साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

मोह एवं लोभ का आक्रमण

     अकम्पन के द्वारा लोभ (अहंकार) को सन्देश दिया गया कि आपकी बहन (काम) का ज्ञान-वैराग्य के द्वारा कान-नाक काट लिया गया। क्रोध को सेना समेत मार गिराया गया। दण्डकारण्य जनपद से देवर्षि तथा राक्षस भाग रहे हैं। नागवंशी, अरूणवंशी (जटायु के वंश), ऋषवंशी, मानव निर्भीक हो रहे हैं। मानव सभ्यता, संस्कृति का प्रचार बढ़ चला है। ज्ञान-वैराग्य, भक्ति, विवेक तथा आत्मचिन्तन से ये एक सूत्र में बँधते जा रहे हैं। अकम्पन रूपी विक्षिप्त चित्त-वृत्ति, लोभ तथा अहंकार की प्रतिमूर्ति रावण से कहता है कि हे राजन! यदि आप किसी तरह उसकी परम तपस्वी तथा सुन्दर सीता का हरण कर लेते हैं तो वे दोनों तापस कुमार अपने आप मृत्यु को उपलब्ध हो जायेंगे। जिस व्यक्ति का जैसा संस्कार होता है वैसी ही चित्त वृत्तियाँ होती हैं। उसी के अनुरूप सोचता और सलाह भी देता है। अतएव सजग साधक हर समय सद्‌गुरु के सान्निध्य में रहकर ही उचित दिशा-निर्देश प्राप्त करता है। भूलकर भी मोह के चक्कर में पड़ा कि उसके निष्काम रूपी योग या आत्मा का हरण होना निश्चित है, जैसे रावण को सीता प्राप्ति का लोभ हो जाता है। वह मोह रूपी मारीच के यहाँ पहुँच जाता है। मारीच रूपी मोह लोभ को समझाता है। साधक के नजदीक जाना उचित नहीं है। चूँकि हरि कृपा गुरु अनुग्रह प्राप्त हरिजन भस्म कर देता है। हे राजन आप अपने नगर को जायें तथा सुख-सुविधा का भोग करें। दण्डकारण्य का परित्याग करें। रावण को भी उचित लगा। और किसी साधक से छेड़-छाड़ करना उचित नहीं समझा। लंका में आराम से रहने लगा। इधर काम पूरी तरह घायल है। नाना रूप अपना कर आक्रमण करना चाहता है। चतुर साधक को काम पर आक्रमण नहीं करना चाहिये। अन्यथा मौका पाकर काम चढ़ाई कर ही देता है। जैसे शंकर जी ने एक बार काम को भस्म किया परन्तु मौका पाकर जैसे ही काम ने शंकर पर चढ़ाई की, वे काम के वशीभूत हो गये। चराचर सृष्टि ही उन्हें काम स्वरूप दिखाई देने लगी। वे अपना लिंग बढ़ाकर चराचर से भोग करने को उद्यत हो गये जिसे विष्णु ने अपने चक्र से बारह भाग में काट दिया। अब शंकर बारह शरीर से भोग करने लगे। अपना पराया,बड़ा-छोटा, नाता-रिश्ता काम के यहाँ नहीं होता। यही हुआ शंकर के साथ। तब विष्णु ने बारह पार्वती भग का निर्माण कर बारहों लिंगों को स्थापित किया। जो द्वाद्वश ज्योर्तिलिंग हैं। अतएव चतुर साधक का परम कर्तव्य है कि काम का रूपान्तरण करे। जैसे ही काम का साधक रूपान्तरण करता है, साधना एवं प्रेम में। फल लगता है सुन्दर सुगन्धित ब्रह्मचर्य का।

स्वर्णरेखा (काम) घायल है। चोट से। वह रावण के अहं पर चोट करती है। वह भी घायल सर्प की तरह फुफकार उठता है। पुनः मारीच को बाध्य करता है। मारीच माया रूपी मृग बनता है। अयोध्या में माया रूपी मंथरा का आगमन था। दण्डकारण्य में माया रूपी मारीच का आगमन होता है। वह मनोहर रूप पकड़ कर सीता को मोहित करने में सफल हो जाता है। मोह देखने सुनने में सुन्दर एवं विश्वसनीय लगता है, लेकिन प्राणघातक होता है। साधक का सर्वस्व नाश कर देता है। जब साधक तथाकथित कर्मकाण्ड के चक्कर में पड़ता है तब अहंकार एवं मोह दोनों ही तो उसे घेर लेते हैं। रावण भी अद्वितीय कर्मकाण्डी तथा तपस्वी था। यज्ञ में अपने सिर तक का हवन करता था जिससे वह सिद्धियों का स्वामी तो बन गया परन्तु आत्मदर्शन नहीं कर सका। पूर्ण शान्ति को उपलब्ध नहीं हो सका। अहंकार, काम, क्रोध, लोभ को अवश्य ही उपलब्ध हो गया। आप गौर से देखेंगे कहीं भी पुरोहित तथा यजमान शान्तचित्त नज़र नहीं आयेंगे। आपस में उलझे हैं-दक्षिणा के लिए। यजमान की चित्तवृत्तियाँ यज्ञ करते-करते अर्थ पर टिक जाती हैं। यज्ञ की समाप्ति पर कुछ-न-कुछ अनर्थ हो ही जाता है। साधक अपनी आत्मा रूपी अग्नि में ज्ञान-वैराग्य से सारी चित्तवृत्तियों को, संस्कारों को हवन कर देता है। फिर वह हो जाता है आनन्दित। पा लेता है, वह सब कुछ जो उसे अप्राप्य था। सीता वाटिका में पुष्प तोड़ रही थीं। किसी कर्मकाण्ड हेतु। माया मृग जिस तरह का उसका रूप था। वैसा आज तक न उसने देखा, न सुना था। वह मोह के चंगुल में फँस गयी। बार-बार राम से निवेदन करती है, उसे पकड़ने या मारने हेतु। वैराग्य रूपी लक्ष्मण समझाता भी है वह माया मृग है। वह मारीच है। अनर्थकारी है। परन्तु सीता नहीं मानती। राम भी सीता के कहने में आकर मृग का पीछा करते हैं। सीता इतना मोह से आसक्त है कि भले-बुरे का बोध खो देती है। लक्ष्मण को भी अनीति पूर्ण बातों से आघात पहुँचाती है। वैराग्य नहीं चाहते हुए, सीता को छोड़कर जाने को बाध्य होते हैं। इस तरह भी वैराग्य ज्ञान का ही अनुगामी है चूँकि वैराग्य शब्द के अन्त में ज्ञ है एवं ज्ञान वहीं से शुरू होता है। लोभ रूपी रावण भी सीता पर मोहित है। अब हो जाता है सीता का अपहरण। अब शुरू हो जाता है कष्ट और दुःखों का दौर। अब राम लक्ष्मण अलग, भरत शत्रुध्न अलग तथा सीता रावण रूपीलोध अहंकार के चंगुल में फैसकर विलाप कर रही हैं। अतएव साधक को मोह रूपी माया के प्रति अत्यन्त सजगता की जरूरत है। इसी से सद्‌गुरु कहते हैं-

