साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
????राजा अम्बरीष-दुर्वासा????
राजा अम्बरीष अतुलनीय ऐश्वर्य से पूर्ण सातों द्वीपों पर राज करते थे परन्तु समस्त सम्पत्ति मिट्टी की तरह उन्हें ज्ञात होती थी। चूँकि वे वीतरागी हो गये थे। धर्मात्मा थे ही अतएव उनके राज्य की प्रजा भी स्वर्ग की इच्छा नहीं करती थी। वे अपने अन्तःकरण में अनन्त प्रेम दान करने वाले प्रभु का ही नित्य-निरन्तर दर्शन करते रहते। इसलिए उन लोगों को वह भोग सामग्री भी हर्षित नहीं कर पाती थी जो बड़े-बड़े सिद्धों, तपस्वियों को भी दुर्लभ है। वे वस्तुएँ उनके प्रेमानन्द के सामने अत्यन्त तुच्छ और तिरस्कृत थीं। वे जल में कमल की भाँति राज्य करते थे। एक बार राजा अपनी पत्नी के साथ द्वादशी प्रधान एकादशी का एक वर्ष तक व्रत किये। एकादशी यानी पाँच कर्म इन्द्रिय, पाँच ज्ञान इन्द्रियों को संयमित कर ग्यारहवें मन को शान्त करना ही वास्तविक एकादशी हुई। जब मन शान्त हो जाता है तब यह मन मानसरोवर बन जाता है जिससे प्रेम का शीतल निर्झर अपने आप निकल आता है। प्रेम से लबालब होने पर बारहर्वी आत्मा अपने आप साकार हो जाती है। भक्त अब आत्मानन्द में डुबकी लगा लेते हैं। अब "बूँद समाना समुद्र में।" बूँद महासमुद्र में विलीन हो जाती है। वह प्रभुस्वरूप हो जाता है या प्रभु ही उसमें आ जाते हैं। "समुद्र समाना बूँद में" भी हो जाता है। अम्बरीष इसी द्वादशी प्रधान एकादशी का व्रत करते थे। व्रत की समाप्ति पर साधु महात्माओं को आमन्त्रित कर दान-दक्षिणा देकर स्वयं भी प्रसाद ग्रहण करने जा रहे थे। तब तक सूचना मिली कि ऋषि दुर्वासा आ गये हैं। राजा साधु पुरुष थे। अतएव अपने स्वभाव-वश तुरन्त दौड़तेहुए, नंगे पाँव गये एवं दुर्वासा जी के पैर पकड़ लिए। उनकी पूजा-अर्चना की। चरणामृत लिया। प्रसाद पाने का आग्रह किया। दुर्वासा जी यानी दूर वासा अर्थात तप तो किया परन्तु उनका वास दूर हो गया, परमात्मा से। जाप तो किया, यज्ञ तो किया परन्तु परमात्मा से दूर होते गये। हो गये दुर्वासा। अम्बरीष उपवास में थे। उपवास यानी नजदीक वास, निवास करना अर्थात वे परम-पुरुष के सान्निध्य में निवास कर रहे थे। जिनकी हर वाणी से अमृत की वर्षा होती थी। इसी से ये थे अम्बरीष। साधु पुरुष। दूसरी तरफ उच्च कुल में आकर भी, गृह त्याग कर भी, कठोर तप कर के भी, शरीर जलाकर भी, परम पुरुष से दूर थे, दुर्वासा जी। तब कैसे पहचानेंगे साधु पुरुष को। किन आँखों से देखेंगे सद्गुरु को। संसार भी तो यही निर्णय करेगा कि दुर्वासा ही है वास्तविक साधु चूँकि उसके पास उसी तरह की कसौटी ही है।
