साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

गुलाब के फूल के द्वारा साधना

     कुछ साधकों में आतुरता थी। उनके चेहरे पर जानने की जिज्ञासा थी । अतएव शान्त चित बैठकर आदेश की प्रतीक्षा में थे। मैं बोला आप सभी परमपिता परमात्मा की सन्तान हैं। जहाँ आप बैठे हैं वह सिद्ध स्थान है। इसके विपरीत नज़दीक ही गुरु गोविन्द जी तप किये। लक्ष्मण जी तप किये। शंकर पार्वती तप किये। बदरी-व्यास तप किए। सैकड़ों, हजारों महात्मागण तप किये एवं आज भी कर रहे हैं। यह तपस्वियों की स्थली है। पर्यटकों की नहीं। पर्यटन से इन स्थानों की कीमत घटी है। पर्यावरण पर बुरा प्रभाव पड़ा है। आप अपने चारों तरफ का दृश्य एक बार ठीक से देख लें। आपके चारों तरफ ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ हैं। नदी के संगम पर आप बैठे हैं। नदी का संगम, पर्वत की ऊँचाई, ऋषि का तपस्थल, समीप हनुमान मन्दिर, घोर जंगल, वायु की शीतलता, खिले हुए गुलाबों के बीच में आप बैठे हैं। सामने गुरु बैठा है। इसमें से एक ही का होना साधक के लिए पर्याप्त है। जहाँ ये सभी एकत्र हो गये हों वहाँ क्या पूछना है? अब आप गुलाब के फूल को देखें। देखते ही जायें। कितना मधुर है? कितना सुन्दर ? मानों आपका स्वागत कर रहा हो। आपके स्वागत में वह सदियों से खड़ा मुस्कुरा रहा है। पता नहीं कब आप आ जायें। यह और कुछ नहीं आपका ही खिला हुआ चेहरा है। इसमें आप अपना हो प्रतिबिम्ब देख रहे हैं।

प्रथम चरण - अब आप आँख बन्द कर लें। ध्यान करें। प्रति श्वास में आप ऊर्जा ले रहे हैं। अब आप भावना करें। आप ही गुलाब के फूल हो। बिल्कुल सफेद। आप हँस रहे हो। मुस्कुरा रहे हो। मुस्कुराहट से पूरा शरीर ही खिल गया है। अब आप पुष्प रूपी शरीर का निरीक्षण करो। आप में ही हरी पत्तियाँ लगी है। डाल हैं। तने हैं। तना नीचे जा रहा है। जड़ से मिल रहा है। जड़ हिमालय पर्वत से जुड़ा है। हिमालय पर ही अन्य वृक्ष है। जंगल हैं। इसी से नदी निकली है। नदी का शीतल जल कलरव करता हुआ। इसी से यहाँ का वायुमण्डल ठण्डा है। शान्त है। आप का विस्तार बढ़ रहा है। आप ही हिमालय हो। आप से ही ये नदियाँ निकली हैं। इन नदियों की गड़गड़ाहट और कुछ नहीं आपका ही अन्तरतम का अनाहद है। यह जल और कुछ नहीं आपके ही अन्दर का बहता हुआ अमृत रस है। ये पर्वत आपके सिर जंगल आपका केश। यह सब आपका ही विस्तार है। आप अपने विस्तार को ठीक से देख लो।

द्वितीय चरण- अब अपने शरीर रूपी पर्वत की कन्दराओं में देखो गुफा का अवलोकन करो। सारे देवगण, ऋषिमुनि आपकी ही गुफा में आश्रय लिए हैं। तप कर रहे हैं। देखो आपको आज तक पता नहीं। जीवन में प्रथम बार देख रहे हो। जिनके लिए रामायण, गीता, पुराण, कुराण, वेद, वेदान्त पढ़ते हो। तीर्थ यात्रायें करते हो। वह कहीं मिला नहीं। वह आपकी ही कन्दरा में है। आप केवल अवलोकन कर लो । किसी से बातें मत करना। हाँ नमस्कार कर लो। दण्डवत कर लो। आगे देखते जाओ। आपका ही विस्तार है मानों पूरी सृष्टि अपने विस्तार पर ध्यान दो। सूर्य अस्ताचल को जा रहा है। आप अपना विस्तार देखकर प्रेम से ओत-प्रोत हैं। प्रेम रस नदी की धारा बन गयी है। फूल की मुस्कुराहट बन गयी है। हृदय शुभ हो गया है। पर्वत पर स्थित बर्फ आपकी शीतलता का प्रतीक है।

