साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

कृष्ण

    कृष्ण यानी कर्षति इति कृष्ण। जो आकर्षित करता हो, खींचता हो अपनी तरफ वह कृष्ण है। जो सबको शाब्दिक स्पर्शों एवं अन्यान्य तन्मयता के माध्यम से तथा समस्त (हिप्टोप्लाज्मिक अटरैक्शन) के माध्यम से, मानसिक आकर्षण से अपनी ओर खींच लाता है-वह ही कृष्ण है। संसार संचर प्रतिसंचर के माध्यम से चलता है। जो प्रतिसंचर के माध्यम से सबको अपनी ओर खर्षीच रहा है-वही कृष्ण है। वे आदर स्नेह से आकर्षित करते हैं- प्रतिसंचर की धारा में जो जीव जगत आता है वह उसे आकर्षित करते हैं। अब नहीं जाना, जीव के बस की बात नहीं है। वह अपनी तरफ क्यों आकर्षित करता है? वह आकर्षित कर आपको निष्काम, कर्म के पथ पर ले जाता है। वह विध्वंसकारी भावना नहीं रख सकता। वह स्थूल, मानसिक, आध्यात्मिक जगत से विध्वंसकारी प्रवृत्ति को हटा ही देगा। समाज के अग्रगति में जो पैशाचिक लताएँ कंटक स्वरूप हैं, रोड़े की तरह हैं, उन्हें पथ से हटा ही देगा। ममता रोकती है परन्तु कल्याणकारी भाव कठोरता का अवलम्बन ले लेता है। कृष्ण एक न्युक्लियस की तरह है जिसके चारों तरफ न्युक्लियाई घूमते हैं। कृष्ण केन्द्र बिन्दु हैं जगत के। कृष्ण को समझने के लिए आँखें चाहिये। राम को समझा जा सकता है। कृष्ण को समझना आसान नहीं, कठिनतम है। सम्भवतः इसी से राम को अंशावतार कहा गया है। कृष्ण को पूर्णावतार। कृष्ण सब को आत्मसात् कर जाते हैं। सभी धर्म हँसने से भागते हैं। उदास, गम्भीर रहने को कहते हैं। मानो सारे धर्म ही दुःखवादी हों। मानो सभी किसी-न-किसी दुःख से भागे हों। गहराई से देखने पर मालूम होता है कि सभी धर्मो की जड़ में किसी-न-किसी रूप में दुःख है। अतएव महात्मा, संन्यासी, साधु सभी के सभी इस संसार को दुःख का कारण कहते हैं। उनका चेहरा रोता हुआ है। कृष्ण पहला व्यक्ति है-जो नाचते हुए हैं। हँसते हुए, गीत गाते हुए हैं। महावीर, बुद्ध, जीजस, सम्भवतः जीवन में कभी हँसे ही नहीं। राम के जीवन में कभी हँसी नहीं आयी। इस धर्म ने ही जीवन को दो हिस्सों में बाँट रखा है, एक वह जो स्वीकार के योग्य है। दूसरा वह जो इनकार के योग्य है। कृष्ण अकेले सभी से अलग हटकर इस समग्र जीवन कोपूरा ही स्वीकार कर लेते हैं। अभी तक का धर्म, तोड़कर या द्वंद करके सौचता रहा। यह शरीर को इनकार कर, आत्मा को स्वीकार करता है। इह लोक की अस्वीकार करता है। परलोक को स्वीकार करता है। कहीं आत्मा शरीर को लड़ाया जाता है तो कहीं इहलोक परलोक को। जब हँसता हुआ धर्म पैदा नहीं कर सकता तब तो कहना ही पड़ेगा। धर्म मर गया। ईश्वर मर गया। अब धर्म तथा ईश्वर नाम की कोई चीज नहीं। दोनों का दफन हो गया। कृष्ण पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने शरीर-आत्मा, इहलोक-परलोक दोनों को हँसते हुए स्वीकार किया। कृष्ण हर स्थिति का सामना करते हुए हँस रहा है। मुस्कुरा रहा है। नाच रहा है। इसके साथ समग्रता ही नाच उठती है। यही कारण है जिन्होंने भी कृष्ण की पूजा की उन्होंने कृष्ण को टुकड़े-टुकड़े में करके की। पूरे कृष्ण को स्वीकार करने का किसी में भी आज तक साहस नहीं हुआ। सभी ने कृष्ण को छिन्न-भिन्न कर दिया। कृष्ण सम्पूर्णता के प्रतीक हैं। मानव समाज के आनन्द के लिए सुन्दर आविष्कार के रूप में उभरते हैं। कहीं पूर्वाग्रह नहीं, नकारात्मकता नहीं। जीवन ही प्रेम है। जीवन ही उत्सव है। कृष्ण कहीं चोर हैं कहीं चरवाहा, कहीं बाँसुरी वादक। कहीं रास रचयिता, कहीं युद्ध का कुशल नेतृत्वकर्ता। किसी के भी जीवन में इस तरह की बहुआयामी प्रतिभा सम्भव नहीं है। कृष्ण का नाम है- समग्रता, बहुआयामी।