"माया महाठगिनी हम जानी। तिरगुन फाँस लिए कर डोलै ॥ बौले मधुरी बानी।"

     रावण भी त्रिगुण फाँस लेकर ही आया। संन्यासी का रूप ही सतोगुणी फाँस है जहाँ जीव आसानी से विश्वास कर फँस जाता है। इसके बाद रजोगुणी फाँस से सीता का मान करता है। उनकी सुन्दरता की बढ़ाई गुणों की बढ़ाई करता है जिससे साधक दल-दल में फँस ही जाता है तब रावण तमोगुणी फाँस लेकर सीता का हरण कर लेता है। परन्तु साधारण साधक काल फाँस को नहीं पहचान पाता और उसी की तरफ मोहित होता चला जाता है।

"काल फाँस नर मुगुध न चैतै। कनक कामिनी लागी ॥"

  रावण और जटायु

    माया मृग की सुन्दरता पर सीता मुग्ध हो जाती है। उसे पाने की कामना कर राम को भेज देती है। जब मृग मारा जाता है तब फिर माया मृग चीत्कार कर 'हे सीते, हे लक्ष्मण' कह उठता है। उसकी चीत्कार से पूरा जनपद काँप उठता है। वह राम की ही वाणी बोलता है अपने ऊपर से ओढ़े हुए मृग खाल को फेंक देता है। अपने वास्तविक शरीर में आ जाता है। अक्सर तथाकथित गुरु भी राम की ही वाणी बोलते हैं। ऊपर से मृगखाल रूपी लाल वस्त्र पहन लेते हैं। मोहित करते हैं जंगल को। सीता का आश्रम खाली हो जाता है। चूँकि पहले आँख का भ्रम हुआ तो राम को भेजा। अब कान का भ्रम हो गया और लक्ष्मण को बरबस भेज दिया। आँख के भ्रम में ही कीट अग्नि में कूद कर प्राण दे बैठता है। कान के वशीभूत हो मृग को प्राण खोना पड़ता है। सीता को दोनों का भ्रम होता है। आश्रम सूना है। रावण अनायास ही साधु वेश में खाली आश्रम में प्रवेश कर जाता है। उसने भी साधु का वेश धारण कर लिया है। लम्बा टीका है। मधुर वाणी है। लाल चोला है। सीता पुनः आँख एवं कान के वशीभूत हो विवेक, वैराग्य, ज्ञान शून्य हो रावण रूपी कपटी साधु के द्वारा अपहरण की शिकार हो जाती है। इसी से साधक के लिए इन्द्रिय निग्रह अत्यावश्यक है। सीता विलाप करती है। रोती है। छटपटाती है परन्तु उसके इर्द-गिर्द के सारे सहायक भाग जाते हैं। देवगण तो इस घटना में शामिल ही हैं। चूँकि साधक जैसे ही ज्ञान-वैराग्य, विवेक रहित हो जाता है। उसकी मदद करनेवाला कोई नहीं होता है। हाँ, कहीं कुछ उसका चिर-संचित पुण्य कुछ मददगार अवश्य हो जाता है। उसी क्रम में सीता को विलाप करते, रावण को उसे अपने मजबूत भुजा में कस कर, रथारूढ़ हो जाते हुए वृद्ध जटायु देखते हैं। वृद्ध जटायु ही चिर-संचित पुण्य के प्रतीक हैं। सीता भी इन्हें आर्यपुत्र जटायु राज कह कर चिल्लाती हैं। बचाने के लिए याचना करती हैं ये पक्षी नहीं अपितु मानव ही थे। रावण भी इनसे पूर्व परिचित थे। आर्य जटायु के शरीर में भी आर्यावर्त का संस्कार था। वे आकाशगामी रावण को रोकते हैं। धर्म के संरक्षक रावण को धर्म का उपदेश देते हैं। पर नारी हरण के दोष समझाते हैं। कहते हैं- हे रावण! यह ऐसी अग्नि है जिसमें तू और तुम्हारा समस्त खानदान जल कर भस्म हो जायेगा। तू इस तरह का अनर्थ मत कर। रावण के शरीर में देव खून एवं संस्कार व्याप्त था। अतएव इस धर्म-अधर्म को मानने पर तैयार नहीं होता। वह तो मात्र भोग ही मानता है। अतएव जटायु रावण से युद्ध करने के लिए बाध्य हो जाते हैं।

