साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

राम एवं उनका परिवार

     राम अयोध्या आते हैं। अपने परिवारजन के साथ हँसी-खुशी, आमोद-प्रमोद में समय व्यतीत करते हैं। सभी प्रसन्न हैं। चूंकि सभी तंत्र के ज्ञाता है। सभी अपना कर्तव्य समझते हैं। सभी निष्काम योग में प्रवृत्त हैं। तभी ती वाल्मीकीय रामायण में राम को बार-बार महात्मा शब्द से सम्बोन्धित किया गया है। जो भी व्यक्ति अपने आप को जान लेता है, वह महात्मा हो जाता है। जहाँ वह रहता है, वहीं हो जाती है अयोध्या। जहाँ युद्ध नहीं हो। जब मन शान्त हो जाता है। वृत्तिर्यां शान्त हो जाती हैं। आत्मानन्द की प्राप्ति हो जाती है, तो कैसे होगा युद्ध। तभी तो इनके पिता, दशरथ हो सकते हैं। दशरथ यानी जो पाँच कर्मेन्द्रियों, पाँच ज्ञानेन्द्रियों का मालिक हो जाये। ये दसों घोड़े हैं, जो शरीर रूपी रथ में जुड़े हैं। ये सभी अपने आप में गुमानी हैं। "कोई काहू का कहा न माने, आप-आप में गुमारी।" तब मनुष्य का मन अशान्त हो जाता है। विवेक का अपहरण हो जाता है। अन्तर्द्वद्ध शुरू हो जाता है। अब साधक के अन्दर प्रारम्भ हो चुके इस युद्ध में कैसे हो साधना, कैसे होगा आगमन ज्ञान रूपी राम का। दसों इन्द्रियों रूपी घोड़ों को एक साथ एक दिशा में गमन कराने वाले का नाम है- दशरथ। इनकी तीन रानियाँ हैं-पहली कौशल्या। जो श्रद्धा की प्रतिमूर्ति थीं। जब पूर्ण श्रद्धा होती है तब ही इसके गर्भ से राम रूपीज्ञान का जन्म होता है। दूसरी पत्नी थी- सुमित्रा। सुमति, अच्छी मति, बुद्धि। जहाँ सुमति तहं सम्पत्ति नाना। जहाँ सुमति हो वहाँ सभी सम्पत्ति अपने आप आ जाती है। सुमति के गर्भ से पैदा होते हैं-लक्ष्मण। ये वैराग्य के प्रतीक हैं। इनका पूरा जीवन ज्ञान के साथ बीता। चूँकि वैराग्य अकेला रह ही नहीं सकता। इसी से ज्ञान एवं वैराग्य साथ-साथ रहे। जब दोनों साथ होंगे तो कोई विघ्न आ ही नहीं सकता। यदि आ भी जायेगा तो वह टिका नहीं रह सकता। परन्तु ज्यों ही दोनों का साथ छूटता है त्यों ही दोनों आफत में फँस जाते हैं। इस वैराग्य का छोटा भाई है-शत्रुघ्न। ये विवेक के प्रतीक हैं। वैराग्य का विवेक ही अनुगामी होता है।

   तीसरी पत्नी है-कैकयी। यदि दशरथ के साथ है, उनकी अनुगामिनी है तो वह दुर्गा है। अत्यन्त शक्ति सम्पन्न। भक्ति सम्पन्न, अजेय है। तभी तो देवासुर संग्राम में भी अजेय रही। दशरथ के सान्निध्य में भक्ति रूपी धारा अपने आप निःसरित होती है तभी तो इससे जन्म होता है भरत का। जो शक्ति के प्रतीक हैं। शक्ति कभी वृद्धावस्था को प्राप्त नहीं होती। हर समय युवा रहती, सुन्दर रहती है। दशरथ को भी अपने वश में रखती है। चूँकि भक्ति के वश में कौन नहीं हो जाता। जब वह योग युक्त है, तो तरुण है, मनोरम है, मनोहर है। सबकी प्रिय है, तब उससे भक्ति रूपी भरत अपने आप निःसरित होता है, परन्तु ज्योंहि देव संयोग से उसका सम्बन्ध मंथरा रूपी माया से हो जाता है। कैकयी किसी भी तरह उसके विचार में आ जाती है। अपनी स्थिरता अपनी धर्मता को खो देती है। बार-बार के संसर्ग से उसका नियन्त्रण, उसका सन्तुलन बिगड़ जाता है तो वह भी हो जाती है-कुबुद्धि।

