बिलों पर मंजूरी की समय सीमा अदालत तय नहीं कर सकती : सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को साफ कर दिया कि राष्ट्रपति या राज्यपाल को विधेयकों पर निर्णय देने की कोई समय सीमा अदालत तय नहीं कर सकती। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने मई में अनुच्छेद 143(1) के तहत 14 संवैधानिक सवाल सुप्रीम कोर्ट के सामने रखे थे, जिनका जवाब संविधान पीठ ने अब दे दिया है। मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बीआर गवई की अगुवाई वाली पांच सदस्यीय बेंच ने दस दिन तक दलीलें सुनने के बाद 11 सितंबर को फैसला सुरक्षित रखा था।
संवैधानिक पदों का विवेक, न्यायिक सीमाएं स्पष्ट
कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल या राष्ट्रपति विधायी प्रक्रिया का हिस्सा हैं और विधेयकों पर निर्णय लेना उनका संवैधानिक कर्तव्य है, लेकिन इस पर कोई अदालत समय सीमा तय नहीं कर सकती। बेंच ने माना कि अत्यधिक देरी लोकतांत्रिक ढांचे को प्रभावित करती है, इसलिए अपेक्षा है कि निर्णय उचित समय में दिया जाए, पर यह दायरा न्यायपालिका निर्धारित नहीं कर सकती।
राष्ट्रपति के 14 सवालों पर कोर्ट की राय
संदर्भ में उठाए गए सवाल अनुच्छेद 200 और 201 से जुड़े थे। इनमें राज्यपाल के विकल्प, फैसलों पर मंत्रिपरिषद की सलाह का प्रभाव, न्यायिक समीक्षा की सीमाएं, राष्ट्रपति द्वारा लिए गए फैसलों की समीक्षा, समय सीमा तय करने का अधिकार, अनुच्छेद 142 और 145 की व्याख्या जैसे मुद्दे शामिल थे। कोर्ट ने इन सभी पर संविधान की मर्यादा और संघीय ढांचे के अनुरूप जवाब दिया।
तमिलनाडु मामले की पृष्ठभूमि
8 अप्रैल के एक निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल की ओर से भेजे गए किसी भी बिल पर राष्ट्रपति तीन महीने में फैसला लें। यह टिप्पणी उस समय महत्वपूर्ण मानी गई थी, क्योंकि पहले कोई समय सीमा तय नहीं थी। अब संदर्भ पर आए फैसले में कोर्ट ने साफ कर दिया कि ऐसी बाध्यकारी समय सीमा न्यायपालिका नहीं ठोक सकती और यह विषय पूरी तरह संवैधानिक पदाधिकारियों के विवेक से जुड़ा है।
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के बाद राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों पर निर्णय प्रक्रिया की संवैधानिक परिभाषा और स्पष्ट हो गई है, जबकि न्यायपालिका ने अपनी सीमाएं भी दोहराई हैं।