तृतीय चरण- इस चरण में आप अपने सृष्टि का अवलोकन करें। अपने में खिचें, धीरे-धीरे । प्रत्येक साधना का प्रत्येक चरण दस मिनट से 15 मिनट का होगा। अब आप पर्वत, कन्दरा, जंगल को अपने में लय होते देख रहे हैं। सभी का लय धीरे-धीरे गुलाब में हो रहा है। गुलाब का भी लय आप में। आप गुलाब की तरह हँसते हुए हैं।

चतुर्थ चरण - अन्तिम चरण में आप गुलाब के फूलों का ध्यान त्रिकुटी पर स्थिर करें। ध्यान करें। बिल्कुल सफेद । ज्योति स्वरूप बन रहा है। वह परम प्रकाश का रूप ग्रहण कर रहा है। मुंह में खेचरी का रस लग रहा है। शीतल। कान में नदी का अनाहद आ रहा है। विभिन्न वाद्य की तरह । आप समाधिस्थ हैं। श्वास बाहर आ रही है तो मानो पूरा कष्ट, कुवृत्ति बाहर आ रही है। अन्दर क्या है? आनन्द । अन्दर है- शान्ति परमशान्ति धीरे-धीरे गुरु को, परमपिता परमात्मा को प्रणाम करते हुए आँख खोलो। यह क्षण अत्यन्त पुनीत है। सम्भवत: आपके जीवन में दोबारा नहीं आये। समय अपने को दोहराता नहीं है। वह निरन्तर आगे बढ़ता जाता है। शान्ति शान्ति शान्त ।

सभी शान्त थे। खुश थे। मस्ती में उठे। मैं भी उठा चल दिया। एक साधक एकान्त देख कर बोला गुरुदेव गजब हो गया। मैंने तो अपने ही कन्दरा में ब्रह्मा, विष्णु महेश को देखा। वे हमें बुला रहे थे वर माँगने को कह रहे थे। मैं बोला गुरु देव सामने बैठे हैं। आपसे बात नहीं करना है। मात्र आपको नमस्कार करना है बहुत सारे ऋषि-मुनि सशरीर मिले एक ऋषि कहे कि तुम धन्य हो तुम्हारे गुरु ने क्षणभर में तुझे क्या से क्या कर दिया। तू तो उम्मीद भी नहीं था। इस तरह दूसरा साधक बोला कि गुरुदेव हम तो कृष्ण का ही विराट रूप सुनते थे। आज अपना भी विराट रूप देख लिया। अपने-अपने पहुँच के अनुसार उन लोगों का अपना-अपना अनुभव था। यह अनुभव साधक की पात्रता पर निर्भर करता है। बादल तो बरसता भर है। अब जल चाहे पर्वत रखे या नदी या समुद्र। बादल बरस लिया। वही स्थिति साधक की होती है। गुरु तो मात्र वर्षा करना जानता है। उस वर्षा के पानी को अपने-अपने पात्र के अनुसार, सामर्थ्य के अनुसार रोकना आपका काम है। कुछ साधक के पास पात्र तो सुन्दर हैं। साफ भी हैं। परन्तु उसके पेंदे में छेद है। जो भी बरसता छिद्र से बाहर निकल जाता। कुछ के पात्र बाहर से कुरूप हैं। परन्तु अन्दर से साफ हैं, ठीक हैं तब वही जल ग्रहण कर सकता है। अतएव साधक अपनी पात्रता ठीक से बना दे। यदि पात्र सुपात्र है तब हरि दर्शन अवश्य ही होगा। यह आप पर निर्भर करता है।

????पितृगण, ऋषि एवं देवगण दर्शन????