दुर्वासा जी अपने स्वागत से खुश हुए कि इतना बड़ा सम्राट हमारे पैरों को धो रहा है, चरणामृत पी रहा है। अंहकार को भोजन मिल रहा था। अतएव वे बोले राजन भोजन की व्यवस्था करो। मैं जमुना में स्नान कर आ रहा हूँ। दुर्वासा जी स्नान करने गये तो विलम्ब करने लगे चूँकि इन्तजार कराने में भी मजा आता है। इधर एक वर्ष का द्वादशी व्रत बीतने जा रहा था। राजा ने साधु-महात्मागण ब्राह्मण से परामर्श किया। हालाँकि सब कुछ जानते हुए भी परामर्श किया। महाराज दुर्वासा अभी तक स्नान कर नहीं आए अब द्वादशी एक घड़ी है समाप्त होने पर क्या करें ? महात्मागण ने उन्हें सलाह दी महाराज दुर्वासा है क्रोधी ब्राह्मण। अतएव आप जल ग्रहण कर लें। जल पारन में आ भी जायेगा एवं नहीं भी आयेगा। आपका द्वादशी का व्रत पूरा हो जायेगा। दुर्वासा जी भोजन भी कर लेंगे। ऐसा ही राजा ने किया। दुर्वासा जी आ गये एवं सोचा कि राजा ने अपना व्रत पूरा करने हेतु जल पी लिया। व्रत पूरा कर लिया। वे क्रोध से थर-थर काँपने लगे। भौंहें चढ़ जाने से उनका मुँह विकट हो गया। उन्होंने हाथ जोड़कर खड़े अम्बरीष से डाँटकर कहा-
"अहों अस्य नृशंसस्य श्रियोन्मत्तस्य पश्यत् ।
धर्मव्यक्तिक्रमं विष्णोरभकृस्येशमानिनः ॥"
"अहो। देखो तो सही, यह कितना क्रूर है, यह धन के मद में मतवाला हो रहा है। भगवान की भक्ति तो इसे छू तक नहीं गयी। यह अपने को बड़ा समर्थ मानता है। आज इसने धर्म का उल्लंघन करके बड़ा अन्याय किया है। देखो, मैं इसका अतिथि होकर आया हूँ। इसने अतिथि सत्कार करने के लिए मुझे निमन्त्रण भी दिया किन्तु फिर भी मुझे खिलाये बिना ही खा लिया।" अच्छा देख अभी इसका फल चखाता हूँ। यों कहते-कहते वे क्रोध से जल उठे। उन्होंने अपनी एक जटाउखाड़ी और उससे अम्बरीष को मार डालने के लिए एक कृत्या उत्पन्न की। वह प्रलयकाल की आग के समान दहक रही थी। वह आग के समान जलती हुई हाथ मैं तलवार लेकर राजा पर टूट पड़ी। उस समय उसके पैरों की दमक से पृथ्वी काँच रही थी। दुर्वासा अब मुस्कुरा रहे थे। उनका क्रोध पूरा हो रहा था परन्तु राजा अम्बरीष देखकर भी उससे तनिक विचलित नहीं हुए। वे एक पग भी नहीं हटे। ज्यों के त्यों खड़े रहे। भक्त को क्या अन्तर पड़ता है वह तो सबको उसी परम-पिता का ही समझता है। अतएव कृत्या से भय की भी कोई बात नहीं। वे "स्व" में सहज ही स्थिर थे। उनके शरीर से ही सुदर्शन (दिव्य ज्योति) चक्र निकला जिसमें देखते-ही-देखते कृत्या जलकर भस्म हो गयी। कृत्या को जलते हुए देख दुर्वासा विचलित हो गये। अब देखते हैं वह दिव्य ज्योति रूपी चक्र, जो अत्यन्त ही सुन्दर है जिसके दर्शन का भी फल है। वह चक्र सुदर्शन उनकी तरफ बढ़ रहा है जिसको देखने में उनकी आँखें असमर्थ थीं। जिसकी गर्मी भी वे बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। अतएव भयभीत होकर भाग खड़े होते हैं। जब कोई अनाड़ी साधक भी उस दिव्य प्रकाश को एकाएक देखता है तो चकाचौंध होकर विक्षिप्त हो जाता है। भागने के अलावा कोई रास्ता नहीं होता। वे भी भागकर अपने पिता ब्रह्मा के यहाँ आते हैं एवं बचाने की गुहार लगाते हैं। ब्रह्मा कहते हैं तूने उस साधु पुरुष का अहित किया, मैं कुछ नहीं कर सकता। वह जिस पुरुष को उपलब्ध है। मैं भी नहीं प्राप्त कर सका हूँ। अतएव तुम्हारी मदद हम नहीं कर सकते। वे भागकर शिव के पास जाते हैं। वह भी मदद करने से मना कर देते हैं। परम-पुरुष के खिलाफ कौन मदद करेगा। अन्त में थककर विष्णु