रावण जटायु में घोर संग्राम होता है। जटायु रावण को दो-दो बार मारकर, धराशायी कर देते हैं। सीता को मुक्त कर देते हैं। रावण को होश आता है। क्रोधावेग में जटायु से भीषण युद्ध करता है उसी क्रम में जटायु की दोनों बाँह काट देता है। जटायु बिना हाथ, पैर से युद्ध करते हैं। पैर से ऐसे मारते हैं कि रावण रथविहीन हो जाता है। मुँह में खून आ जाता है। अब रावण अत्यन्त क्रोधित हो चन्द्रहास तलवार से जटायु के दोनों पैर भी काट देता है। जटायु जमीन पर गिर जाते हैं। रावण सीता को फिर पकड़ लेता है। आकाश मार्ग से उड़ जाता है। धर्म के चार पैर होते हैं दान, पुण्य, योग, जाप। इन चारों पैरों को काट देता है चिरसंचित पुण्य रूपी धर्म धराशायी हो जाते हैं। जटायु राम का चिन्तन करते हुए ध्यान के द्वारा अपना प्राण रोक लेते हैं। जिससे राम को सन्देश दिया जा सके। इधर राम भी भयभीत हो जाते हैं। कुछ ही दूर आने पर लक्ष्मण से मिलते हैं। उन्हें देख उनका भय और प्रबल हो जाता है।

राम-लक्ष्मण आश्रम पर लौटते हैं। सीता को नहीं देख राम भी विलाप करने लगते हैं। रोने लगते हैं। यत्र-तत्र सीता को खोजते हैं। खाने का परित्याग कर देते हैं। हे सीते, हे सीते कहते हुए प्राण त्याग देने को कहते हैं। लक्ष्मण उन्हें बार-बार आश्वासन देकर समझाते हैं। किसी तरह राम को लक्ष्मण सान्त्वना देकर पर्णकुटी का परित्याग कर देते हैं। जिधर सीता गयी है उधर ही राम-लक्ष्मण चल देते हैं। राम जटायु का यथोचित दाह संस्कार कर सीता की खोज में आगे बढ़ जाते हैं। जटायु रूपी चिरसंचित पुण्य राम के आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त कर देता है। वे स्पष्ट जान गये कि सीता किन के हाथों में फँसी है और अब हमें क्या करना है?यही है भटक गये साधक के लिए दिशा-निर्देश। राम अपने चिरसंचित पुण्य के सहारे अब आगे की यात्रा प्रारम्भ कर देते हैं। चूँकि शरीर छोड़ते समय जटायु कहते हैं कि हे राम ! तुम्हें घबराना नहीं चाहिये, क्योंकि सीता देवी आपको अवश्य ही मिल जायेगी। साथ ही उस दुष्ट रावण का इस पाप कर्म से नाश भी उसी प्रकार होगा जिस प्रकार वंशी का माँस ग्रहण करने से मच्छायी का नाश हो जाता है।

   राम का कबन्ध और शबरी से मिलन

       राम पत्नी वियोग से पीड़ित हैं। रास्ते में सर्वत्र पत्नी के लिए ही विलाप करते आगे बढ़ रहे हैं। लक्ष्मण उन्हें समझा रहे हैं। मातंग ऋषि के आश्रम के नज़दीक एक अन्धकार से पूर्ण गुफा में अयोमुखी नामक राक्षस कन्या लक्ष्मण को पकड़ लेती है। लक्ष्मण से शादी का प्रस्ताव रखती है। घोर अन्धकार में ही काम का निवास होता है। काम असावधान व वैराग्य विहीन साधक को अपना ग्रास बना ही लेता है। लक्ष्मण सावधान, पूर्ण वैराग्य की प्रतिमूर्ति हैं। अतएव उसका भी वही हाल करते हैं। जो स्वर्णरेखा का किया था। राम के साथ आगे बढ़ जाते हैं। रास्ते में ही कबन्ध से भेंट हो जाती है। जब साधक अपने साध्य के प्रति निरन्तर सावधान होकर एकाग्रचित्त आगे बढ़ता है तब रास्ते में पड़ने वाली बाधा भी अपने आप सहायक हो जाती है। कबन्ध देवपुत्र ही हैं। ऋषिगणों को अपने स्वभाववश डराते, भयभीत करते रहते थे। एक बार मानव ऋषि स्थूलशिरा का भी कपट रूप से उपहास किया। ऋषि ने उस दमुपुत्र कबन्ध को इसी रूप में रहने का श्राप दे दिया। उसका सुन्दर रूप जाता रहा। अब उसने मातंग ऋषि के आश्रम के नजदीक ही अपना आश्रम बना लिया। अयोमुखी के साथ रहने लगा। अपने स्वभाववश माँस, मदिरा का सेवन करता था। अयोमुखी को दण्डित देख कबन्ध राम-लक्ष्मण को पकड़ लेता है दोनों को अपने मजबूत हार्थो से दबाकर जान से मारने का प्रयत्न करता है परन्तु लक्ष्मण के द्वारा कबन्ध का हाथ काट दिया जाता है।