  कृष्ण का जन्म

     कृष्ण एक ऐसे महामानव हैं जिनका जन्म ही दुःख रूपी कारागार में होता है। वह भी कारागार किसी अन्य का नहीं, अपने ही ममता रूपी मामा कंस का, जो अपनी ही धर्म रूपी बहन, बहनोई (देवकी-वसुदेव) को तथाकथित देव संस्कृति के लोगों के कहने पर या बहकावे में आकर बंदी बना लेते हैं। कृष्ण जैसे प्रतिभा को जन्म देने के लिए पृथ्वी को हज़ारों वर्ष तप करना पड़ता है। कंस, कृष्ण एक ही राशि के हैं। देवकी-वसुदेव को कारागार होता है परन्तु उनको किसी बात का पश्चाताप नहीं, अफसोस नहीं, भय नहीं, वसुदेव कह सकते थे, भाई कंस, रखो अपनी बहन को, किसी और से शादी कर देना, हमें तो छोड़ो। देवकी भी कह सकती थी भाई कंस में जीवन भर ब्रह्मचारिणी रह जाऊँगी। मुझे छोड़ दो। अभी मात्र मंगलसूत्र ही तो बँधा है। लो इसे तोड़ देती हूँ। देवगणों ने आठवें पुत्र के सम्बन्ध में कहा है मैं एक भी पुत्र नहीं पैदा करूँगी। परन्तु ऐसा नहीं होता है। दोनों प्रसन्न हैं। खुश हैं। कोई पूर्वाग्रह नहीं। कोई द्वेष नहीं। मानो दोनों का हृदय सच्चित् को प्राप्त हो गया है। कोई अन्तर नहीं पड़ता। चाहे राज महल में रहें, चाहे झोंपड़ी में हों, चाहे राजगृह हो। सर्व भूमि गोपाल की है। अतएव दोनों पति-पत्नी प्रसन्न हैं। अपने तप में, अपने कर्तव्य में लग जाते हैं। भविष्य की चिन्ता में वर्तमान कोबर्बाद नहीं करते। वर्तमान को हरि इच्छा मान आनन्द से, हँसी-खुशी से व्यतीत करते हैं। उनके चेहरे पर कोई विषाद नहीं। कोई रूदन नहीं। जब जीवन प्रेम आनन्द, उत्सव से भर जायेगा तब अपने आप आते हैं- सच्चित्, आनन्द स्वरूप, करुणा स्वरूप कृष्ण।