कुबुद्धि आने पर अयोध्या भी युद्धस्थल हो जाता है। सद्‌गुरु कहते हैं- 
माया मोह मोहित कीन्हा। ताते ज्ञान रतन हरि लीन्हा ॥

   कुबुद्धि रूपी ज्वाला में सभी जलकर भस्म हो जाता है। दशरथ भी असहाय कमजोर हो जाते हैं। ज्ञान-वैराग्य को भी अयोध्या छोड़कर भागने के सिवाय कोई रास्ता नहीं। चूँकि शक्ति तो वही है-दुर्गा की। जो पहले कल्याण मूलक थी। शान्ति मूलक थी अब विध्वंसमूलक। अग्नि वही है चाहे आप भोजन बनाकर शरीर का पोषण करो। विश्व को उसके प्रकाश से प्रकाशित करो या विश्व की नयी संरचना कर डालो। उसी ऊर्जा को आप विश्व कल्याण में लगाकर मानवता में प्रेम का सन्देश भर दो या पूरे विश्व को ही हिरोशिमा, नागासाकी बना दो। ऊर्जा वही है, निर्भर करती है प्रयोग करने वाले पर। व्यक्ति यदि साधु महात्मा के संसर्ग में रहता है तो स्व-कल्याण के साथ जगत् का कल्याण करता है। यदि वह दुर्जन के साथ हो गया उसका प्रभाव पड़ गया तो अपने नाशे के साथ-साथ जगत् का भी नाश कर देता है। जो स्व का हित नहीं कर सकता वह जगत् का हित कैसे करेगा।अस्त्र वही है, ऊर्जा वही है। प्रश्न उठता है- हाथ किसका है? साधक का, संन्यासी का, राम का, कृष्ण का, बुद्ध का, महावीर का या असाधक का, असंयमी का। बगेज़ खाँ का, हिटलर का या खुश्चेव का। यही स्थिति होती है-कैकयी की। मंथरा रूपी माया के बार-बार संसर्ग से वह विस्फोट कर उठती है। जिस विस्फोट में स्वयं भी झुलस ही जाती है। अपंग हो ही जाती है। कुपात्र के हाथ में जाकर ऐसा विस्फोट होता है कि फिर कभी विस्फोट करने लायक वह रह ही नहीं जाती। उसका स्वयं का चेहरा भी अत्यन्त कुरूप हो जाता है, असहाय हो जाती है। अकिंचन हो जाती है।

दशरथ के आठ मंत्री

  दशरथ के आठ जन-प्रतिनिधि मंत्री थे जो सभी तत्वदर्शी थे। जैसे- 
1) जयन्त-जो मंत्रणा कुशल थे। सत्पथ का दिग्-दर्शन कराते रहते थे।

( (2) धृष्टि-नीति न्यायक थे। जो नीतिगत मामलों में दृष्टि का काम करते थे।

(3) विजय-मंगलसूचक थे। वही कार्य करने को कहते जो शास्त्र-सम्मत हो। विजय निश्चित हो। धर्मयुक्त हो।

(4) सुराष्ट्र-राष्ट्र कैसे खुशहाल रहेगा? श्री सम्पन्न रहेगा? सभी के सुख-सुविधा का ख्याल करना इनका परम कर्तव्य था। 

(5) राष्ट्रवर्द्धन-राष्ट्र के सियासत में किसी भी तरह कमी नहीं हो। अन्दर हर व्यक्ति की आय में उत्तरोत्तर वृद्धि हो।

(6) अकोप- राज्य किसी भी प्रकार के प्रकोप से बचा रहे। चाहे वह दैहिक, दैविक, भौतिक प्रकोप ही क्यों न हो। किसी भी प्रकार राष्ट्र प्रकोप का भाजन नहीं हो।

(7) धर्मपाल-धर्म का पालन ठीक ढंग से हो। धर्म में किसी प्रकार का व्यवधान उपस्थित नहीं हो। 
(8) सुमन्त-अच्छा मन्त्र देने वाला। सलाह देने वाला। नेक विचार से सुरक्षित रखने वाला।