     राम-लक्ष्मण कबन्ध के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं एवं कबन्ध भी श्राप से मुक्त हो जाता है। वही शबरी के आश्रम पर विश्राम करने को बताता है। कबन्ध कहते हैं- हे राम ! आप पत्नी के वियोग से तड़प रहे हैं। अत्यन्त आतुर हैं। आप धैर्य रखें। आपको सीता से मिलने की नीति कहता हूँ। राजा लोग अपने कार्य की सिद्धि के लिए सन्धि, विग्रहमान, आसन, द्वैधीभाव और आश्रय छह प्रकार की नीति बरतते हैं। इसके बिना कार्यसिद्धि कदापि नहीं हो सकती। आप विपत्ति में फँस गये हैं। महान कष्ट भोग रहे हैं। यह भाग्य-चक्र का फेरा है। सीता हरण-भी भाग्य-चक्र का ही कार्य है। इस समय आपको यथाशीघ्र कोई उत्तम मित्र प्राप्त करना चाहिये,क्योंकि बिना मित्र के कार्य की सिद्धि नहीं होगी। मैं आपको एक विश्वासपात्र मित्र बताता हूँ। उसको मित्र बनाकर आप अवश्य ही अपने कार्य में सफल होंगे। वह है वानर राज सुग्रीव। आप समस्त चिन्ताओं को त्याग कर सुग्रीव को अपना मित्र बनाइये। देवी सीता की प्राप्ति में वह पूरी सहायता करेगा। मित्रता अग्नि को साक्षी देकर कीजिये। जिससे कभी छूटे नहीं। उसको भी अच्छे मित्र की अभी अत्यन्त आवश्यकता है। सीता का पता लगाना उसके लिए दिन-भर का खेल है। सुग्रीव आपकी सीता को चाहे वह जहाँ भी होगी, अवश्य ही खोज लायेगा। इस प्रकार कबन्ध राम को सलाह दे अपने गन्तव्य स्थल को प्रस्थान कर जाता है। राम प्रसन्न हो शीघ्र प्रस्थान करने को कहते हैं। रास्ते में ही शबरी का आश्रम मिलता है।

        शबरी

      राम-लक्ष्मण शबरी के आश्रम में पहुँचते हैं। शबरी उनका परिचय जान आदर सत्कार करती है। कंद-मूल, फल-फूल से यथोचित सेवा करती हैं। अपनी गुरु भक्ति का वर्णन करती हैं। गुरु मातंग का तपस्थल दिखाती हैं। नवधा भक्ति का सत्संग होता है। चूँकि अत्रि और बाल्मीकि के बाद राम को सत्संग सुलभ नहीं हुआ था। शबरी निर्गुण निराकार ब्रह्म को उपलब्ध हो गयी हैं। अब उसे दूसरा दिखाई भी नहीं पड़ता है। वह राममय हो गयी हैं। पात-पात में साई रमत हैं। अब तो वह साई ही सर्वत्र हैं। फिर भी नवधा भक्ति का रस अनायास आने लगता है। 
  प्रथम चरण-संतो संग- जब साधक के मन में ज्ञान-वैराग्य की विचारधाराएँ उठेंगी तो उसकी प्रबल इच्छा होगी सन्तों का सामीप्य। विभिन्न पंथ सम्प्रदाय के साधु-महात्मा का सामीप्य। जिससे साधक के अन्दर उठ रही शंकाओं का समाधान हो सके। संत चाहे जिस पंथ सम्प्रदाय का हो, वह तो शान्त हो ही जाता है। वह सामने वाले के उठने वाले मानसिक उपद्रव को शान्त तो कर ही देता है। जब साधक सन्तों के संग का सुख जान जायेगा। तब वह बिना संत के सान्निध्य के रह ही नहीं सकता, वो अनायास ही वह आचरण अपना लेता है। संत सा उसका चेहरा प्रसन्न रहने लगता है चित्तवृत्तियाँ शान्त होने लगती हैं।

दूसरा चरण-कथा प्रसंग- जब साधक संत के सामीप्य का सुख जान जाता है तो वह दूसरी कक्षा में अपने आप आ जाता है। चूँकि संत जहाँ मिलेंगे उनकी वार्ता हरि कथा प्रसंग ही होगा। हरि जन और कर ही क्या सकता है? जहाँ भी बैठता है हरि-चर्चा छेड़ देता है। साधक को हरि चर्चा में सुखानुभूति होती है। हरि के सम्बन्ध में जिज्ञासाएँ बढ़ने लगती हैं। वह एक अतृप्त प्यासे के सदृश हो जाता है, जो कितना ही शीतल जल पी ले किन्तु प्यास मिटती नहीं। हरि चर्चा यदि एक दिन नहीं सुने, तो बेचैन-सा होने लगता है। अब वह खाना, घर का परित्याग करसकता है परन्तु हरि कथा का नहीं। कहते हैं भक्त हनुमान अभी नित्य हरिकथा में किसी-न-किसी रूप में उपस्थित होते हैं। इसीलिए कि साधक भगवान को व भगवान भक्त को ही चुनता है। भगवान धन ऐश्वर्य प्रदान कर देगा जिससे साधारण साधक उसी में भटक जाता है। हरि जन हरि को ही सौंपता है। हरि से कम में समझौता नहीं करता। हरि कथा प्रसंग साधक के लिए अत्यन्त आवश्यक है। जिस प्रसंग रूपी निर्झर में मन की मलिनता रूपी शंकायें निर्मूल होती रहती हैं। साधक अपने गन्तव्य स्थल तक अबाध गति से बढ़ जाता है। सत्संग वह साबुन है जिससे मन रूपी कपड़े को साफ किया जाता है।