     मैंने कुछ साधक गण के साथ गोविन्दघाट से यात्रा 4 जून को 5.00 बजे प्रारम्भ की एवं हेम कुण्ड साहब दर्शन कर सन्ध्या 8 बजे लौट आया। रात्रि विश्राम कर 5 जून को प्रातः नित्य क्रिया से निवृत्त होकर पूजा-पाठ किया तथा 7:30 बजे बद्रीनाथ के लिए यात्रा प्रारम्भ किया। 9 बजे सुबह बद्रीनाथ पहुँचा तथा सतपाल जी की धर्मशाला में रुक गया। वहाँ रुकने की व्यवस्था ठीक थी। विष्णुपद मन्दिर का दर्शन किया। सन्ध्या समय आगे गर्म कुण्ड में स्नान किया। बद्री विशाल को प्रणाम कर सन्ध्या किया। 6 जून को प्रातः सैनी जी अपने परिवार के सदस्य के साथ हेमकुण्ड से लौटे चूँकि वे लोग चल नहीं सके। इससे ज्यादा समय लगा। जब कि साथ ही गये थे। आज प्रातः गर्मकुण्ड में स्नान कर बद्रीनाथ का दर्शन किया। बद्रीनाथ के मन्दिर में पीछे उसी प्रांगण के बरामदे में सभी साधकगण को साधना कराया गया। मैं जब साधना में था तब यह साधना स्वयं अवतरित हुई। बोली, स्वामी जी ! आप के नजदीक सारी साधनायें स्वयं आनी चाहती हैं चूँकि आपसे ही लोक मंगल सम्भव है। और सब लोग तीर्थयात्री बन पाप-पुण्य लिहाज से आते हैं। तप के लिए, साधना के लिए कोई आता ही नहीं। यहाँ जितने के आश्रम बने हैं। अधिकांश किसी-न-किसी दुकानदार के हैं। वे भी स्थान विशेष पर आकर अर्थ कमाना चाहते हैं। उनको धर्म से कुछ भी लेना-देना नहीं है। उनका लेन-देन मात्र धन से है। धन-हीन व्यक्ति धर्म को कैसे उपलब्ध होगा।होगा वही जो स्वयं सिद्ध सद्गुरु कबीर की तरह होगा। चरखा ही जीवन पालन का साधन होगा। परन्तु यहाँ के महात्मा का जीवन-पालन का साधन बद्रीभगवान ही हैं। सभी किसी-न-किसी दान पर निर्भर हैं। इनकी स्थिति अमर बेल की तरह है। मैं चुप सुन रहा था एवं साधना को आत्मसात् किया।

सन्ध्या समय दो सरदार जी को छोड़कर सभी को लेकर व्यास गुफा पहुँच गया। जहाँ एक छोटा-सा 'माना' गाँव है जो अन्तिम भारतीय गाँव है। इसी पर्वत के बाद चीन शुरू हो जायेगा। वहीं मिलिट्री भी रहती है। गणेश गुफा का दर्शन किया। व्यास गुफा में कुछ काल ध्यान किया। वहीं से सरस्वती निकलती है। जो अलकनन्दा में मिलती है। कुछ ही दूरी पर भीम पुल है जहाँ से भीम जी स्वर्ग यात्रा किये थे। यही भू-भाग स्वर्ग है। यहाँ से चीन, तिब्बत को भी यात्रा की जा सकती है। त्रिवीष्टक (तिब्बत) ही स्वर्ग की राजधानी थी। जहाँ के राजा देवेन्द्र थे। इसीलिए यह भू-भाग देवताओं का था। अलकापुरी जाना चाहते थे परन्तु समयाभाव के चलते नहीं जा सके। वहीं से अलकनन्दा निकली है। देवेन्द्र बहुत काल वहाँ भी रहे हैं। हम लोग गणेश गुफा में आ गये। वहाँ का पुजारी अन्दर कम्बल वगैरह बिछा दिया। उससे कहा गया कि आप एक घण्टा किसी को अन्दर मत आने दो। न ही शोर-गुल हो। ये लोग गणेश से मिलेंगे। ऐसा वर्णन आता है। कि वेद व्यास जी श्रीमद् भागवत की रचना के लिए गणेश जी को आमंत्रित किये तब गणेश जी यहाँ प्रकट हुए थे। गणेश जी कहे कि हम लेखन का कार्य तो कर दें परन्तु एक शर्त है कि आप रुकेंगे नहीं। वेद व्यास जी सोच में पड़ गये। बिना सोचे-समझे कैसे पुराण की रचना की जायेगी। अतएव बोले कि ठीक है। मेरी भी शर्तें है आप बिना सोचे-समझे श्लोक नहीं लिखेंगे। दोनों ने शर्तों में आबद्ध हो श्रीमद्भागवत पुराण की रचना की।