   आठ ऋषि मंत्री

   जिस तरह शरीर रूपी राष्ट्र को सुचारू रूप से चलाने के लिए वृत्तियाँ रूपी जन प्रतिनिधि की आवश्यकता है। उसी प्रकार परमात्मा रूपी ब्रह्माण्ड में रमण करते रहने के लिए आध्यात्मिक ऋषियों की आवश्यकता है जिससे आध्यात्मिक विकास भी सम्यक रूप से हो सके। यदि उसमें आठ मंत्री हैं तो इसमें नव चूँकि इसकीमहत्ता उससे ज्यादा हो जाती है। नव सबसे बड़ी संख्या भी है। यदि आध्यात्मिक सलाहकार मन्त्री ठीक-ठाक सबल, समदर्शी है तो साधक को पूर्णत्व को उपलब्ध करा ही देगा। यदि इसमें से कोई भी कमज़ोर या गलत दिशा-निर्देशन वाला मिल गया तब समझिये एक ही खतरा सम्भव है। कहीं भी ठीक समय पर ही दशरथी रूपी शरीर में ज्ञान रूपी राम की राज्यारोहण रूपी समाधि छिन सकती है। ज्ञान-वैराग्य को बाहर निकाला जा सकता है एवं साधक बीच में ही योग भ्रष्ट हो शरीर छोड़ने के लिए बाध्य हो सकता है। चतुर साधक इन सब सलाहकारों से अलग होकर एक सद्‌गुरु की शरण में जाकर, अपना सब कुछ उसके चरणों में समर्पित कर निश्चिन्त हो जाता है। अब सद्‌गुरु निर्विघ्न यात्रा पूरी कराता है। या बाधा रूपी आग से उसे पकाकर ठीक कर लेता है। जिस तरह सोना आग से तप कर निकलने के बाद और अधिक चमकने लगता है उसी तरह साधक आफत, बाधा, विपत्ति में तपने के बाद मुस्कुराते हुए, परमात्मा का धन्यवाद देते हुए सद्‌गुरु की अनुकंपा समझ अपने निष्काम योग में आगे बढ़ जाता है।

दशरथ के ऋषि मन्त्री

(1) वशिष्ठ-ये ही मुख्य सलाहकार थे। ये एक तरह से मुख्य सचिव भी थे। पुश्त-दर-पुश्त ये और इनके लड़के इसी पद पर आसीन होते रहे। जिससे यह खानदान बार-बार अधोगति को प्राप्त होता रहा। जिसका अवलोकन आप पुराणों में कर सकते हैं। इनके चलते कभी भी कोई भी राजा विपत्ति में फँसता अवश्य रहा। ये कहलाते हैं त्रिकालदर्शी, लेकिन एक घण्टे बाद क्या होगा वह भी नहीं बता सके। न ही आगाह कर सके राजा को या पुर को भावी संकट से सावधान होने हेतु। चूँकि ये पुरोहित भी थे। पुर का हित सोचना एवं कराना भी इन्हीं पर था। यदि राम को सद्‌गुरु विश्वमित्र बलात् अपने साथ नहीं ले जाते तो सम्भव होता कि राम के बाद इनका खानदान ही समाप्त हो जाता। इनका नाम लेने वाला नहीं होता। चूँकि दशरथ जो श्रवण कुमार के पिता के द्वारा श्रापित थे। कुष्ठ रोग से ग्रसित थे ही, जिससे किसी तरह मुक्त हुए। जैसे ही इससे मुक्त हुए वैसे ही वशिष्ठ जी ने सभी देवर्षि से मंत्रणा कर इन्हें कुजाति छाँटकर समाज विरोधी रूपी दण्ड दिलवा दिया जिससे इन्हें कभी भी मुक्त नहीं किया। यही वजह थी कि राजा जनक ने अपनी पुत्री के स्वयंवर का निमन्त्रण दशरथ को नहीं दिया था। जबकि राक्षस, गन्धर्व, नाग, ऋषि, मानव सभी संस्कृति के प्रधान को दिया था। गुरु विश्वमित्र इस स्थिति को भी भाँप गये थे एवं स्वयंवर से मात्र पन्द्रह दिन पहले राम-लक्ष्मण को लाये। सारा ज्ञान देने एवं स्वयंवर की प्रक्रिया पूरी करने के बाद ही अयोध्या सन्देश दिया। एक कारण यह भी था कि परशुराम राम-लक्ष्मण को मारने के लिए उतावले हो उठे। क्या उन्हें नहीं मालूम था कि स्वयंवर में धनुष टूटने जा रहा है? क्या उन्हें या उनके शिष्यों को निमन्त्रण नहीं मिला था। अन्त में परीक्षा के नाम पर परशुराम को बचाया गया। किसी भी विघ्न में, बाधा में वशिष्ठ कुल पुरोहित होकर भी मौन स्वीकृति प्रदान कर देते हैं, जिसे राम ठीक से समझ गये थे। जिस बात को वशिष्ठ भी जान गये थे। यही वजह है कि वशिष्ठ राम के राज्यारोहण होने के बाद वाल्मीकि को राम के द्वारा ब्रह्मर्षि की प‌ट्टी प्रदान करने के बाद कहते हैं कि हे राम मैं जानता हूँ कि पुरोहिती कर्म अत्यन्त नीच है। इसके बावजूद भी मैं यह कर्म करते आ रहा हूँ। चूँकि मुझे ज्ञात हो गया था कि तुम्हारा अवतरण होने जा रहा है। तुम्हारे दर्शन से मेरा भी कल्याण हो जायेगा। इस तरह फूल-माला अर्पित कर राम की पूजा करते हैं एवं स्वयं राम से उपदेश ग्रहण करते हैं। चूँकि राम अपने बच्चों की शिक्षा का भार वाल्मीकि को सौंप चुके थे। प्रजा भी वाल्मीकि एवं विश्वमित्र की तरफ ही उन्मुख थी।

