आभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की कृति रहस्य में लोक से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
नर्जन्म
मैं निर्विकल्प, निराकार, अपरिवर्तनशील, सर्वव्यापी और सर्वत्र विद्यमान हूं, मैं सभी इंद्रियों से असंग हूं, न मुझमें मुक्ति है, न बंधन । मैं समस्त सापेक्ष ज्ञान से परे हूं। मैं सर्वव्यापी आत्म स्वरूप शिव हूं।
आदि शंकराचार्य उस निर्गुण निराकार परमात्मा को साक्षात्कार करने के बाद उद्घोष करते हैं। जो भी अनुभव से गुजर कर घोषणा करेगा, उनकी वाणी में एकता, समानता रहती है। कहने का ढंग, शब्द विन्यास अलग- अलग हो सकता है। जैसे उपनिषद् के ऋषि भी इसी तथ्य को वृहदारण्यकोपनिषद में कहते हैं ---- " अस्थूलमनण्वह्वस्वमदी र्घम ----अचक्षुष्कमश्रोत्रमवागमनो अनन्तरबाह्वम। अमृतोऽदृष्टोदद्रष्टा अमतो मन्ताऽविज्ञतो विज्ञता।" अर्थात वह न तो स्थूल है और न अणु है। न हृस्व है, न दीर्घ है, चक्षु रहित ,स्रोत रहित, वाग रहित, मन रहित अंदर- बाहर रहित है।
वह अमृत आत्मा देखा नहीं जा सकता पर स्वयं दृष्टा है। उसका मनन नहीं किया जा सकता है, पर जो स्वयं मन्ता है, जिसको जाना नहीं जा सकता, पर जो स्वयं विज्ञाता है।
इसी अनुभव को छांदोग्योपनिषद के ऋषि कहते हैं।
"वह (परमात्मा) नीचे है, ऊपर भी है, वही पीछे है ,आगे है ,दक्षिण में है, उत्तर में हैं, वह सर्वत्र और सर्वव्यापी है।"
कठोपनिषद के ऋषि कहते हैं---"वह अणु से भी अणु और महत से भी महान है। वह आत्मा सभी प्राणियों के ह्रदय में विद्यमान है।"
इसे गुरु अनुकंपा से ही प्राप्त किया जा सकता है। पूजा-पाठ योग- धारणा स्वकीय है। ध्यान -समाधि स्वकीय नहीं है। सभी राक्षस रिद्धि- सिद्धि तो प्राप्त कर लिए लेकिन आत्म-दर्शन नहीं कर सके। वे गुरु भक्त भी नहीं थे।तपस्या से संसार की सभी वस्तुएं प्राप्त की जा सकती है। आत्मसाक्षात्कार तो गुरु अनुग्रह है। आत्म-साक्षात्कार होते ही रिद्धि- सिद्धि देवदासी की तरह अनुगमन करती है।
एक दिन मैंने भगवान कृष्ण से पूछा--हे मधुसूदन! आपके आगमन के पहले आप के छः: भाई कंस के द्वारा अपहरण कर लिए गए। उन्हें मौत की सजा दी गई। जिसकी अथाह वेदना को आपके मां-बाप को झेलना पड़ा। क्या आपका आगमन इतना कष्ट पूर्ण है तो कौन आपको आह्वान कर कष्ट-दुख को निमंत्रण देगा।
भगवान कृष्ण ने मृदुभाषा में उत्तर दिया, ऐसी बात नहीं है--स्वामी जी! कंस अहंकारी था। तपस्वी भी था। देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त था उसे। उसके तप से देवगन प्रसन्न थे। आसन, यम, नियम, प्राणायाम, प्रत्याहार और धारणा स्वकीय है। हठयोग से किया जाता है। इन्हीं से सिद्धियां प्राप्त की जा सकती है। जागतिक पद-प्रतिष्ठा प्राप्त की