प्रथम चरण- सभी साधक को गणेश के नजदीक बैठने के लिए कह दिया। अधिकांश सभी को यहाँ की जानकारी दी गयी। यहाँ स्वर्ग है आपके पितृगण यहाँ निवास कर रहे हैं। यहीं से अन्तिम पिण्ड लेने हैं। यही देवस्थल है। देवगण सूक्ष्म शरीर में रहते हैं। ऋषि तप में हैं, वे भी यहीं सूक्ष्म शरीर में हैं। वेद व्यास जी, गणेश जी भी यहीं हैं। पाण्डव यहीं से अन्तिम स्वर्गारोहण किये थे। उनकी भी आत्मायें यही हैं। ये सभी सूक्ष्म शरीर में तप कर रहे हैं। स्वयं बद्रीनाथ भी यहीं तप कर रहे हैं। एक तरफ का पर्वत नर है। जो व्यक्ति तप करता है वह नर कहलाता है। तथा नर पर्वत तप से ही नारायण बन जाता है यानी दूसरे तरफ आ गया। नारायण पर्वत यह कार्य क्षेत्र नहीं, तप क्षेत्र है अलकापुरी से लेकर त्रिवीष्टक तक का भाग स्वर्ग भूमि है। यानी भोग भूमि है। आप सभी आँख बन्द कर लें।ध्यान करें। भावना करें। आप हिमालय के सिद्ध पर्वत पर नारायण की तरह अकेले तप में हैं। आपके बगल में ही गणेश जी हैं। महर्षि वेद व्यास जी हैं। चारों वेद हैं। अठारह पुराण हैं। अलका एवं सरस्वती का संगम है। आप ध्यानस्थ हैं। परम प्रकाश स्वरूप है। बस प्रकाश ही ऊर्जा ही। अब आप शरीर से बाहर निकल शरीर को देखें, अलग से। शरीर बैठा है ध्यान में मात्र साक्षी भाव से देखें। अब आप सूक्ष्म शरीर में हैं। सूक्ष्म शरीर की गति मानस गति हो जाती है। शरीर को निश्चित होकर छोड़ दें। अब आपके आस-पास सूक्ष्म शरीर धारी देवगण, ऋषिगण, पितृगण नज़र आ रहे हैं। मात्र देखें। बातें नहीं करना है। सभी आपके आस-पास हैं। अब आप अपने वर्तमान परिवार की तरफ चलें अपने घर पर। देखें आपकी तथाकथित पत्नी क्या कर रही है। बच्चा क्या कर रहा है? पिता जी, भाई क्या कर रहे हैं ? आपसे इनका क्या सम्बन्ध है? देख लें। इनसे भी बातें नहीं करना है। अलग से दृष्टा बन कर देख लें। अपने मन का भ्रम मिटा लें कि आपके बिना यह सांसारिक परिवार नहीं चलेगा। यहाँ आपके लिए कोई चिन्तित नहीं है। सभी सुख से हैं। आपसे सम्बन्ध मात्र अर्थ से है। काम से है। लोभ के कारण है, और कोई सम्बन्ध नहीं है। सावधान होकर देखें एवं एक-एक व्यक्ति से मिलें। अपने घनिष्टतम मित्र से मिलें। पड़ोसी से मिलें। आपके लिए कोई चिन्तित नहीं है। आप नाहक चिन्तित हैं। सभी से मिल लिए आप अब परिवार के लोगों के मंगल हेतु मंगल कामना करें। आशीर्वाद न दें। अन्यथा एका-एक शक्ति निकल जायेगी। मंगल कामना करें।