तीसरा चरण-गुरु पद पंकज सेवा-साधक संतों के संग से सत्संग में आ गया। अब सत्संग कर अपनी शंका निर्मूल कर गुरु की खोज भी कर लेता है। साधक के लिए गुरु की खोज भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यदि सद्‌गुरू मिला तो वह हरि से मिला देगा। यदि प्रपंची मिला तो वह अरि से मिला देगा। अरि यानी शत्रु अर्थात् काल से। यही प्रपंची गुरु कालनेमि है। अतएव साधक को गुरु के चुनाव में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। गुरु की परख उसकी वेश-भूषा से नहीं हो सकती, न ही उसकी विद्वत्ता से। यह संग से ही ज्ञात होगा। संग से उसके गुण, दोष, आचरण का पता लग जायेगा। जो बचा है वह सत्संग से। यदि साधक ने गुरु का चुनाव कर लिया तब सभी शंकाओं को निकालकर निष्काम मन से उनके कमलवत् चरणों की सेवा करे। सेवा में किसी भी प्रकार का खोट नहीं रखे। अब शंका की गुंजाईश नहीं रह गयी। अब साधक निश्चिन्त होकर सर्व समर्पण कर गुरु पद की सेवा करे। उसको जो भी देना होगा वह दे ही देगा। परन्तु साधक को अत्यन्त सावधान रहकर सेवा भी करनी है। उस सेवा के बदले कभी कामना नहीं करनी है अन्यथा आप चूक जायेंगे। माँग लोगे खोटे सिक्के, माँग लोगे वही जो क्षणभंगुर है जिसका अस्तित्व नहीं है जो दो कौड़ी का है। आप अपनी सेवा को बेच देंगे, दो कौड़ी के दाम पर। अतएव माँगो ही मत। बस सेवा करो, निष्काम। संग करो, सत्संग को उपलब्ध हो जाओ। सेवा ही तुम्हारा उद्देश्य हो।

चौथा चरण-कपट छोड़कर हरि गुण-गान-साधक कपट का परित्याग कर दे, यह अत्यन्त कठिन है। किसी-न-किसी रूप में गुरु से आप अपनी बात छिपाओगे। जो बुराई है उसे छिपाना चाहोगे कि गुरु न जाने। अन्यथा हमारी प्रतिष्ठा का क्या होगा ? कोई-न-कोई रोना रोते रहोगे जिससे गुरु प्रसन्न हो, आशीर्वाद दे दे। हम अर्थ, पद, प्रतिष्ठा को उपलब्ध हो जायें। या गुरु की ही किसी सांसारिक, मानसिक सम्पदा पर आँख लगी हो जिससे गुरुदेव शीघ्र प्रसन्न हो, हमें वह प्रदान कर दें। मेरे एक मित्र हैं, कलकत्ता में, बड़े महात्मा हैं। बहुत नाम है। उनका एकशिष्य नौकरी करता था। साधारण सरकारी कर्मचारी था। उस महात्मा जी के यहाँ बड़े-बड़े नेता, अधिकारी आते थे। ऐशो-आराम के बहुत-से सामान भी थे। कलकत्ता में उनकी कोठियाँ भी थी। उस शिष्य ने अपनी नौकरी छोड़ दी। गुरु जी की सेवा करने लगा। उनका गुणगान भी करने लगा। सोचा गुरु जी वृद्ध है दो-चार वर्ष में शरीर छोड़ देंगे। परन्तु हद हो गयी। चार-पाँच वर्ष बीत गये। गुरु जी मरे ही नहीं आखिर कब तक सेवा करे। कब तक गुणगान करे। उसकी भी सीमा होती है। वह सोच रहा था अब तक हम क्लर्क से इन्सपैक्टर बन गये होते। वैसे भी कमाई होती। यहाँ तो अभी शिष्य ही हैं। गुरु जी भी खुश थे परन्तु इस खुशी से क्या होगा ? वह शिष्य निराश हो गया। मालूम नहीं महात्मा जी कब मरेंगे? पाँच वर्ष में अधीर हो गया। अन्त में उसके भाग्य ने साथ दिया। उन्हें सर्दी हो गयी। वह सर्दी का सुनकर अत्यन्त खुश हुआ। सोचा अब भगवान ने सुन ली है। यह मौका हाथ से नहीं जाने देना है। उसने सीरप दवा में विष मिलाकर पिला दिया। रात्रि में उनके शयन कक्ष का दरवाजा बन्द कर दिया। बोला गुरु देव इस दवा से आपको अच्छी नींद आयेगी। विश्वासी शिष्य था। पीकर सो गये। रात्रि में पीड़ा हुई एक-दो बार चिल्लाये। मगर सुनता कौन ? सुनने वाला तो वही था। दम तोड़ दिए। सुबह किवाड़ खोले तो गुरु देव को मरा देख अत्यन्त प्रसन्न हुआ। अतएव बाहर रोते हुए मुँह बनाकर कहा गुरुदेव परमपद को प्रस्थान कर गये। हमसे कहा था कि रात्रि में किवाड़ नहीं खोलना। अब तू आश्रम सँभाल लेना। मैं चलूँगा। अब मैं क्या करूँ? मैं तो नौकरी छोड़कर गुरुदेव की सेवा एवं हरिभजन के निमित्त आया परन्तु अब तो उनके आदेश का पालन करना ही पड़ेगा। सब शिष्यों ने भी सोचा कि ठीक ही कह रहा है। बहुत सेवा की है इसने। गुरुदेव के सबसे नजदीक सान्निध्य में यही था। अब उसे ही पंथ प्रमुख गुरुदेव का उत्तराधिकारी बना दिया गया। अभी भी है। यही है कपट सेवा। इस कपट से यहाँ कुछ सम्भव है परन्तु वहाँ के लिए अत्यन्त खतरा है। सेवा तो करनी है परन्तु निष्कपट होकर। तब अनायास मुँह से जो भी निकलेगा वह हरि गुण होगा। अन्यथा अवगुण ही है। अब हरि गुण में आनन्द है। उत्सव है। खुशी है।

