साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

    समय के सदगुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक की समाप्ति पश्चात सद्गुरुदेव जी की दूसरी अनमोल कृति शिव तंत्र आपके  समक्ष आज से प्रस्तुत करने जा रहे है।
   धन्यवाद ????


 ???? पुरोवाक् ????

आज के सुसंस्कृत मनुष्य के शब्द कोश में तंत्र और तांत्रिक, दोनों ही शब्द

निंदा जनक हो गए हैं। संत महात्मा ने भी तंत्र का तिरस्कार किया है। परंतु तंत्र

कहता है- आपका तन पृथ्वी का बोझ नहीं है। परम आदर के योग्य है। तन के रहस्य में उतरना ही है तन्त्र तंत्र स्थूल शरीर से यात्रा करता है। भाव, सूक्ष्म, मनोमय, आत्म, ब्रह्म, निर्वाण शरीर तक जाता है। तंत्र की बाहें फैलती जाती हैं। उसके आलिंगन में धरती, अम्बर, लोक परलोक सभी समा जाता है। तंत्र तन के पूर्ण स्वीकार का मार्ग है यह हृदय का मार्ग है। जीवन कोई समस्या

मानता है। फिर समाधान देता है। तंत्र रहस्य का आधार है रहस्यों को हम जीत

सकते हैं। हम स्वयं उसमें खो सकते हैं उससे एकाकार हो सकते हैं।

प्रार्थना, तंत्र से, ध्यान से बचने की एक तरकीब है। तथाकथित धार्मिक चित्त , ने बहुत प्रकार की प्रार्थनाएं खोज ली हैं। प्रार्थना यदि हृदय से जुड़ जाये तो वह भी ध्यान बन सकती है। ध्यान वह प्रयास है, जो स्वयं आप अपने साथ करते हैं। तब आप रूपांतरित हो जाते हैं फिर पूरा अस्तित्व आपके साथ भिन्न ढंग से व्यवहार करता है।

तंत्र ज्योति प्रदान कर आपको नव जीवन देता है। चेतना केंद्र के तरफ ले जाता है, जहां से हम अनंत आनंद को उपलब्ध हो जाते हैं। हम केंद्र से परिधि को देखते हैं। संसार स्वप्नवत दिखाई पड़ता है। भगवान शिव मां पार्वती को बहुत आत्मीयता से मन के पार जाने का उपाय बताते हैं ये उपाय ही है "विज्ञान भैरव " जिसमें एक सौ बारह विधियां हैं। प्रत्येक विधि मन को छलांग लगाने की है। पार्वती शिव का अभिन्न हिस्सा है। ये दोनों एक ही पूर्णता के दो अर्थ है इतनी घनिष्ठता में ही मन का द्वार खोलने की इस तरह की कुंजियां दी जा सकती हैं तंत्र कहता है संसार और निर्वाण दो नहीं हैं। आपकी केवल दो दृष्टियां हैं। एक दृष्टि के चलते आप संसारी हैं। यदि दृष्टि बदल जाये तो वही संसार निर्वाण बन जाता है। वही संसार परमानंद बन जाता है।

मैंने इसमें भैरव विज्ञान के कुछ सूत्रों की प्रारंभ और अंत में व्याख्या की है तथा बताया है उन्हें जीवन में कैसे उतार सकते हैं। अपने जीवन को आप तत्क्षण बदल सकते हैं। आपको कहीं जाना नहीं है। जहां हैं वहीं आप किसी एक विधि को अपने जीवन में उतार लें। यह आप पर निर्भर करता है। गुरु व्यक्ति के अनुसार तंत्र प्रदान करता है। गुरु की उपस्थिति में साधना का विकास तेजी से होता है।
     हिमालय यात्रा के अन्तर्गत कुछ तंत्र साधनाएं मेरे द्वारा शिष्यों को कराई गई हैं। आत्मशरीरी आत्माओं ने जो कुछ भी बताया, वह मैंने कराया वह उद्धित है। औघड़ की तंत्र साधना, योगी का परकाया प्रवेश, ब्रह्म पिशाच की आत्म-कथा तार्किक के लिए कल्पना हो सकती है। साधक श्रद्धालु के लिए रहस्यमय यात्रा का द्वार खोल सकती है।