के यहाँ जाते हैं। विष्णु उन्हें सलाह देते हैं देवर्षि दुर्वासा आपको कोई भी देवता बचा नहीं सकता। यदि आप अपना बचाव एवं कल्याण चाहते हैं तो उसी साधु पुरुष अम्बरीष का चरण पकड़ लें। साधु को क्रोध नहीं होता प्रेम से परिपूर्ण होता है। अतएव बदले में वह आपको भी प्रेम ही देगा। आप समय बरबाद न करें। लौट जायें अम्बरीष से ही प्रार्थना करें। वह क्षमा कर देंगे। क्षमा क्या करेंगे? वे तो क्रोध ही नहीं करते। क्रोध तो आपको है। आपके क्रोध का परिणाम ही आपका पीछा कर रहा है।
दुर्वासा जी विष्णु की उक्ति सुनकर लौट आये। राजा अम्बरीष के पैर पकड़कर अत्यन्त दीन भाव से बोले, हे साधु पुरुष हमें क्षमा कर दो, क्षमा कर दो। यह देख राजा अम्बरीष अत्यन्त दुखी हुए। हमारे ही चलते यह तपस्वी ब्राह्मण इस गति को पहुँचा। बड़े जन हर समय दोष अपने में देखते हैं। अतएव उन्होंने परम पिता का ध्यान कर प्रार्थना की, हे परमात्मा ! इन्हें माफ कर दो। यदि मैंने कुछ भी पुण्य किया है तो इन्हें माफ कर दो। हालाँकि हम अभी तक कोई पुण्य कार्य तो किये नहीं फिर भी हे भगवान! आप धर्म के रक्षक हो, इन्हें माफ कर दो।
"यदि जो भगवान् प्रीत एकः सर्वगुणश्रयः । सर्वभूतात्मभावेन द्विजो भवतु विज्वरः ॥"
यदि मैंने समस्त प्राणियों की आत्मा के रूप में उन्हें देखा हो और वे मुझ पर प्रसन्न हों, तो दुर्वासा जी के हृदय की सारी जलन मिट जाये। इतना कहते ही वह प्रकाश राजा अम्बरीष में ही समाहित हो गया। दुर्वासा की जलन समाप्त हो गयी। भयमुक्त हो गये। जब भी कोई व्यक्ति अहंकार त्याग कर समर्पण भाव से, श्रद्धा के साथ साधु पुरुष की शरण में जाता है। त्रिविध ताप से मुक्त हो जाता है। शीतलता आ ही जाती है, शान्त हो ही जाता है। जैसे दुर्वासा अम्बरीष का शरणागत हुआ। जब दुर्वासा जी का मन शान्त हुआ तो उस साधु का गुणगान करते हुए कहते हैं-
"अहो अनन्तदासानं महत्वं दृष्टमहल में। कृत्याग्यो पि यद राजन् मंगलानि समाहसे ।। दुष्करः कोनुसाधुनां दुस्त्यजो वा महात्मनाम् । यैः संगृहीतो भगवान सात्वतामृषभो हरिः ॥"
धन्य है। आज मैंने भगवान के प्रेमी भक्त का महत्व देखा। राजन् मैंने आपका अपराध किया, फिर भी आप मेरे लिए मंगल कामना ही कर रहे हैं। जिन्होंने भगवान् के चरणों को दृढ़ भाव से पकड़ लिया है-उस साधु पुरुष के लिए कौन-सा कार्य कठिन है? जिसका हृदय उदार है, वे महात्मा भला किस वस्तु का परित्याग नहीं कर सकते। जिनके मंगलमय नामों के श्रवण मात्र से जीव निर्मल हो जाता है-उन्हीं के तीर्थ पाद भगवान् के चरण कमलों के जो पास है, उनके लिए कौन-सा कर्तव्य शेष रह जाता है। महाराज अम्बरीष। आपका हृदय करुण भाव से परिपूर्ण है। आप ने मेरे ऊपर महान अनुग्रह किया। अहो, आपने मेरे अपराध को भुलाकर मेरे प्राणों की रक्षा की है।