पाँचवां चरण-दृढ़ विश्वास से मन्त्र का जाप- पाँचवें चरण में गुरु शिष्य पर विश्वास करता है। सद्‌गुरु सहज ही मन्त्र नहीं देता। पुरोहित लोग कान फूंक देते हैं। शिष्य के लिए झगड़ा भी करते हैं। उनके यहाँ शिष्यों का बँटवारा वैसे ही होता है। जैसे खेत का या सम्पत्ति का। शिष्य भी उनकी सम्पत्ति ही है। परन्तु सद्‌गुरु पाँचवें चरण में दीक्षा देते हैं। दीक्षा के माध्यम से मन्त्र देते हैं। साधक का परम कर्तव्य है कि दृढ़ विश्वास से जाप करे। यदि किसी भी तरह का सन्देह हुआ किश्रद्धा खत्म हुई। श्रद्धाहीन को कुछ भी नहीं मिलता है। अतएव श्रद्धावत् हो दृढ़ विश्वास कर गुरु द्वारा प्रदत्त मन्त्र का जाप करे। यही वेद पुराण भी कहता है। यही समस्त सन्त मत है। श्रद्धा से ही दृढ़, अटल, विश्वास होता है। तब उस जाप से मन्त्र फलीभूत होता है। उस मन्त्र जाप से फल लगता है-शील का, धर्म का। अब धर्म से निर्झर निकलेगा वह होगा प्रेम का। बाल्मीकि अनपढ़ गँवार थे। राम भी ठीक से नहीं कह सकते थे। परन्तु गुरु पर दृढ़ विश्वास था। आस्था थी, गलत ढंग से ही जाप करके ब्रह्म को उपलब्ध हो गये। अनपढ़ गँवार, ज्यादा उपलब्ध हुए हैं परमात्मा को बनिस्बत विद्वानों से, पढ़े-लिखे लोगों से। ये तो कुतार्किक हो जाते हैं। अश्रद्धावत् हो जाते हैं। इनके पास पुराणों का तर्क है। शास्त्रों का अस्त्र है। ये वार करेंगे ही। कबीर, नानक, रविदास, मीरा शूर, दादू, पलटू, मुहम्मद, ईशा ये सबके सब शास्त्र से, पाण्डित्य से अनभिज्ञ थे। भिज्ञ थे तो मात्र परम पुरुष से, प्रेम से। मैंने सुना है एक अनपढ़ को गुरु द्वारा दीक्षित कर मन्त्र दिया गया था। वह मन्त्र का उच्चारण ठीक ढंग से नहीं कर सकता था। सुरति-निरत का नियम समझ गया था। उसी में तल्लीन था। मग्न था। गंगा के किनारे झोपड़ी थी। उसी लय में, तल्लीनता में, गंगा में भी घूम आता था जैसे जमीन पर चल रहा हो। उसे पता नहीं होता था मैं पानी पर चल रहा हूँ या जमीन पर। उसकी ख्याति फैल गयी। दूर-दूर से लोग दर्शन को आने लगे। आशीर्वाद हेतु आने लगे। लोग कुछ करने, जानने नहीं आते बल्कि कुछ सांसारिक चीज़ को ही पाने आते हैं। एक दिन एक विद्वान पण्डित उस रास्ते जा रहा था। देखा वह साधु मन्त्र का उच्चारण शास्त्र के अनुकूल नहीं कर रहा था। गलत उच्चारण कर रहा था। उस विद्वान व्यक्ति ने साधु के नजदीक आकर उसे डाँटा क्या कर रहे हो गँवार की तरह? मन्त्र का उच्चारण तो ठीक ढंग से करो। उसे उच्चारण करना सिखाया। साथ ही अपने अहंकार में कहा, कहाँ-कहाँ से अनपढ़, गँवार लोग भी साधु बनकर मन्त्रों का सत्यानाश कर देते हैं। देखो इसकी ख्याति भी बढ़ गयी है। खैर साधु ने धन्यवाद दिया एवं अब सावधानीपूर्वक जाप करने लगा। देख रहा था, सोच रहा था, अब गलत न हो। संयम हो गया। चित्तवृत्तियाँ विपरीत हो गई। अब वह गंगा पर टहलने लगा तो डूब गया। वह उदास हो गया। सोचा कहाँ से विद्वान व्यक्ति के चक्कर में पड़ गया। उसने अपने गुरु का ध्यान किया। गुरु ने आदेश दिया, पूर्ववत् ध्यान जाप करो। विद्वानों की बात सुन लो, करो मत। खतरा ही खतरा है। वह साधु पूर्ववत् ध्यान में लग गया, वैसे ही मस्त हो गया। वैसी ही घटनाएँ घटने लगीं। वह पूर्ववत आनन्द में डूब गया। उधर विद्वान पण्डित गंगा में नाव पर जा रहा था। उसे आज अहंकार था। उस तथाकथित साधु को मन्त्र बताया है। वह मूर्ख हैं जो उसे पूजते हैं। जब नाव बीच में पहुँची तो डूबने को हुई। नाविक बोला पण्डित जी आप तैरनाजानते हैं। वे बोले मैं तो शास्त्र जानता हूँ। वेद जानता हूँ। तैरना तो जानता ही नहीं। नाविक बोला अब नाव डूबने जा रही है। आप शास्त्र से बचो। मैं तो छलाँग लगाता हूँ। तैर कर पार हो जाऊँगा। उस पण्डित की सारी विद्वता ध्वस्त हो गयी। वह साधु जी को दुहाई देने लगा इस बीच नाव डूब गयी। नाविक तैर कर निकल गया। पण्डित डूब रहा था। महात्मा जी का बार-बार स्मरण कर रहा था। हे साधु बाबा हमें बचा लो। मैंने तेरा अपमान किया। देखता है कि वह साधु बाबा पानी पर चलते हुए उसे पार कर आ गए और उसे बचा लिया। अब वह पण्डित शास्त्र भूल गया। हो गया उनका शिष्य।