(2) वामदेव-ये कर्मकाण्डी थे। वेदज्ञ थे। वशिष्ठ के निर्देश पर ही कर्मकाण्ड करते थे।

(3) सुयज्ञ-यज्ञ का विधि-विधान देना एवं कराना। अच्छे यज्ञ जो राजा-प्रजा को सुफल दें, कराने में सक्षम थे।

(4) जाबाल-ये विद्वान एवं तार्किक थे। न्याय शास्त्र के विद्वान थे। मीमांसा के भी ज्ञाता एवं दिग्दर्शक थे।

(5) कश्यप-ये तपस्वी, धीर-गम्भीर एवं ज्यादा मौन रहने वाले थे। जब कभी कुछ पूछा जाये तब ही बोलते या सुझाव देते थे। नीति-निपुण एवं प्रकाण्ड विद्वान थे। इन्हीं के पुत्र विभाण्डक थे। जो सदा जंगल में तप में रहते एवं इन्होंने अपने पुत्र ऋषिश्रृंग को भी बाल्यावस्था में ही तपस्वी तथा कर्मकाण्डी बना दिया। इन्होंने ही दशरथ जी के यहाँ पुत्रेष्ठि यज्ञ किया।

(6) गौतम-ये तपस्वी के साथ-साथ न्यायिक एवं मीमांसक भी थे। इन्हीं के पुत्र शतानन्द जनक के मन्त्री थे।

(7) दीर्घायु-ये तीक्ष्ण बुद्धि वाले योग दर्शन के ज्ञाता थे। इनकी नीति से व्यक्ति लम्बी आयु प्राप्त कर सकता था। इसी से इन्हें दीर्घायु कहा गया। ये समदर्शी

एवं तत्ववेत्ता थे। 
(8) मार्कण्डेय-ये अनन्य शिव भक्त एवं हर योग के ज्ञाता थे। अमरत्व ग्रहण करने की विद्या इन्हें ज्ञात थी।
(9) कात्यायन-इन्हीं से कात्यायन गोत्र भी चला है। ये तपस्वी, समदशी, योग दर्शन के ज्ञाता थे। ये आत्मज्ञान को उपलब्ध थे।

यही वजह थी कि ये आठ ऋषि राज-काज में कभी हस्तक्षेप नहीं करते। अपने निष्काम कर्म में लिप्त रहते। वशिष्ठ राज्य पर हर समय दवाव बनाये रहते एवं किसी भी तरह कूटनीति का पासा फेंककर राजा को दल-दल में फँसाये रहते। जिससे इनकी स्वार्थ सिद्धि होती रहे।

राम का वन गमन (वनवास)