महात्मा अम्बरीष की शरण में जाने मात्र से दुर्वासा की बुद्धि शुद्ध हो गयी। मन शान्त हो गया। शान्त मन से उनकी स्तुति की। उनसे सत्संग सुना एवं माँगकर प्रसाद ग्रहण किया। तब वे आकाश मार्ग से ब्रह्म लोक चले गये। ऐसा वर्णन आता है। यानी इससे यह भी ज्ञात होता है कि आकाश मार्ग से गमन की शक्ति हो सकती है, ब्रह्म पुरी रह सकते हैं, सिद्धियों के स्वामी बन जाते हैं परन्तु साधु नहीं बन सकते हैं। जब तक कि आपकी सद्गुरु से भेंट न हो जाये। सम्भवतः दुर्वासा को अम्बरीष रूपी सद्गुरु का दर्शन हो गया। वह तो पहले भी था, बाद में भी। परन्तु दुर्वासा रूपी शिष्य तब तक मानने के लिए बाध्य नहीं होते जब तक कोई चमत्कार न देख लें। सीधे-सीधे साधु को कतई नमस्कार नहीं कर सकते। जबकि सद्गुरु किसी भी चमत्कार से कोसों दूर रहते हैं। वे तो सरल, सीधे, नवनीत की तरह हैं। तुम्हें पहचानने की क्षमता चाहिये। परन्तु पहचानने वालों की संख्या नहीं के बराबर है। तभीतो सद्गुरु कबीर साहब कहते हैं-
"ऐसा कोई ना मिला, नाम भक्त का मीत। तन मन सौंपे मिरगा, ज्यों सुनि पायक का गीत ।।"
ऐसा कोई नहीं मिला, जिसे ईश्वर नाम से प्रीति हो। भक्ति हो। जो भी आया किसी-न-किसी दुःख के निवारण हेतु आया। आशीर्वाद या श्राप के लोभ से आया। "देश घूमो विदेश घूमो" शिष्य की खोज़ में देश-विदेश, गाँव की खोर में भी घूमा। ऐसा कोई नहीं मिला जिन्हें परमात्मा से प्रेम हो। यदि प्रेम होता तो वे अवश्य ही अपने तन (शरीर) मन को गुरु के चरणों में सौंप देते। जैसे मृग पायक का गीत सुनकर सुध-बुध खो देता है। अपने आपको पूर्ण रूप से उन्हें सौंप देता है। शिष्य यदि शरीर सौंपता भी है तो मन को अन्यत्र रखता है। मन को तो सौंपता ही नहीं। यदि एक क्षण के लिए भी साधक मन व शरीर को गुरु को पूर्ण-रूपेण सौंप दे, तो गुरु अपनाकर सम्पन्न कर सकता है। उसके बाद शिष्य भी वह नहीं रहेगा जो एक क्षण पूर्व था। समर्पण की देर है। सद्गुरु के द्वारा तंत्र-विद्या को हस्तांतरित करने में विलम्ब नहीं है। वह तो तत्क्षण सम्भव हो जाता है।
साधु को दान
"कबीरा दर्शन साधु के, खाली हाथ न जाये। यही सीख बुद्धि लीजिये, कहे कबीर समुझाय ।।"
साधु-पुरुष के दर्शन की अत्यन्त ही महत्ता है। साधु तो चलता-फिरता त्रिवेणी संगम है। हालाँकि वह संगम भी चाहता है कि ऐसे साधु-महात्मा मेरे यहाँ आयें, पैर अपना मेरे जल में धो लें, जिससे में भी लोगों के पापों को धोने में समर्थ हो सकूँ। साधु के दर्शन कभी भी खाली हाथ नहीं करने चाहिये। सद्गुरु अपने शिष्यों को शिक्षा दे रहे हैं कि भूलकर भी खाली हाथ मत जा अन्यथा खाली हाथ ही लौटना पड़ेगा। मिलता है उसी को जो कुछ देता है। देना भी हमारा भ्रम है। यह मालूम होता है कि हम दे रहे हैं जबकि सूक्ष्म रूप से देखा जाए तो वह घूमकर हमें ही लौटा रहा है। वह सूद समेत लौटा रहा होता है। यह हमारा अहंकार ही कहलाता है कि मैं कुछ दे रहा हूँ। हाँ दान देने वाले एवं दान लेने वाले की स्थिति पर भी निर्भर करता है। पहला प्रश्न होता है दान देने वाला कैसा है? किन कर्मों का धन दान दे रहा है? दान देने की क्षमता रखता भी है या नहीं ? जो स्वयं भूखा है वह दूसरों को कैसे खिला सकता है? जो स्वयं दीन-हीन, अकिंचन है। वह दान कैसे दे सकता है?