भगवान शिव का औघड़, साधक, कौल तंत्र अभिशप्त हो गया। पंच मकार में फंसकर रह गया।

वैष्णव तंत्र, सात्विकता का प्रतीक रहा है। देव, यक्ष, राक्षस, एवं मानव की संस्कृतियां थीं, सभी समान रूप से विकसित हुई। स्थान विशेष, समय विशेष व्यक्ति विशेष के अनुसार इनका विकास हुआ। मानव संस्कृति ही सर्वोत्कृष्ट है। आप एक चौराहे पर हैं। जहां से चारों ओर जाने का द्वार खुला है। सभी आपको अपनी तरफ आकर्षित करना चाहते हैं। यही कारण है कि हम संसार में पद प्रतिष्ठा की तरफ आकर्षित होकर परमात्मा की तरफ जाने का रास्ता भूल जाते हैं। हमारा भटकाव शुरू हो जाता है। समय का सद्गुरु संसार को परिधि पर रखकर परमात्मा को केंद्र पर रखकर आपके अनंत आनंद का द्वार खोल देता है। जहां आप स्वयं परमात्मा ही हो जाते हैं फिर समस्त सृष्टि आपका ही विस्तार है, ऐसा अनुभव होने लगता है।

विश्वमित्र के गायत्री छंद के आविष्कार और उनके द्वारा धरती के लिए आविष्कृत वस्तुओं का भी वर्णन किया गया है। जब साधक केंद्र में स्थित रहेगा तब वह अंदर से अकर्म में रहेगा। उसके बाहर वृक्ष के तरह कर्म के फूल-फल लगेंगे। भगवान कृष्ण का सांख्ययोग, स्वभाव में स्थित होना तथा स्वभाव ही ओंकार है की विधि व्यावहारिक स्तर पर प्रदान की गई है। योग युक्त होने की कला, परम पिता में ही सब देखने की कला भी इसमें प्रदान की गई है। यदि इससे आपको साधना के पथ पर कुछ भी लाभ हो तो मैं अपना लेखन सार्थक समझंगा । यदि कहीं आपकी भावना को ठेस पहुंचती है तो उसके निवारण हेतु सुधार किया जा सकता है। साधना के पथ पर चलने वाले साधकों से मेरा निवेदन है कि तंत्र की किसी एक विधि को अपने भीतर उतार लें। उस परम चैतन्य को स्वीकार कर लें। यही मेरी कामना है। आप सभी के अंतःकरण में वह परम शिव बैठा है जिसे मेरा नमन है।

धन्यवाद

स्वामी कृष्णानन्द जी महाराज

सद्गुरु धाम आश्रम एच-243, कुंवर सिंह नगर, निलौठी मोड़, नांगलोई,

fecit-100041

दूरभाष न. 011-28361513, मो. 09868886830


    ????  तंत्र ????

      तंत्र शब्द अति प्राचीन है। यह अत्यन्त ही महत्व का है। साधारणतः इस शब्द सुनकर लोग चौंक जाते हैं। साधारण लोग "तंत्र" शब्द सुनते ही श्रद्धावत् हो को जाते हैं या अन्दर से भ्रम उत्पन्न होने लगता है। आखिर ऐसा क्यों ? भारतीय मनीषी किसी शब्द को गढ़ने में, बनाने में वर्षों का समय व्यतीत कर देते थे। कुछ समय तक तंत्र शब्द ऐसे ही तथाकथित महात्माओं, संन्यासियों के चंगुल में फँस गया था। जहाँ इसे नेकनामी कम, बदनामी ज्यादा हाथ लगी। यह समय इसके लिए अत्यन्त दारुण रहा। यह समय आज से 200 वर्ष पूर्व से 1000 वर्ष पूर्व का था, जिस समय अविद्या के साधकों की बाहुल्यता हो गयी थी। तथाकथित चमत्कार दिखाकर सीधे-सादे जनसाधारण का शोषण करने का साधन मात्र बनकर रह गया था। इस कला से जनसमूह का कल्याण करना कम, शोषण करना ज्यादा हो गया था। इन परिस्थितियों में इसका विकृत रूप देखकर जनसाधारण का सशंकित होना स्वाभाविक ही था। इसी से "तंत्र" सर्वग्राह्य, या सम्यक नहीं बन सका। जबकि तंत्र की प्रत्येक मानव के जीवन में उतनी ही आवश्यकता है, जितनी भोजन, कपड़ा और आवास की। यह स्त्री-पुरुष सबके लिए समान रूप से अत्यावश्यक है। अब हम "तंत्र" शब्द का अर्थ समझें-