     दशरथ जी का पूरा परिवार योग युक्त है। सभी आनन्दित हैं, प्रसन्न हैं। यदि किसी भी साधक में किसी भी प्रकार का दोष रह जाता है एवं समय रहते उसका निवारण सद्‌गुरु के सान्निध्य में नहीं कर लेता, तो वह दोष अनुकूल परिस्थिति पाकर अंकुरित हो पल्लवित-पुष्पित हो जाता है जिसमें विष फल आ ही जाता है एवं साधक को अधोगति में ला पटकता है। इसी से साधक को चाहिये कि अपने संस्कारों के बीज को हर हालत में साधना रूपी आग में भून डाले जिससे उनके अंकुरित होने की सम्भावना नहीं रहे। अन्यथा दशरथ की तरह यदि सलाहकार ऋषि वशिष्ठ एवं कैकयी की तरह सलाहकार मंथरा रहेगी तो राम का निष्कासन एक दिन अवश्य ही हो जायेगा। अयोध्या सूनी हो जायेगी। राम के निष्कासन में पूरी तरह देव संस्कृति ही सक्रिय थी। कैकयी, कैकय देश जो वर्तमान ताशकंद (रूस) है, की थी। यह शादी वशिष्ठ एवं इन्द्र के परामर्श से हुई थी। यही वजह थी कि दशरथ जी को देवासुर संग्राम में कैकयी के साथ जाना पड़ा था। मंथरा बहुत ही चतुर कूटनीति में निपुण देव कन्या थी। जों समय-समय पर देवनीति कैकयी को समझाया करती थी।

     भरत हर समय देवराष्ट्र ही रहते हैं, जहाँ उन्हें नीति, धर्म, राजनीति की शिक्षा दी जाती थी। राम को बनवास देने में कैकयी, मंथरा, सरस्वती, इन्द्र एवं वशिष्ठ की अहम भूमिका होती है। एक भी मानव ऋषि इस मन्त्रणा में सम्मिलित नहीं है। वे तो अनहोनी घटना को देखकर दंग रह जाते हैं। राम विपरीत परिस्थिति को देखते हुए गृह का परित्याग करते हैं। हालाँकि इसे दिखाने के लिए राक्षस वध का उद्देश्य दिखाया गया है। क्या राम राज्य करते हुए अपने सभी भाइयों एवं सेना के साथ राक्षस संस्कृति पर चढ़ाई नहीं कर सकते थे ? ऋषियों का कल्याण तब और आसान था। युद्ध भी आसान हो सकता था। राम अकेले कैसे जा सकते थे, चूँकि अकेले ज्ञान का भी कोई अस्तित्व नहीं होता। अतएव ज्ञान अपने साथ वैराग्य एवं निष्काम कर्म रूपी सीता एवं गुरु अनुकंपा रूपी धनुषबाण लेकर ही संन्यास ग्रहणकरते हैं।

जब संन्यासी गृह से आस्था तोड़ता है। समझ जाता है कि गृह सत्य नहीं हो सकता तब प्रथम पड़ाव होता है जमना तट के पार। प्रथम बार ही वह (अहंकार के) तट को पार कर जाता है। प्रकाश में पहुँचकर ही विश्राम करता है जहाँ अपने सगे-सम्बन्धियों को भी छोड़ देता है। पहुँच जाता है गंगा तट पर। जब साधक को गंगाजल मिल जाता है। उस शीतल पावन जल का पान कर लेता है। साधक गुरु से सीखकर ही इसे पान कर सकता है। वह अमृत तुल्य जल मान सरोवर से निकल कर अमरनाथ पर टप्-टप् टपकते रहता है जिसे साधक पान कर दिव्य हो जाता है। अब उसे सुमति की भी जरूरत नहीं होती। चूँकि सुमति रहने पर कुमति के आने की सम्भावना रह जाती है, अतएव कुमति को पहले ही छोड़ आया है। अब यहाँ सुमति रूपी सुमंत को भी विदा कर देता है। अब दूसरी रात्रि निषाद राज रूपी मर्मज्ञ का कन्दमूल खाकर राम वट वृक्ष रूपी धर्म के नीचे विश्राम करते हैं तीसरी रात्रि पहुँच जाते हैं प्रयाग राज। जहाँ त्रिवेणी संगम पर स्नान कर कृतार्थ हो जाता है। गंगा-जमुना-सरस्वती (इंगला-पिंगला-सुष्मना) का संगम। साधक यहाँ स्नान करते ही भर जाता है, प्रकाश पुंज से। जन्म-जन्म के संस्कार क्षय हो जाते हैं। दोबारा जन्म हो जाता है। वह हो जाता है द्विज। यही है प्रयागराज का भारद्वाज आश्रम। साधक यहीं निर्विघ्न साधना के लिए भारद्वाज एवं संगम तथा अक्षय तट जिसका क्षय नहीं हो, के समक्ष आशीर्वाद ग्रहण कर आगे की यात्रा प्रारम्भ करता है।