जब साधक अटल, दृढ़ विश्वासपूर्ण जाप करता है तो उपलब्ध हो ही जाता है उस परमपुरुष को।

छठा चरण-दम सील विरत बहुत करमा- जब साधक दृढ़ निश्चय से मन्त्र

जाप करता है तो इन्द्रिय विग्रह अपने आप होने लगता है संयम अपने आप आने लगता है। वाणी संयमित हो जाती है इन्द्रिय विग्रह प्रारम्भ हो जाता है। चूँकि इन्द्रियाँ अब तक बहिर्मुख थीं। अब प्रथम बार अन्तर्मुख हो रही हैं। ज्यों-ज्यों अन्तर्मुख होगा त्यों-त्यों बहु कर्मों से विरत होने लगेगा। बहु कर्म क्या है? विभिन्न दिशा में चित्तवृत्तियों का दौड़ना और उस पूर्ति के लिए विभिन्न देवी-देवता, पत्थर-पानी की पूजा करना। विभिन्न मन्दिर, गुरुद्वारों का चक्कर लगाना। विक्षिप्त हो जाना। कभी तप का नाटक करना, कभी यज्ञ का नाटक करना, कभी कीर्तन का नाटक। यही है विभिन्न कर्म, बहु कर्म। साधक इन सबसे विरत हो गुरु पर दृढ़ विश्वास कर उनके बताये मार्ग का ही अनुकरण करता है। तब साधक शील, गम्भीर, स्वच्छ आचरण, प्रतिभा सम्पन्न हो जाता है। निरन्तर साधुओं सा धर्म में विरत हो जाता है। सुरत को निरत तक ले जाता है। सदैव इसी अजपा में लग जाता है। जो सज्जन सन्तपुरुषों का धर्म है। संत पुरुष निरन्तर स्व-स्वरूप, में ही लगे रहते हैं। स्वरूप में पहुँचा साधक सत्पुरुष स्वतः ही हो जाता है। उसका आचरण अपने-आप सज्जन का आचरण हो जाता है। उसमें बनावटीपन नहीं होता है। वह पूर्ण वैराग्य की स्थिति में पहुँच जाता है।

सातवाँ चरण-सम मोहि मय जग देखा- अब साधक सर्वत्र अपने स्वरूप का ही दर्शन करता है। सर्वत्र परमात्मा को ही देखता है। आदमी में ही नहीं। पात-पात में साई रमत है। पत्ते-पत्ते में उसी साईं को देखता है। अब चाह कर भी दूसरा कैसे देखेगा। अब उससे विचित्र मित्रता हो जाती है।

"मनुआँ मीत मितईओ न छोड़े।
कमऊ गाँठि नाँहि हो खोले ॥"

    अब ऐसी मित्रता की गाँठ पड़ गयी है कि कभी खुल भी नहीं सकती। कोईभी गाँठ खुल जाती है परन्तु यह नहीं। यानी ये दोनों एक ही हो गये। आगे सद्गुरु कहते हैं-

"कहै कबीर हरि ऐसा, जहाँ जैसा तहाँ वैसा।"

जब मन मिट जाता है तो आप पाओगे कि फूल में परमात्मा फूल, पत्थर में पत्थर, वृक्ष में वृक्ष, सरिता में सरिता, सागर में सागर। अब परमात्मा हाथ में धनुष-बाण लिए कैसे खड़ा होगा ? हाथ में मुरली लिए, मोर मुकुट बाँधे कैसे खड़ा रहेगा। अब कोई सजा-सजाया परमात्मा कैसे सामने मिलेगा ? यदि कहीं मिल जाये तो सावधान। आप धोखे में हो। जब मन गिर जाता है तो मन के राम, कृष्ण कैसे रहेंगे। परमात्मा तो है ही। सब रूपों में छिपा अरूप। जहाँ भी आप देखो वहीं मौजूद है। कृष्णमूर्ति से भी लोगों ने पूछा- सत्य क्या है? वे कहते हैं-जहाँ जैसा तहाँ तैसा। कुछ भी नया नहीं हो सकता। वही चारों तरफ मौजूद है। अब कृष्ण भी वही। गोपियाँ भी वही। राम भी वही। बाँसुरी भी वही। गायें भी वही। सर्वत्र कृष्ण ही तो है। परमात्मा तो अस्तित्व ही है। "लाली मेरे लाल की जित देखूँ तित लाल।" अब कैसे जायेंगे मन्दिर। अब हरि ही तो सर्वत्र है।