जा सकती है। मुझे नहीं प्राप्त किया जा सकता है। कंस का इन छः पर अधिपत्य था। देवकी मेरी मां है। वह पूर्ण समर्पण की भाषा जानती है। उसका अपना अहं कुछ है ही नहीं। उसका अंक ही मेरे लिए उत्तम स्थान है। देवताओं को भी उसका अंक दुर्लभ है। वही मेरी है---देवकी। मेरे पिताश्री है--वसुदेव। जिसके ह्रदय में मैं सदा वास करता हूं। उनकी भी अपनी अलग से कोई चाह नहीं है। मेरी चाह ही उनकी चाह है। देवकी+वसुदेव=वासुदेव। वसु एवं देव (की) दोनों के मिलन को ही वसुदेव कहते हैं।
कंस का मेरे छ: कनिष्ठ भाइयों पर पूर्ण अधिकार था। उस पर गुरु अनुकंपा नहीं थी। वह द्विज नहीं बन पाया था। उसका पुनर्जन्म नहीं हुआ था। जिसका पुनर्जन्म होता है। वही व्यक्ति गुरु अनुकंपा से द्विज बनता है। जो द्विज बनता है उन्हीं के यहां मेरा सप्तम भाई बलराम अर्थात जिसका राम ही बल हो। जहां बल विश्राम करता है। शक्ति अपने स्रोत में ही विश्राम करती है। शक्ति का स्त्रोत तो राम ही है। उनका गर्भ स्थानांतरण किया गया। गुरु का शब्द ही गुरु से स्थानांतरित होकर शक्ति के साथ शिष्य के ह्रदय रूपी गर्भ में स्थिर हो जाता है। यह स्थिर होना ही ध्यान है।
ध्यान फूल है। आकाश है। फूल में ही फल लगते हैं। जो गुरु के अनुग्रह से ध्यान को उपलब्ध हो जाता है। मैं (कृष्ण) वहां पहुंच जाता हूं। मैं (कृष्णा) ही तो समाधि रूपी फल हूं---स्वामी जी। मेरी बरबसता है। वहां स्वयं जाना यहां बलराम रूपी ध्यान रूपी फूल खिले थे। मैं चुपके से रात्रि के अंधेरे में, घोर वर्षा में उफनती नदी को पार करते हुए, नाग की छाया में पहुंच गया, यशोदा की गोद में। उसे भान तक नहीं हुआ। मेरे रुदन पर उसकी नींद खुली। वह खुशी से अपने अंक में भर ली। उनकी वाणी अवरुद्ध हो गई। घर-परिवार वालों को मुझे ही आगमन की सूचना देनी पड़ी।
मैंने उनसे कहा--भगवान इसे जरा ठीक से समझाइए। अर्ध रात्रि, मूसलाधार वृष्टि, नदी का उफान एवं नाग की छाया क्या है?
भगवान कृष्ण ने कहा---स्वामी जी! इसे आप जानते हैं। फिर भी आप लोकहित के लिए मेरे मुंह से सुनना चाहते हैं। साधक अज्ञान रूपी तिमिरांध से आच्छादित रहता है। जन्मो-जन्मो से अज्ञान रूपी घोर अंधकार उसे घेर रखा है। जैसे ही गुरु अनुकंपा रूपी बूंदा-बूंदी होने लगती है। साधक की ध्यान सही दिशा में अग्रगति करने लगता है।ध्यान में कभी-कभी प्रकाश से साधक चका-चौंध हो जाता है। यही है विद्युत का चमत्कार साधक नाना प्रकार के ध्वनियों को सुनने लगता है। अनाहद नाद ही विभिन्न प्रकार के वाद्य हैं। मेघ की गर्जना है।
साधक पर जैसे-जैसे गुरु अनुकंपा रूपी वर्षा तेज होने लगती है। वह वर्षा क्रमशः तेज होकर मूसलाधार वृष्टि में बदल जाती है। कुंडलिनी मूलाधार चक्र से उठ खड़ी होती है।