"दव्यहीन जैसे पुरुषार्थ मनही माहि तवाई हो।"
दरिद्रता सम दूसरा दुःख भी नहीं है। अतएव मानव को अपने पर भरोसा कर कर्म करना चाहिये। जिससे वह स्वावलम्बित हो सके। आप सर्वसमर्थ हो। स्वयं शक्तिमान हो। उठो अपने को पहचानो। कब तक दूसरे का मुँह देखते रहोगे।
"करूँ बहियाँ बल अपनी छाड़ विरानी आस। जाके अँगना नदी बहे, सो कस मरे पियास ।। "
परम पिता परमात्मा ने वह सब कुछ आप में दिया है जो आप दूसरों में देखते हैं। आपने अपनी शक्ति कभी देखी नहीं। हर समय दूसरों की आस में हाथ-पर-हाथ रखे बैठे रहे। यह उसी तरह की बात है जैसे किसी के आँगन में ही नदी बह रही हो एवं कहे कि मैं प्यासा मर रहा हूँ। आपके अन्दर सब कुछ है। मात्र आपको पुरुषार्थ करने के लिए आगे आना है। आप वैध तरीकों से रोजी-रोटी कमाने को स्वतंत्र हैं। अवैध तरीका अपनी ही मनुष्यता के खिलाफ है। जैसे गबन, रिश्वत, चोरी, अपहरण, नाप-तौल में कमी, अश्लीलता वाले कारोबार, नशा सम्बन्धी व्यापार। साथ ही ऐसा कोई भी कार्य जो मानवता के हित में नहीं हो, नहीं करना चाहिये। साथ ही कमाये हुए धन का उपयोग भी भोग-विलास में करना उचित नहीं है। अन्यथा धन का दुरुपयोग हो जायेगा। जब भी भटका हुआ समाज धन कमाना अपना उद्देश्य समझा। तब-तब धन के लिए युद्ध हुआ। धन का उपभोगकर्ता मारा गया। मानवता सिसक उठी। अनाचार, व्याभिचार, दुराचार का साम्राज्य स्थापित हुआ। इससे यह उचित है कि "धन कमाने एवं खर्च करने में पवित्रता रखनी ही होगी।"
धन-सत्य, न्याय, सेवा, कल्याण और परहित को ध्यान में रखते हुए पवित्र साधनों से कमाया जाये और जनता के कल्याण में व्यय किया जाये।
अब प्रश्न उठता है विश्व कल्याण, जन-कल्याण किसके हाथ में सम्भव है? वह सम्भव मात्र "नवसद्विप्र" ही कर सकता है जो साधक है साधना सम्पन्न है। कुपात्र को दिया गया दान भी अत्यन्त खतरनाक है। अतएव दाता सोच ले, समझ ले कि यह किस हद तक समाज का कल्याण कर सकता है। क्या इस धन का उपयोग स्कूल के बच्चों में होगा? दीन-दुखियों में होगा ? तपस्वी महात्माओं के आवास भोजन में होगा या पुरोहित वर्ग इसे लेकर पुर का हित न कर अहित तो नहीं कर रहा। ऐश-आराम, भोग-विलास में तो नहीं खर्च कर रहा है। यह विचारणीय प्रश्न है। जब मालूम हो गया कि दान लेने वाला सुपात्र है। कल्याणमूलक है। निःस्वार्थी है। परमार्थी है। फिर क्या पूछना है उसे जो भी दिया जाये कम ही है। देने वाले का भी धन एवं कीर्ति दिन दुगनी रात चौगुनी बढ़ती है। तभी तो ऋग्वेद में कहा गया है-
"उतो रथिः पृणतो नोपदस्यति।"
