ तो ऐसा क्यों ? सम्भवतः इसीलिए कि सब को भूलकर नाना प्रकार के देवी-देवता, भूत-प्रेत रूपी भ्रम के दल-दल में फँस गये हैं। अब अपने को असहाय महसूस करने लगे।

मैं एक कहानी सुना रहा हूँ। सुना है एक राजा था। वह इस पृथ्वी का चक्रवर्ती सम्राट था। उसका एक ही पुत्र था। बचपन में नौकरानी बगैर पूछे उसे खेलने के लिए बाहर बगीचे में ले गई थी। उससे खेल रही थी। बगीचे की सुखद सुगन्धित हवा के झोंके ने उसे सुला दिया। इसी बीच एक भिखमंगा अपनी पत्नी के साथ वहीं से गुज़र रहा था। सोचा हमें पुत्र नहीं है क्या अच्छा होता यह लड़का हमें मिल जाता। लड़का खेलते-खेलते द्वार तक आ गया था। उसे अकेला देखकर भिखारी ने उठा लिया। दोनों पति-पत्नी भिखारी उस बच्चे को लेकर नगर के बाहर निकल गये। इधर राज्याधिकारी खोजते खोजते निराश हो गये।

वह राज-पुत्र (राज्य का भावी कर्णधार) अब उस भिखमंगे माँ-बाप के साथ रहने लगा। शुरू-शुरू में तो रोया-चिल्लाया परन्तु धीरे-धीरे उनके साथ का अभ्यस्त हो गया। अब उनके नहीं रहने पर या विलम्ब से झुग्गी-झोपड़ी में पहुँचनेपर बहुत रोता एवं माँ-माँ चिल्लाता। कुछ काल के बाद वह भी अपने पिता से भीख माँगने की कला सीखने का आग्रह करने लगा। होनहार देख उसके माँ-बाप ने उसे भीख माँगने की कला सिखा दी। अब लड़का नाना प्रकार का रूप बनाकर, नाना प्रकार का कष्ट दुःख का दुखड़ा रोकर भीख माँगने लगा। अपने पिता से ज्यादा माँगता। उसकी भिखमंगों में अच्छी प्रतिष्ठा भी बढ़ गयी। उसके इर्द-गिर्द के भिखमंगे, उससे भीख माँगने की कला सीखने आने लगे। अब वह बिल्कुल भूल ही गया कि मैं कभी राजकुमार (राजपुत्र) भी था। अब तो वह यह बात सपने में भी नहीं सोच सकता था। उसे चिन्ता रहती थी मात्र अपने भिखमंगे माँ-बाप की और झुग्गी-झोंपड़ी की। एक दिन भीख माँगने हेतु दूर देश चलने की मंत्रणा कर रहा था अपने साथियों से। सभी साथी उसके नेतृत्व में चलने को तैयार थे। परन्तु उसके माँ-बाप ने सुना तो सोचा कि कहीं यह उसी राज्य में न चला जाये। जहाँ से हम लोग उसे उठा लाये हैं। यदि भूलकर भी वहाँ गया एवं किसी तरह पहचाना गया तो भारी अनर्थ हो जायेगा। हमारे हाथ से निकल जायेगा। फिर हमारा क्या होगा ? अतएव बहुत उदास मन से माँ बोली बेटा हमने बहुत दुःख से तुम्हें पाला है। व और कहीं जाना परन्तु उत्तर दिशा में न जाना। वहाँ का राजा अन्यायी है। अधर्मी है। वह धर्म-कर्म नहीं समझता। अतएव तू वहाँ से सावधान रहना। इससे अच्छा है तू यहीं रह। जो हमें मिलेगा। उसी में खुश रहेंगे। तू तो साथ रहेगा। इस तरह समझा-बुझाकर उसे रोक दिया। समय चक्र के अनुसार जब उसके माँ-बाप की मृत्यु हो गयी। वह पूर्ण युवावस्था को प्राप्त हो गया। तब सोचने लगा। क्यों हमें उत्तर दिशा के राज्य में जाने से रोका गया। अब चलकर देखते हैं। हमारा लगता ही क्या है? भिक्षा ही तो नहीं मिलेगी। लगेगा क्या? यह सोच अपने साथियों के साथ वह निकल पड़ा उत्तर दिशा में। देखा राज्य बहुत ही सुन्दर था। सभी निर्भव थे। सभी सम्पन्न थे। न कोई भिखारी, न कोई अत्याचारी। सब कुछ उसकी आशा के विपरीत दिखाई पड़ा। वह घूमते-घूमते राजमहल के पास चला गया। राजा बाहर निकल रहे थे। युवक ने सोचा जरा देख लेते हैं राजा को भी। जब आ ही गये हैं तो देख लेते हैं। राजा ज्यों ही बाहर निकला, वह युवक त्राटक की मुद्रा में देखता ही रह गया। मानो उस । मन-मस्तिष्क अज्ञात जगत में खो गया। वह राजा घूमते हुए आया एवं उस युवक को पकड़ कर पूछा, कहाँ खो गया है। तब उस युवक को होश आया। वह डर सा गया। क्या गलती हो गयी। क्या सचमुच वही राजा है। जो हमें पकड़े हुए है। क्या यह भी संभव है? कदापि नहीं। कहाँ वह राजा, चक्रवर्ती सम्राट, कहाँ मैं भिखारी? राजा पूछता है- तुम्हारा नाम क्या है? वह डरते हुए बोला - महाराज ! गलती हो गयी। भूल गया था। अब कभी नहीं यहाँ आऊँगा।चूँकि अपनी माँ की उक्ति याद आ गयी, राजा अन्यायी है, दण्ड देता है अतएव भयभीत स्वर में क्षमा याचना करता है। राजा पूछता है तुम्हारी छाती में काला निशान तो नहीं है? वह और डर जाता है। उसके सारे साथी उसे छोड़कर भाग जाते हैं। वह अकेला रह जाता है। यह कह देता है नहीं महाराज हमें कोई निशान वगैरह नहीं। हमें छोड़ दो महाराज। राजा कहता है- अब तू कहाँ छूटेगा। तुझे बहुत खोजा भी, तुझे तो खोजते-खोजते मैं थक सा गया। लेकिन मुझे उम्मीद थी कि एक-न-एक दिन वापस जरूर आएगा। तू आ ही गया। फिर उसकी कमीज़ उठाते हुए बोले, देख यह है निशान। तू मेरा ही पुत्र है। तू भीख माँगता है। यह राज्य तुम्हारा ही है। इस सम्पूर्ण राज्य का उत्तराधिकारी तू ही है। मानो उसको अपने ही कानों पर विश्वास नहीं हो रहा। कहीं सपना तो नहीं देख रहा।