जब देवकी वसुदेव को प्रथम पुत्र होता है तब कंस सोचता है ठीक है हमें तो आठवाँ पुत्र ही देखना है। देवगण ने हर समय मानव-मानव को आपस में लड़ाया है। कंस शक्तिशाली राजा थे। पूरे पूर्वांचल पर एक तरह से उनका अधिकार था। जरासंध मगध नरेश थे जो अपनी दो कन्याओं की कंस से शादी किये थे। कंस एवं जरासंध का मिलित प्रयास था पूरा पूर्वांचल का एकछत्र राज्य। देव संस्कृति चिन्तित थी। चूँकि कंस अब पूर्व-उत्तर की ओर बढ़ता वहाँ तो त्रिविष्टप (स्वर्ग) ही था। अतएव देवेन्द्र ने सोचा कि शत्रु को वहीं उलझाये रहो। जिसमें सफलता भी मिलती है। देवेन्द्र दूत नारद आकर समझाते हैं- हे कंस। कौन पहला ? कौन आठवाँ ? आप एक गोला (वृत्त) बना दो। उसमें आठ लकीरें खींचो। अब बोलो कौन पहला, कौन आठवाँ होगा। इस तरह भोजराज कंस को बहका कर उसे अपना ही खून यानी भागिनेय की हत्या करने को बाध्य किया। कालान्तर में इस दोष से बचने का बहाना भी खोज लेते हैं। जबकि पाप कर्म करने वाले से कराने वाले की ज्यादा भागीदारी होती है। कंस की करुणा को देवगण बार-बार कठोरता, निर्ममता, हृदयहीनता में बदलते रहते हैं। कहीं भी वे उसे नीतिगत बात नहीं सिखाते। संसर्ग का दोष आना स्वाभाविक है। खैर कंस ने बहन की सुख-सुविधा का ख्याल कर जेल में भी विजया, माधवी, माया नामक प्रवीण सेविका दे रखी ीं। इनके साथ सैकड़ों अन्य सेवक थे जो हर सुख-सुविधा का साधन मुहैया करें। माधवी और माया शल्य क्रिया में अत्यन्त निपुण र्थी। विजया राज-काज के काम में।

जब देवकी के गर्भ में सातवाँ पुत्र आया तब देवकी ने विजया, माधवी, माया से कहा कि हे देवियों क्या कोई उपाय नहीं कि तुम हमारे पुत्र को बचा सको। क्या तुम लोग भी हृदयहीन कठोर हो। यदि तुम में कुछ भी ममत्व है तो एक माता की विवशता का ख्याल करो। विजया द्रवित हो जाती है। आपस में विचार-विमर्श होता है। अन्त में निर्णय कर वे देवकी वसुदेव से कहती हैं- एक उपाय है आपके इस गर्भ को स्थानान्तरित किया जा सकता है। यदि आपके पास आपकी विश्वासी कोई अन्य औरत हो तो हमें बतायें। परन्तु यह अत्यन्त गोपनीय होना चाहिये। वसुदेव रोहिणी के सम्बन्ध में कहते हैं। विजया रोहिणी को बुला लाती है। रोहिणी विजया की सहेली की तरह साथ आती साथ चली जाती है। कोई पहरेदार अविश्वास भी नहीं करता। एक रात्रि अवसर देखकर माधवी, माया गर्भ का हस्तान्तरण कर देतीहैं। रोहिणी को सुरक्षित नन्द जी के यहाँ भेज देती हैं। प्रांतः काल विजया वाक्‌पटुता एवं निपुणतापूर्वक कंस को गर्भपात का सन्देश भेज देती है। अब तीनों अपने कृतकर्म से प्रसन्न थीं। मानवता को बचा लिया था। तीनों

