साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

???? धर्मराज लोक में उपदेश????

     विभिन्न लोकों को घूमने के बाद मैं धर्मराज महल में आया। कुछ देर विश्राम किया। धर्मराज ने कहा, स्वामीजी अब आप हम देवों को कुछ उपदेश देने की कृपा करें। हे धर्मराज जी। विभिन्न लोकों से मेरे आत्म स्वरूप देव गण। मानव के लिए

आप लोग रहस्यमय लोक में रहते हैं। आप सभी पृथ्वी के लिये सचमुच रहस्य है। इसमें दो राय नहीं कि आप लोग तपस्वी नहीं है। आप सभी लोगों ने घोर तपस्या किया है। जन्मों जन्म के तपस्या का ही परिणाम है देव तन देव का अर्थ होता हैं प्रकाश। आप स्थूल शरीर छोड़ कर प्रकाशमय शरीर कारण शरीर, आत्म शरीर में निवास कर रहे हैं। यहां मानव दुर्लभ सुख भोग रहे हैं। यहां सुखद वातावरण में बैठे-बैठे मृत्यु लोक के प्रत्येक मानव का क्रियाकलाप देख रहे हैं। उसके किये कर्मों के अनुसार फलाफल दे रहे हैं। आप किसी के साथ न पक्षपात कर रहे हैं। नही घृणा । यही आप की महानता है। समभाव रखना ही देवत्व है। लेकिन यही पद सभी कुछ नहीं है। यही अन्तिमबिंदु नहीं है। जीवन का अन्तिम लक्ष्य यही नहीं है। इससे आगे बहुत आगे जाना है। ऐसे पद को प्राप्त करना है जहां सुख दुख का द्वंद्व समाप्त हो जाय। आवागमन रुक जाय। हर समय आनंद परमानन्द में हम लोग रह सकते हैं। वही जीवन का अन्तिम लक्ष्य होना चाहिए।

आखिर सुर-मुनि दुर्लभ मानव शरीर क्यों माना गया है? जबकि मानव ही दुःखी है। इसका केवल एक ही कारण है कि वही शरीर कर्म करता है। मानव शरीर ही ऐसा संधि बिंदु है जिससे किसी भी शरीर में जाया जा सकता है। यह चयन रास्ता है। जहां से हर तरफ जाने के रास्ते खुले हैं। जो नराधम इस शरीर को खाने-पीने, ईष्या-द्वेष, अर्थ एकत्रित करने में ही गंवा दिया वह पतित शरीर (योनि) को प्राप्त करता है। जो योग जप-तप में लगाया वह आपके जैसा शरीर प्राप्त किया।

जो व्यक्ति चतुर है। सुजान है। जन्मों जन्म का पुण्य उदय हो गया है। वह समय के सद्गुरु के साथ लग गया। वह बुद्धत्व को प्राप्त कर लिया। वही रामत्व को प्राप्त कर लिया। फिर उसकी पूजा देवता दानव-गन्धर्व सभी करते हैं। मानव शरीर से आप सभी कुछ प्राप्त कर सकते हैं। आप परम स्वतंत्र हैं। चाहे आप कोयला, लोहा, तांबा, हीरा को प्राप्त करे या आप परम पुरुष को प्राप्त कर सतलोक को प्राप्त करे। या परम पिता परमात्मा का पुत्र बन कर संपूर्ण ब्रह्माण्ड का नियंता बने।

आज मैं आप में भी सम्भावना का द्वार खोलने आया हूं। आज तक तो यही होता रहा कि आप अपना पुण्य काल भोग कर यहां से च्युत हो जाते हैं। निम्न योनि में भी चले जाते हैं। उच्चतर लोकों में जाने की सम्भावना क्षीण हो जाती है। मानव ही अपने तप के प्रभाव से इन्द्र, ब्रह्मा, विष्णु शंकर तक का पद प्राप्त करना है। जब इन देवों का पुण्य क्षय होने लगता है। तब भयभीत होने लगते हैं। जैसे पृथ्वी पर जैसे ही कोई नेता मंत्री या मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री के पद पर या किसी अधिकारी के पद पर बैठता है। तब वह अन्यों से अपने को भिन्न समझने लगता है। उसका पैर सातवें आसमान पर रहता है। जैसे जैसे उसके हटने की कालावधि समीप आती है, वह भयातुर हो विभिन्न देवी-देवताओं के मंदिर में भागने लगता है। विभिन्न तांत्रिक-मांत्रिक के चक्कर में पड़ विभिन्न प्रकार अनुष्ठान करने लगता है। परंतु अन्ततः उसे हटना पड़ता है। तब निराश हो कर सभी को झूठा प्रपंची कहने लगता है।

जो पुरुष हरिभक्ति में रहते हुए यथा-लाभ संतोष करता है। उसका आत्मिक विकास दिनोंदिन बढ़ते जाता है। वह एक दिन अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। गुरुगोविंद के दरबार से कोई भी साधक, सिद्ध रिटायर्ड नहीं होता है। किसी की सेवा का मुहताज नहीं होता है। बल्कि जगत् उसके तरफ मुखातिब होने लगता है।