"तंत्र" - "तंत्र वाऽयात् तारयेत् यस्तु सः तंत्र परिकीर्तितः ।" यानी जड़ता से जो त्राण दिलाता है, वह तंत्र है। यानी जो कल्याणकारी है एवं जड़ता के फाँस से मुक्त करता है, चेतनता लाता है, वह "तंत्र" है। यह संस्कृत के तन् धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है-प्रसारित होना, विस्तार होना। यानी जिस विधि से, पद्धति से आत्म-विस्तार होता है, उसी का नाम "तंत्र" है। अब यह समझ लें कि मुक्ति के लिए जिस भी विधि का प्रयोग किया जाता है वह तंत्र कहलाता है। तंत्र पर व्याख्या करना अत्यन्त दुरुह है। इसे तो जाना जा सकता है, विधि से। "तंत्र" में व्यावहारिक पक्ष ही महत्वपूर्ण है क्योंकि इसका सूत्रपात होता है शरीर से। इसका अनुशीलन होता है मन से। इसी के द्वारा अन्त में मन एवं आत्मा के सम्बन्ध से परमपिता में प्रवेश किया जा सकता है।
      मुक्ति के लिए, मोक्ष के लिए, निर्वाण के लिए जिस विधि को, जिस उपाय को अपनाया जाये, उसे ही "तंत्र" कहते हैं। यह उपाय एक तरह की साधना ही है। साधना के लिए गुरु-शिष्य की अत्यन्त आवश्यकता है। गुरु दिव्य शक्तियों का स्रोत होता है या दिव्य स्रोत से सम्बन्धित होता है। जो पावन शिष्य को अपने से सम्बन्ध कराने में समर्थ होता है। इस "तंत्र" के आदि गुरु सदा शिव हुए उन्होंने इसकी 112 विधियां दी हैं। जैसे अलग-अलग रोग के लिए अलग-अलग दवायें हैं, उसी तरह अलग-अलग व्यक्ति के लिए अलग-अलग विधियाँ हैं। यह विधि व्यक्ति विशेष या स्थान विशेष, समय विशेष पर निर्भर करती है। इस तरह युग-युग से फैले हुए अन्धकार रूपी व्यवधानों की गंगा को इसी तंत्र रूपी साधना की पतवार से पार कर सकने की अक्षय सामर्थ्य आप में भी है। वह सामर्थ्य सूक्ष्म रूप में सोयी हुई है। वह बीज रूप में पड़ी है। वह जड़ता की अवस्था प्राप्त कर चुकी है। उसे उस जड़ता के अभिशाप से मुक्त कर देता है - सद्गुरु । सद्गुरु अन्धकार से प्रकाश की ओर, स्वार्थ से परमार्थ की ओर, काम से ब्रह्मचर्य की ओर, ममता से वैराग्य की ओर चलने वाली भावधारा को शिष्य में उत्पन्न कर देता है।