आगे के बच्चे को भी बचाने के लिए कृतसंकल्प र्थी। साहस बढ़ चुका था। हिम्मत

बँध चुकी थी। विजया सारे सेवक प्रहरीगण की शासिका थी। सभी उसी के

मातहत थे। माधवी, माया शल्य विशेषज्ञ थीं। तीनों अत्यन्त रूपवती होने के

साथ-साथ अपने-अपने गुणों में दक्ष र्थी। राजा की विश्वासपात्र। इन्हीं कारणों से

कंस ने इन्हें अपनी बहन की सेवा में लगा रखा था। कृष्ण का आगमन देवकी के

गर्भ में हो गया। देवकी प्रफुल्लित थी। चेहरा खिल उठा, वसुदेव, वासुदेव की

प्रतीक्षा में थे। गर्भ से ही कृष्ण कर्षण करने लगा। आस-पास के सभी लोग

उसकी तरफ खिंचते चले आये। भाव-विभोर होते गये। विजया सभी को मिला

कर रखती। उसकी इच्छा के बिना कारागार का पत्ता तक नहीं हिलता। माधवी ने

विजया को बता दिया बहन अगली रात्रि पुत्र उत्पन्न की सम्भावना है। गर्भस्थ शिशु

अत्यन्त ही पुष्ट एवं सुन्दर है। गर्भवती को सारी सुविधा दी गयी है। रात्रि में समय

भी अच्छा ही है। अब इस बच्चे को अन्यत्र ले जाने का उपाय करो।

भाद्रपद मास अष्टमी के रोहणी नक्षत्र अर्द्धरात्रि में कृष्ण का आगमन होता है। माधवी एवं माया प्रसूति का कार्य सम्भालती हैं। विजया कारागृह के कर्मचारियों को पहले ही सोमपान करा चुकी है। सभी बेसुध सो गये हैं। विजया वसुदेव से पूछती है क्या आप इस बच्चे को सुरक्षित स्थान पर पहुँचा सकते हैं। वसुदेव के शरीर में जीवन का संचार हो जाता है। पूरा शरीर चकाचौंध हो जाता है। जैसे ऊर्जा से भर गया हो। सहर्ष विजया के निर्देशन पर अपने नवजात शिशु को लेकर चल देते हैं। रात्रि अन्धकारमय है। वर्षा हो रही है। बच्चे को सर पर रख आगे-आगे वसुदेव पीछे-पीछे माया चल रही है। माया छाते से कृष्ण को वर्षा से बचाते हुए गोकुल पहुँच जाती है। विजया एवं माया की नीति वहाँ भी सफल होती है। नन्द जी को पुत्र देकर यशोदा की सोयी हुई हालत में उनकी पुत्री लेकर वापस आते हैं। प्रातःकाल विजया कंस को पुत्री होने की सूचना देती है। जेल की व्यवस्था पूर्ववत् हो जाती है।

 कंस कृष्ण एक कर्म योग

    कंस जिसका अस्तित्व दुःखद भयावह हो। जो जीवन जगत की अग्रगति में बाधक हो, जो अपने अस्तित्व की रक्षार्थ जीव जगत् के कल्याण में, सद्भावना में बाधक हो। कंस राक्षस संस्कृति के नहीं थे। ये भी कृष्ण के खानदान में ही थे।इनका जरासंध से मित्रता एवं शादी का सम्बन्ध भी था। दोनों में अटूट सम्बन्ध था। इनकी शासन सत्ता जनकपुर से लेकर मणीपुर बंगाल, असम तक थी। इनसे देवता भी भयभीत रहते थे। अतः कंस को अहंकार आना स्वाभाविक ही था। जब कोई व्यक्ति साधना से च्युत हो जाता है तब सत्ता पाकर मदांध हो ही जाता है। कंस कृष्ण के जन्म के बाद वसुदेव एवं अपनी बहन देवकी को ससम्मान कारागार से बाहर कर देता है। अपने द्वारा किये गये अपराध के लिए पश्चाताप भी करता है। बार-बार देवकी एवं वसुदेव से क्षमायाचना करता है। अब कृष्ण रूपी सत्ता से वह भी अनायास ही आकर्षित हो गया था।

"आसीनः संविशंस्तिष्ठन् भुष्ठजानः पर्यटन् महीम्।

चिन्तयानो हर्षाकेशमपश्यत् तन्मयं जगत् ॥"