मैं विभिन्न देव लोकों के परिभ्रमण के बाद यही पाया कि जो जिस लोक में है वह अपने लोक पाल की ही आराधना करता है। उन्हीं के शरणागत है। उन्हीं का गुणगान करता है। वही पूजा-पाठ सत्संग आराधना है। आप इससे अलग नहीं सोच पाते हैं। यह सोच एक तरह से बुद्धि का दिवालियापन है। आप अपने लोकपाल का आदेश माने। अपने से ऊपर देवता का भी आदर करें। आपके पास समय है। सुविधा भी दिव्य शरीर है। केवल गुरु नहीं है। आपके गुरु बृहस्पति है। वे केवल इन्द्र के सुख-सुविधा ऐश्वर्य की चिंता करते हैं। वे कर्मकाण्ड यज्ञादि कराते हैं। अपनी मदद के लिए बृहस्पति पृथ्वी से वशिष्ट, अगस्त्य को भी समय समय पर बुलाते हैं। देवराज इन्द्र से विपुल दक्षिणा लेते हैं एवं बड़ा-से-बड़ा यज्ञ कराते हैं। इन यज्ञों के पुण्य से आपका तन इन्द्रिय सबल, स्वस्थ होगा। आपके ऊपर के देवता (जिस देवता की आराधना में यज्ञ करते हैं) आप पर प्रसन्न होंगे। आपको धन-धान्य से पूर्ण करेंगे। आपको उस पद पर बने रहने का कुछ और समय का विस्तार कर देंगे। इन कर्मकाण्डों यज्ञों से आत्मा-परमात्मा का कोई संबंध नहीं है। जैसे कोई मूर्ख टूटी-फूटी नाव से सागर पार करने का दुस्साहस करता है उसी तरह का साहस है कर्मकाण्ड रूपी नाव से।

आप सभी देवगण मेरे विषय में अच्छी तरह जानते  हैं। तब आप उसका फायदा उठाएं तो अच्छा होगा। आप अपना कार्य करते रहें। आपका अपान-व्यान सम है। आप यहां तक पहुंच गये हैं जबकि मानव को सम करने में ही अधिकांश समय व्यतीत हो जाता है। अपने मन को कूटस्थ पर स्थिर रखें। फिर मन अमन हो जायेगा। तत्पश्चात् अपने सुरति (स्मृति) को गुरु पर्वत पर लाइए। वहां पर गुरु की पूजा सुरति से करें। गुरु द्वार खुला जायेगा। आप ब्रह्मा को साकार होंगे। फिर उससे ऊपर उठ जाये। मेरे द्वारा बताये गये मंत्र को हर समय सुरति में रखे। वह ब्रह्मा अपना सिर हटा देगा। आप अनन्त कोटि सूर्य सम प्रकाश को देखेंगे। भावविह्वल हो जायेंगे।

आप उठते-बैठते चलते-फिरते यही करें। अपनी पूर्ण चेतना को ऊर्धगामी बनने दें। पूर्ण परमात्मा जो सतलोक में बैठा है। उसी का भजन करते रहे। आप देव शरीर से भी उसे उपलब्ध हो जायेगें।

क्या आप सभी देव इसे अपनाने के लिए तैयार हैं ?

सभी ने सर्वसम्मत से प्रसन्नतापूर्वक स्वीकारा में आप लोगों को बहुत-बहुत

बधाई देता हूं। अब आपको देव योनि से नीचे गिरने की सम्भावना क्षीण हो

जायेगी। ऊपर उठने का प्रबल सम्भावना है।

मेरा एक और सुझाव है। आत्मामोक्ष के लिए साधना तो अवश्य करें। जगत् हित के लिए क्या करना होगा? आप अपने ही जगत् के संबंध में सोचें। यहां सूक्ष्म शरीरी आत्महंता आत्माएं जो आई हैं। या ऐसी आत्माएं जो बलात्कार में बेबस मारी गयी हैं। एक्सीडेंट में मारी गयी हैं। ये सभी मलिन चेहरे पीले पढ़ें हैं। अति दुःखी हैं। इन्हें भी मौका मिलना चाहिए।

सभी देवों ने एक साथ पूछा- इन्हें क्या किया जाए? मैंने कहा इनका परिष्कार इन्हें सत्संग करने, पूजा-पाठ करके, ध्यान करने का मौका दिया जाये। जिससे इनकी आत्मा परिमार्जित होगी। इनका मलिन संस्कार साफ होगा। जब ये मानव शरीर धारण करेंगे तब उनसे उसी पुरानी प्रवृत्ति की उम्मीद नहीं की जा सकती है। यदि बीज ही परिष्कृत कर दिया जाए तो फसल अवश्य अच्छी होगी।
 जब ये आत्माएं परिष्कृत होकर मानव शरीर में जायेंगी तो इनका कार्य, व्यवहार, सभी कुछ बदला होगा। अन्यथा ये हीन भावना से ग्रसित हैं। ये या तो पृथ्वी पर जाते ही आक्रामक होगी, बदले की भावना से कार्य करेंगी। या हीन भावना से ग्रस्ति होकर पुनः वही कार्य करेंगी जिसका परिणाम वह भोग रही है। अभी पृथ्वी-ऐसे ही लोगों से भरी पड़ी है ।।।

क्रमशः....