अर्थात् दान देने से सम्पदा घटती नहीं है अपितु दान की नींव पर निरन्तर बढ़ती जाती है। सत्कर्मों में लगाया गया धन उसी तरह सुरक्षित है जैसे बैंकों में धन जमा रहता है। जो व्यक्ति अपना धन साधु पुरुष को दान करता है, वह उससे उतना ही फल पाता है जितना कोई व्यक्ति जीवन-भर भगवान् की पूजा कर प्राप्त करता है। दान की जड़ पर खड़ा पेड़ निरन्तर हरा-भरा होता है। दान देने वाले समुदाय को आप गौर से देखें, उसका कारोबार निरन्तर अग्रगति से बढ़ता ही जाता है। वहीं उन लोगों को देखें जो अपने जीवन में कमाये और अपने ही जीवन में दरिद्र हो गये। धन का उपयोग दान में नहीं किया गया तो वह नाश को अपने-आप प्राप्त हो जाता है। इसी से ऋग्वेद आगे कहता है
"अदित्सन्तं दपयतु प्रजानन।"
अर्थात् कंजूस व्यक्ति को भी दान देने के लिए प्रेरित करना चाहिये। चूँकि आप अपना धन दान कर सन्तुष्ट हो जायेंगे, तो कंजूस का क्या होगा ? अतएव अपने. शुभचिन्तकों, मित्रों को भी दान देने के लिए निरन्तर प्रेरित करना चाहिए। यह भी दान देने के ही बराबर है। अन्यथा अथर्व वेद कहता है-
"प्र पततः पापि लक्ष्मि।"
गलत ढंग से कमाया गया धन कुछ काल चमक-दमक रखता है। पुनः वह विनष्ट हो जाता है। इस तरह धन का सदुपयोग सुपात्र को दान देना ही है।
आगे सद्गुरु कहते हैं-
"खाली साधु न विदा करूँ, सुन लीजै सबकोय। सोई कबीरा भेंट धरूँ, जो तेरे घर होय ॥ टुका माही टुक दे, चीन मांहि सो चीर।
साधु देत न सकुचिये, यो कह दास कबीर ॥
कंचन दिया कर्ण ने, द्रौपदि दीया चीर।
जो दिया सो पाइया, ऐसे कहैं कबीर ॥"
जब हम कुछ देते हैं तब वही अंक बनकर बाएँ स्थित हो जाता है। साधु पुरुष या परमात्मा जो हाथ उठाकर आशीर्वाद देते हैं। उससे शून्य निकलता है। यदि हमने एक दान दिया तब शून्य से दस हो जाता है। दस दिया तो सौ या हजार लाख हो सकता है। यदि कुछ नहीं दिया तब आपकी सम्पत्ति शून्य के बाद लगती है। तब उसकी कीमत घटती जाती है। यही कारण है कि कृपण की सम्पत्ति एक दिन घटते-घटते नाश हो जाती है।
जो हो, उसी के अनुसार आप दें। परन्तु देने में संकोच मत रखें। सन्देह मतकरें। जो आप देंगे उससे कई गुणा आपको लौटेगा ही। इसे वृथा नहीं जानना चाहिये। इसका प्रमाण वेद, पुराण, इतिहास में भी है। जो राजा दानी सत्कर्मी रहा। उसका अक्षय राज्य रहा है। जो राजा कृपण कामी रहा उसका राज्य विनष्ट हो गया।
"कहे कबीर सुनो हो सन्तो, ज्यों आवे त्यों फेरी हो।"