राजा प्रसन्नचित्त हो उसे गोद में उठा लेता है। उसका भिक्षापात्र अनायास ही गिर जाता है। वह राजमहल पहुँच जाता है। अपने पिता का उत्तराधिकारी बन जाता है। अब अपने भिक्षापात्र की चिन्ता नहीं करता, न ही अपनी झोंपड़ी की। अपनी मूर्खता का कभी-कभी अहसास हो जाता है कि क्यों मैंने समय बर्बाद किया। खैर अब प्रसन्न है, आनन्दित है। यही स्थिति है आपकी व हम सब की। अपने परमप्रिय परमात्मा रूपी पिता को भूलकर भिखमंगों के साथ भिक्षाटन कर रहे हैं। जैसे ही परमपिता परमात्मा (परम प्रकाश) के सामने जायेंगे। भिक्षाटन रूपी कुवृत्तियाँ अपने आप बिना प्रयास के गिर जायेंगी। आप पा लोगे अपने प्रभु का राज्य। हो जाओगे अपने ही राज्य के स्वामी। बन जाओगे स्वामी जी। बस अपने ममता रूपी माँ, अहंकार रूपी पिता, सांसारिक बन्धन रूपी झोंपड़ी, कुवृत्तियाँ (लोभ, काम, क्रोध) रूपी भिखारी मित्र, कुसंस्कार रूपी संयम, भय, कुपात्रता रूपी भिक्षा पात्र का मन से परित्याग मात्र करना है। सद्‌गुरु रूपी दृढ़ इच्छा, संस्कार को लेकर स्मृति (सुरंग) के सहारे प्रभु के दरवाजे पर पहुँच जाना है। फिर क्या, वह प्रभु तो अपनी गोद में बैठाने के लिए सदा से व्याकुल है। देर उसकी तरफ से नहीं, देर तुम्हारी तरफ से है। फिर पा लेना है अपने अनन्त राज्य को। उपलब्ध हो जाना है वह प्रभु। फिर लौटना मुश्किल है, असम्भव है।

क्रमशः...