    वह उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते जागते, चलते-फिरते सर्वदा कृष्ण के चिन्तन में ही लगा रहता। जहाँ उसकी दृष्टि पड़ती जहाँ कुछ खड़का होता, वहीं उसे कृष्ण दिख जाते। इस प्रकार उसे सारा जगत् ही कृष्णमय दिखने लगा। कृष्ण के नज़दीक जो भी जाता वह उसका हो जाता। जो विपरीत रहता वह इस पृथ्वी पर रहने का हक नहीं रख पाता। पूतना ऐसी ही सुन्दरी है। देव कन्या है। उसकी सुन्दरता, चाल-ढाल की तुलना लक्ष्मी से की गई है। परन्तु आज की विष कन्या है। वह कृष्ण को स्तन-पान कराने हेतु गोद में लेती है। साथ ही कृष्ण जैसी प्रतिभा को देखकर स्वयं विषपान कर शरीर का परित्याग कर देती है। कृष्ण के सामने प्रकृति अनहोने दृश्य उपस्थित करती है जिससे कृष्ण के जीवन में प्रतिष्ठा के चार चाँद लग जाते हैं। कृष्ण अल्प आयु (5 वर्ष) में ही गाय चराने का काम शुरू कर देते हैं। चरवाहे का कार्य बहुत कुशलतापूर्वक पूरा करते हैं। इसी समय माखन, दही की चोरी भी करते हैं। ग्वाल-बाल के साथ खुशी-खुशी हँसते हुए जीना प्रारम्भ करते हैं। जीवन को वास्तविकतापूर्वक जीने की कला को अपनाते हैं। मानव को मनोवांछित गुणों से सम्पन्न रहने की कला को अपनाने के लिए समाज को कहते हैं। नन्द जी इन्द्र की पूजा यज्ञ प्रारम्भ करते हैं। कृष्ण इसे मिथ्या कहते हैं। वे अपने निष्काम कर्म के सिद्धान्त को प्रतिपादित करते हैं। इन्द्र की पूजा को रोक देते हैं। कहते हैं मनुष्य अपने कर्मों के फल का ही उपभोग करता है। कर्म के

अनुसार ही जन्म ग्रहण करता है एवं मृत्यु को प्राप्त करता है। 
"कर्मणा जायते तन्तुः कर्मणैव विलीयते।

सुखं दुःखं भयं क्षेमं कर्मणैवाभिपद्यते ।। अस्ति चेदीश्वरः कन्चित् फलरूप्यन्य कर्मणाम् । कर्तारं गजले सोऽपि न झकेर्तुः प्रभुर्हि सः ॥
किमिन्प्रेणेह भूतानां स्वकर्मान्वुर्तिनाम। अनीशेनान्यथा कर्तुं स्वभावविहितं नृणाम् ॥ देहानुच्चावचाजन्तुः प्राप्योत्सृजति कर्मणा। शत्रुर्भित्रभुदासीनः कर्मेव गुरुरी श्वरः ॥

    प्राणी अपने कर्म अनुसार पैदा होता और उसी के अनुसार मर जाता है। उसे उसके कर्म के अनुसार ही सुख-दुःख, भय और मंगल के निमित्तों की प्राप्ति होती है। यदि कर्मों को ही सब कुछ न मानकर उनसे भिन्न, जीवों के कर्म का फल देने वाला ईश्वर को माना भी जाये तो वह कर्म करने वालों को ही उनके कर्म के अनुसार फल दे सकता है। कर्म न करने वालों पर उसकी प्रभुता नहीं चल सकती। जब सभी प्राणी अपने-अपने कर्मों का ही फल भोग रहे हैं, तब हमें इन्द्र की क्या आवश्यकता है पिता जी। जब वे पूर्व संस्कार के अनुसार प्राप्त होने वाले मनुष्यों के कर्मफल को बदल ही नहीं सकते तब उनसे क्या प्रयोजन ? मनुष्य अपने स्वभाव (पूर्व संस्कारों) के अधीन हैं। वह उसी का अनुसरण करता है। यहाँ तक कि देवता, असुर, मनुष्य आदि को लिए हुए यह सारा जगत् स्वभाव में स्थित है। जीव अपने कर्मों के अनुसार उत्तम और अधम शरीरों को ग्रहण करता और छोड़ता है। अपने कर्मों के अनुसार ही यह शत्रु है, यह मित्र है, यह उदासीन है-ऐसा व्यवहार करता है। कहाँ तक कहूँ, कर्म ही गुरु है। कर्म ही ईश्वर है। इस प्रकार कृष्ण बचपन में ही कर्मवाद के सिद्धान्त को अपने में उतार कर दिखाते हैं। इन्द्र की पूजा बन्द कर देते हैं। यज्ञ के लिए इकट्ठी सामग्री को गो, गोवर्धन, ग्वालबाल एवं गुरु पूजा में अर्पित करा देते हैं। सभी खुश हो अपने निष्काम कर्म योग में लग जाते हैं।
क्रमशः....