"तंत्र" मूलतः भारतीय खोज है। शुरू-शुरू में लोग जंगलों में असंगठित रूप से रहते थे। बाद में समय एवं आवश्यकता के अनुसार गोष्ठीबद्ध होने लगे। यह गोष्ठी अपने बचाव, रक्षा के लिए बनी। साथ ही विभिन्न गोष्ठियों में बार-बार लड़ाई-झगड़ा होने लगा, क्योंकि उदर-पूर्ति के साधन कम पड़ने लगे। इस तरह एक खास वर्ग का विशेष उदय हुआ जो संग्राम का नेतृत्व कर सके। कालान्तर में यही लोग क्षत्रिय कहलाये । समयानुसार इन्हें मानसिक शान्ति या ज्ञान की आवश्यकता महसूस हुई। जो ज्ञान की बातें करे एवं नये-नये आविष्कार करे तथा उसे जीवनोपयोगी बनाये, उस समय उसे ही ऋषि कहा गया। ये निस्सन्देह जन-साधारण की तुलना में श्रेष्ठ होते थे। लोग उनका आदर करते, उनके आगे सिर झुकाते थे। उनका नियम-कानून लोग मानने को बाध्य होते गये, तथा बाद में सभी लोगों ने अपने को किसी-न-किसी ऋषि से जोड़ लिया। जिसे अब गोत्र के रूप में देखा जाता है। यह भी सत्य था कि वे व्यक्ति जो मनन करते थे, मुनि कहलाये, साधारण व्यक्ति नहीं थे। वे अपने ज्ञान-विज्ञान की अच्छी बातों को जन-साधारण को सुनाते बताते थे। लोग उसे सुनकर याद कर लेते थे। इसी से इसे कालान्तर में श्रुति कहा गया। यही ज्ञान वेद कहलाया। वे ऋषि अपने ज्ञान से अलौकिक वस्तुओं एवं शक्तियों को देखते रहते थे। सुअवसर एवं सुपात्र को देखकर उसे बता देते थे। वे ऋषि इन वाक्यों या मन्त्रों के दृष्टा थे। जो बाद में वेद रचयिता न कहलाकर दृष्टा कहलाये। जो रचना करता है वह रचयिता कहलाता है। जो देखता है दृष्टा है। इसी से वेद के रचनाकार को ईश्वर कहा गया। यह भी सत्य है कि उस समय तक आध्यात्मवाद या तंत्र का विकास ठीक ढंग से नहीं हो पाया था। उन्हें जिस चीज की आवश्यकता पड़ती वे उनकी प्रार्थना करना शुरू कर देते । ज्यादा स्तुति प्रकृतिजन्य है जैसे जंगलों की रक्षा के लिए, चूँकि वे पूर्णतः जंगलों एवं पशुओं पर ही निर्भर थे। अतएव बादल की स्तुति, वृक्ष की स्तुति करने लगे। बाद में इन गोष्ठियों के ऋषियों का सम्बन्ध देवताओं से हो गया। उस समय तक विभिन्न संस्कृति का विकास हो गया था स्थान विशेष समय विशेष के अनुसार देव संस्कृति, रक्ष संस्कृति, गन्धर्व संस्कृति और मानव संस्कृति का विकास हुआ। इनमें मानव एवं रक्ष संस्कृति की बहुत माने में समानता थी। ये दोनों व्यक्तित्व के विकास, पौरुष एवं कर्तव्यपरायणता पर विश्वास करते थे। रक्ष संस्कृति के लोग अत्यन्त पराक्रमी, साहसी एवं नैतिक हुए। जिन्हें बाद में उच्च विचारों एवं पराक्रम के चलते रक्षा का दायित्व दिया गया। ये ही समयानुसार राक्षस कहलाये। ये मानव के साथ मिलकर रहने लगे तथा नित नये-नये आविष्कार करने लगे। उन्हीं आविष्कारों में पृथु के द्वारा पृथ्वी पर कृषि करने का आविष्कार हुआ। उस समय के लिए यह अत्यन्त ही महत्वपूर्ण आविष्कार था, परन्तु प्राकृतिक आपदा हावी होती थी जिसके चलते ऋषियों ने तूफान को देवता माना वज्र, विद्युत, सूर्य, चन्द्र को देवता माना एवं उनकी स्तुति की। वर्षा नहीं होने पर यज्ञ का सूत्रपात हुआ, जिससे ऐसा ज्ञात हुआ कि यज्ञ से धुआँ होगा, बादल बनेगा एवं वर्षा होगी। अपनी प्रिय से प्रिय वस्तु को यज्ञ के माध्यम से हवन कर उस अज्ञात शक्ति को खुश करने की पद्धति का भी श्री गणेश हुआ। इसी तरह सन्ध्या, जो रात्रि का अन्धकार लाने की सूचक थी उसकी भी स्तुति की गयी, रात्रि की भी भय से मुक्ति के लिए स्तुति की गयी तथा प्रातःकाल जो दिन होने का, प्रकाश लाने का सूचक था, उसकी भी स्तुति की गयी।????

क्रमशः.....