धन जैसे आता है वैसे ही दान देना श्रेयस्कर है। मैंने एक कहानी पढ़ी है। एक भिक्षुक प्रतिदिन भिक्षा माँगता था। दिन-भर परिश्रम करता तो उसे सवा किलो ही अन्न मिलता। जीवन का तीन हिस्सा निकल गया था। किसी तरह दोनों प्राणी जीवन गुज़ार रहे थे। एक दिन सोचा यदि राजा हमसे मिल जाते तो मैं उनसे भिक्षा माँग लेता फिर पूरा जीवन आनन्द से रहता। इस तरह की धारणा बलवती होती गयी। राजा कब मिलेगा, कहाँ मिलेगा। एक दिन संयोग ही था। वह घर से निकला था सुबह-सुबह। जब भिखमंगे घर से निकलते हैं तो अपनी झोली में एक मुट्ठी चावल के कण रख लेते हैं। खाली नहीं निकलते, अन्यथा बात बिगड़ जायेगी। उसने भी ऐसा ही किया था। जब राजमार्ग पर आया तो सुना कि राजा निकलने वाला है। बहुत लोग राजा के दर्शनार्थ राजमार्ग के दोनों तरफ खड़े थे। वह भी भीड़ में खड़ा हो गया। सोचने लगा हे परमात्मा आज हमें मिला दो जिससे मैं कुछ माँग सकूँ। यह सोच ही रहा था कि राजा का रथ अचानक भिक्षुक के सामने आकर रुक गया। राजा रथ से उतरा एवं अपना गमछा फैलाये हुए बोला बाबा कुछ दान कर दो। देखो मैं महल से निकला हूँ। राज्य में अकाल पड़ गया है। समाज का हित होगा। कुछ भी दान कर दो। देखो न मत करना। जो हो वही दान करो। वह भिक्षुक सोच भी नहीं सकता था कि राजा ही हमसे माँगेगा। भिक्षुक तो माँगने का आदी था आज तक कभी दिया नहीं था। देना उसके लिए अनहोनी घटना था। कैसे दे। वह मुड़ी झोली में रखे चावल का एक-एक दाना बीन रहा था। सोच रहा था यदि एक दाना भी दिया तो एक कम हो ही जायेगा। किकंर्तव्यविमूढ़ हो गया। इधर राजा कहता जा रहा था, बाबा कुछ भी दे दो ना। भगवान् मंगल करेगा। भिक्षुक ने अनमने भाव से एक चावल का दाना उसकी झोली में डाल दिया। वह राजा जय-जय करते हुए रथ पर बैठकर चल दिया।
आज भिक्षुक पूरे दिन उदास था। शाम को घर लौटा। उसकी पत्नी देखकर खुश हुई। आज तो आप लगभग दस किलो चावल लाये हो। आज तो खुश होना चाहिये। उदास क्यों हो। वह उदास भाव से बोला क्या कहूँ एक चावल कम है। राजा ने हमसे ही भीख में माँग लिया। यदि एक चावल नहीं दिया होता तो एक दाना ज्यादा न होता। जब उसकी पत्नी ने चावल को पात्र में रखा तो देखा एक चावल का दाना सोने का था। वह बोली देखो जी यह क्या है? क्या यह सोना है? हम लोगों ने जीवन भर सोना तो देखा नहीं। देखो जरा, गौर से। वह भिक्षुक सोनेके चावल को देखकर और दुःखी हो गया। काश! मैंने पूरी मुट्ठी चावल दान में दिया होता।
यही स्थिति सबकी है। आप जहाँ जाते हो, माँगते हो। मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे माँगते हो भीख, देते कुछ भी नहीं। एक बार माँगो नहीं परन्तु देकर तो देखो ! परमपुरुष को दिया गया दान, अक्षय होता है। विष्णु पुराण कहता है कि कथा वाचक, मन्दिर के पुजारी, वैद्य, ज्योतिषी कर्म-काण्डी को दान मत दो। चूँकि यह इन लोगों का व्यापार है। जो व्यक्ति ध्यान धारणा करता है। चाल चरित्र का निर्माण करता है। समाज सेवा में तत्पर है, उन्हीं से दीक्षा ग्रहण करो और दान दो। आपका दान फलदायी होगा।
क्रमशः...