महात्मा राम भारद्वाज से आगे की यात्रा करने हेतु दिशा-निर्देश लेते हैं, पहुँच जाते हैं चित्रकूट। यहाँ की सुन्दरता देख राम कुछ काल यहीं रुक जाते हैं। यहाँ सबसे पहले मिलने जाते हैं महर्षि वाल्मीकि से। उस जंगल के सम्बन्ध में, आत्मतत्व के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करते हैं। कुछ काल के बाद मिलते हैं महर्षि अत्रि से, सीता मिलती है अत्रि पत्नी अनसुईया से। ये जानकारी देते हैं आगे आने वाले सम्भावित विघ्नों के सम्बन्ध में। कहते हैं है राम! जो साधक अपने सद्‌गुरु का ध्यान कर इस पथ पर चलता है वह विघ्नों को पार कर एक न एक दिन अवश्य ही परमतत्व को प्राप्त कर लेता है। सद्‌गुरु हर स्थिति में, हर जगह अपने प्रिय शिष्य की रक्षा वैसे ही करता रहता है जैसे अबोध-शिशु को माँ आँचल में ढँके रहती है। आप यहाँ बहुत काल इस जगह रुक गये। साधक का ध्यान एक जगह ही रुक जाने पर माया का प्रपंच शुरू हो जाता है। बाद में उसे वही अच्छा लगने लगता है। चूँकि ऋद्धि सिद्धि भी आ जाती है। अतएव साधक का इससे आगे बढ़ जाना ही श्रेयस्कर होता है। राम लक्ष्मण और सीता स्नान कर ध्यान कर चलने को उद्यत ही थे कि देवराज पुत्र जयन्त सीता के स्तन में चोंच मार देता है।यही है देव संस्कृति। ये सदा राम को प्रताड़ित करने का प्रयास करते हैं, जिससे जंगल में ही इसका प्राणान्त हो जाये। निर्गुण पार ब्रह्म परमात्मा का साधक देव देवी के चक्कर में नहीं पड़ता, हाँ सामने आने पर बांदगी अवश्य कर लेता है एवं अपने सद्‌गुरु के निर्देशन पर आगे बढ़ जाता है। राम कुमार्ग गामी इन्द्र पुत्र (यथा पिता तथा पुत्र एवं प्रजा) जयन्त को दण्ड देते हैं। यहाँ दण्ड देना इसलिए उचित है कि अभी यात्रा लम्बी है या अभी तो प्रारम्भ ही हुई है। कहीं कमज़ोर जानकर ये विभिन्न रूपों में तंग न करें। ये देव संस्कृति या तथाकथित समाज के ठेकेदार आगे अवरोधक न बनें। इसलिए राम जंगल में भी निम्न जातीय ऋषि या दलित उपेक्षित जाति-वर्ग के लोगों से मिलते हैं। उन्हें प्रेम देते एवं प्रेम पाते हैं। चूँकि ये सीधे-सरल, परमात्म मार्ग के अनुगामी हैं। तथाकथित विद्वान एवं उच्च लोग कुतार्किक एवं कुमार्गगामी हैं। ये अपने तर्क शक्ति से केवल छिद्रान्वेषण करेंगे। मार्ग में बाधा बनेंगे। भारद्वाज एवं अत्रि भी चन्द्रवंश से आते हैं। वाल्मीकि भंगी थे तो निषाद शूद्र परन्तु ये सभी साधना के चरम शीर्ष पर पहुँचे थे। जहाँ देवर्षि या देवगण की पहुँच की कल्पना ही नहीं थी। राम ने सबसे पहले ऐसे ही ऋषि महर्षि से मिलकर अपना रास्ता प्रशस्त करना उचित समझा।
क्रमशः...