पिता की डाँट

सविता व्यास इंदौर मध्यप्रदेश

पिता की डाँट

कर्मठता, विनम्रता, स्वाभिमान, साहस और स्नेह के प्रतिमूर्ति थे मेरे पिता।दादाजी-दादीजी के सबसे होनहार और प्रिय पुत्र थे।उनका बचपन संघर्ष में ही बिता था।छोटी सी उम्र में ही स्वयं के पैरों पर खड़े हो गए थे।अपनी आगे की पढ़ाई उन्होंने अपनी कमाई से पूरी की।मेहनत और लगन से उच्च अधिकारी पद पर आ गए थे।सरल-निर्दोष व्यक्तित्व वाले मेरे पिता जहाँ भी रहे लोकप्रिय ही रहे।उन्होंने छोटों-बड़ों में कभी भेदभाव नही किया।सभी को उचित स्नेह और आदर देते रहे वे।
      पिता के रूप में भी उनका शानदार व्यक्तित्व रहा।हम सभी बच्चों को भरपूर स्नेह दिया।बेटे-बेटियों में उस समय भी कोई भेदभाव नही रखा जब बेटी होना अभिशाप माना जाता था।उन्होंने वही परवरिश हमें दी जो उन्होंने अपने इकलौते बेटे को दी।सारी सुख-सुविधा तो दी ही उसके साथ-साथ हमारा मार्गदर्शन भी करते रहे।हमारे व्यक्तित्व निर्माण में अनुशासन को भी साथ लिया।मुझे उनकी डाँट आज तक याद है..तब पापा झाबुआ जिले में पदस्थ थे, मैं स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रही थी।पढ़ाई में इतनी व्यस्त रहती थी कि कोई भी घरेलू कार्य नही करती थी।सभी कार्यों के लिए  सहायक थे।हम सबके कपड़े बहादुर भाई ही इस्त्री करते थे।एक दिन किसी और काम में व्यस्त होने के कारण वो मेरे कपड़ों पर इस्त्री नही कर पाए।मुझे कॉलेज जाना था।तुनकमिजाज, सुख की आदी, और अहंकारी मैं भड़क उठी उन पर।जाने क्या-क्या बोले जा रही थी मैं।पापा सुन रहे थे, उन्होंने मुझे आवाज़ दी और बहादुर भाई के सामने ही मुझे बुरी तरह डाँटने लगे।उन्होंने कहा.. वह तुमसे उम्र में बड़ा है, नौकर है तो क्या हुआ अपने पैरों पर खड़ा है, उसका अपना सम्मान है, अभी तो तुमसे काफी बेहतर है, तुम्हें कोई हक़ नही है उसके सम्मान को चोट पहुंचाने का।ये बात अच्छी तरह समझ लो कोई छोटा-बड़ा नही होता, सबको आदर दिया करो, विनम्रता से बात किया करो।
    उस समय में 20 वर्ष की थी तब बहादुर भाई के सामने इसतरह उनका मुझे डाँटना आहत कर गया था।मेरी आँखों से आँसू बह रहे थे।पापा यह कह कर ऑफिस चले गए थे पर मेरे आँसू लगातार बह रहे थे, इन आँसुओ के साथ अहंकार भी पिघलकर बह रहा था।मम्मी ने सिर पर हाथ रखा और कहा.. पापा अच्छे के लिये ही कहते हैं न, सबका स्नेहपात्र बनना है तो सबको सम्मान देना होता है।
बहादुर भाई मुझसे क्षमा मांग रहे थे।वे मेरी पसंद का हलुआ भी बना लाये थे पर मैं गुमसुम ही रही।
       उस दिन मुझे बड़ा सबक मिल गया था।बड़े पिता की बेटी होने से मुझे किसी को तुच्छता का अहसास दिलाने का हक़ नही है।किसी के आत्मसम्मान को चोट पहुंचाना बड़ा अपराध है।उस दिन की डाँट ने मुझमे आमूल चूल परिवर्तन ला दिया है।विनम्र हो गई हूँ मैं।मैं आज भी अपने घरेलू सहायकों से विनम्रता से बातें किया करती हूँ।उनकी तकलीफों को समझती हूँ।
      सच है पिता का अनुशासन और मार्गदर्शन बहुत जरूरी है बच्चे के व्यक्तित्व निर्माण में।वे धूप में छतरी बन साथ रहते हैं तो हमें सही दिशा देने के लिए कठोर शिक्षक भी बन जाते हैं।भाग्यशाली हूँ मैं कि मेरे इतने अच्छे माता-पिता थे।अब वे दोनों नही हैं पर हमारे सँस्कारॊं में आज भी जीवित हैं।