आठवाँ चरण-जया लाभ संतोषा, सपनेहूँ नहिं देखई पर दोषा- अब अहंकार

मिट गया। यही अन्तिम घातक है। यही तो रावण का प्रतीक है। जो कोई भी अहंकार करता है। मैं यह कर लूँगा। वह व्यर्थ ही मर जाता है। वह भ्रम में जीता है। परमात्मा जो करता है वही होता है। चाहे लाभ हो या हानि। अब तो सन्तोष हो ही जाता है क्योंकि अब ख्याल आ गया कि परमात्मा ही सब तरफ है। वही सब कुछ है। मेरे किये क्या होगा ? मैं तो एक छोटी लहर हूँ। मैं तो सागर के साथ ही हो गयी। अब तो वही मुझ से साँस ले रहा है। जी रहा है। उसी ने जन्म लिया है, वही मृत्यु भी लेगा। मैं तो उसका ही हूँ, यात्रा का भ्रम मिट गया। सद्‌गुरु कहते हैं-

"भूले भरमि भरे जिन कोई, राजा राम करै सो होई।"

    वह जो करता है वही होगा। अब परितोष बरस जाता है। सब तरफ से फूल बरस जाते हैं। जैसे शबरी के आश्रम में बरस गये। अब जीवन से असन्तोष विदा ही हो जाता है। मन तो असन्तोष है। आत्मा परम सन्तोष, परम तुष्टि, जहाँ कोई रेखा ही नहीं बचती अभाव की। चाहे पुण्य हो, चाहे पाप हो, चाहे सांसारिक हो, चाहे आर्थिक। अब दोनों नष्ट हो गये। अब तो समष्टि चल रही है। हम उसके अंग हैं। करने का बोझ भी मिट गया। मुक्त हो गये। परितुष्ट हो गये। अब हृदय में गूंज उठा है परितोय की मिट गयमा मुक्त वही सच्चिदानन्द। अब कैसे आयेगा असन्तोष। कैसे देखेगा दूसरे को। कहाँ बचा है अब दोष। आप मुक्त हो गयेगुण-दोष से। सपने में भी नहीं आयेगा या अब सपना कैसे आयेगा।

नवम चरण-सरल सब सर छाय हीना, मम् भरोस हिय कृरष न दीना-अब साधक के पास छल बचा कहाँ? वह गुण-दोष से तो मुक्त हो गया। कौन दूसरा, कहाँ छल ? कहाँ कपट? अब तो वही ही है। भरोसा कैसे होगा दूसरे का। वह तो हर समय अपने प्रियतम को, हर रूप में, हर क्षण में देखता है। कैसे होगा दीन ? अब दीनता तो समाप्त हो ही गयी। अंब बूँद समाना समुद्र में। अब कैसे होगा अलग ? अब दीनता का, छल का प्रश्न ही नहीं उठता। अब लहर भी उसी की। बूँद भी उसी की। अब तो सब रूपों में उसे ही देखकर हर्षित हो जाता है। शबरी हर्षित है। वह गुण पूर्ण है। वह परिपक्व है। जिसमें एक भी गुण रहता है। वह प्रिय हो जाता है। शबरी तो नवों गुर्णो से परिपूर्ण है। अब अधूरी कैसे रह सकेगी। वह तो पूर्णता को उपलब्ध है। तभी तो राम को बेर का प्रसाद देती है तो राम सहर्ष पा लेते हैं। प्रसाद पाया जाता है। ग्रहण किया जाता है। भोजन खाया जाता है। शबरी का प्रसाद राम को मिला। यह धन्य भाग हैं। सप्रेम ग्रहण कर लेते हैं। अतएव उन्हें सम्बल मिल गया सीता विरह से बचने का। डूबते सागर में सहारा मिल गया जिसके सहारे पार करना सम्भव है। वही बताती है- हे राम ! आगे पम्पासर आप जायें। वहीं सुग्रीव से मित्रता करें। आपका कार्य सिद्ध हो जायेगा। परन्तु लक्ष्मण उसके बेर को प्रसाद नहीं समझते जूठन समझते हैं। अतएव अपमान कर फेंक देते हैं। संत का अपमान होता है। वहाँ ऊँच-नीच का भाव है। दूसरा भाव है लक्ष्मण का। वही कारण है कि बार-बार अहंकार के साथ युद्ध में मूर्छित होते हैं। वही बेर रूपी संजीवनी दी जाती है। वही शबरी का प्रसाद दिया जाता है। तब लक्ष्मण की मूर्छा छूटती है। अतः साधक को सन्त का प्रसाद प्रभु का प्रसाद समझकर ग्रहण करना चाहिये। शबरी राम को सुग्रीव से मिलने का दिशा-निर्देश करके स्वधाम को प्रस्थान कर जाती है। जहाँ उसके गुरु रहते हैं। गुरु सेवा को प्रस्थान कर जाती है। यही है शबरी की नवधा भक्ति। जिसके दर्शन एवं सुग्रीव से अटूट मित्रता के कारण राम में रावण रूपी अहंकार से लड़ने की क्षमता आ जाती है। यही माहात्म्य है सन्त दर्शन एवं उसका प्रसाद पाने का।
  क्रमशः....….