दूसरा चरण-अब आप अपने परिवार से वापस आ जायें। जहाँ आपका शरीर बैठा है। प्रत्येक चरण समयानुसार 10 मिनट से 15 मिनट का होगा। आप अपने शरीर को ठीक से एक बार देख लें। शरीर सुरक्षित तो है न । तत्पश्चात् आप अपने पितृगण का आह्वान करें। हाँ आपके आह्वान मात्र का विलम्ब था। वे आपके नजदीक आ गये आप ठीक से लें। उन्हें प्रणाम करें। सूक्ष्म ढंग से पूजन करें। शोषोपचार विधि से पूजन करें। पिण्ड दान दें। उत्तम पिण्डदान विधि यही हो सकती है और तो कुछ खास लोगों की दुकानदारी है। आप पिण्ड दान दें। पुष्प, मिष्ठान, नैवेद्य दें। वे भी आप से मिलकर अतिप्रसन्न है। आप भी आप उनके मंगल की कामना करें। वे आपको आशीर्वाद देंगे। अब आप यथाशक्ति 1 पूजन, भोजन, अर्चना कराकर दान देकर विदा कर दीजिये। आप कहे हे मेरे पितृगण आप हमारी चिन्ता न करें। आप अपने लिए तप करें। मुझे भी तप करने की शक्ति प्रदान करें। आप अपने गंतव्य स्थल को प्रस्थान करें। तप में ही प्रवृत्त होना श्रेयस्कर हमें भी शक्ति दें। साहस दे यही हमारी आपसे प्रार्थना है। आप दण्डवत करें।
 तीसरा चरण-अब आप वेदव्यास जी से मिलें। देखें वेदों के साथ बैठे हैं। अपूर्व विद्वान भगवान् विष्णु के अवतार बिल्कुल आपके समीप हैं। उनके नजदीक ही गणेश जी बैठे हैं। शान्त, लाल शरीर, लम्बा सूँड। उनका वाहन मूषक भी बगल में बैठा है। पहले आप गणेश का पूजन करें। षोडश विधि से पूजन कर प्रणाम करें। तब व्यास जी को इन्हें भी पितृगण की तरह सभी चीजें अर्पित करें। याचना न करें। अब आप हिमालय में तप कर रहे ऋषिगण से मिलें। सभी का पूजन-अर्चन करें। अब आप ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर से मिलें। देखें पर्वत के ऊपरी भाग पर शंकर पार्वती के साथ कीर्तन कर रहे हैं। आप उनका पूजन करें। बातें करने की कोशिश न करें। न ही याचना की याचना भिखारी करता है। इसी तरह नारायण पर्वत पर भगवान विष्णु से मिलें। वे भी लक्ष्मी के साथ तप में हैं। उनका भी पूजन करें। मंगल की कामना करें। ब्रह्म पर्वत पर ब्रह्मा से मिलें। वे भी सरस्वती के साथ बैठे हैं। उनका भी पूजन करें। धीरे-धीरे क्रमश: यह चरण पन्द्रह मिनट का होना चाहिए। आप सभी देवगण से मिल लिए। स्वर्ग में इन्द्र से मिल सकते हैं। इन्द्र राजा है। अतएव जगह-जगह दरबान हैं। उन्हें भी दण्ड प्रणाम करें। पूजन कर ही इन्द्रपुरी घूमें। देखें देवेन्द्र शनि के साथ बैठे हैं। सारे देवता आस-पास बैठे है आप सभी का सामूहिक रूप से पूजन करें। अर्बन करें देवेन्द्र से आदेश ले उनका लोक घूम सकते हैं। उनके द्वारा अधिकृत व्यक्ति के साथ घूम लें। देख लें जो पुराणों में लिखा है यह कहाँ तक सत्य है। देवपुरी है। यहाँ नृत्य है। भोग है। अतएव आप घूमकर देख कर वापस आयें। जहाँ आपका शरीर आपका इन्तजार कर रहा है।

चौथा चरण-अब आप सभी से मिल चुके। सांसारिक परिवार से, मित्रगण से, देवगण से, ऋषि- महर्षि से अब आप का मोह बन्धन दूर हट गया। आप नजदीक से सभी को देख लिए हैं। अब पढ़ने की जरूरत नहीं। सुनने की आवश्यकता नहीं। जो प्रत्यक्ष देख लेता है उसे पढ़ने-सुनने की क्या जरूरत? आप अपने निर्मल स्वच्छ शरीर में प्रवेश करें। जहाँ से लोक मंगल कार्य किया जाये। परम पिता परमात्मा को साकार किया जाये। अब आप शरीर में प्रवेश कर गये। शरीर में हलचल आ गयी। श्वास से गुरु का, परमपिता परमात्मा का प्रकाश स्वरूप, प्राण ग्रहण करें। हृदय को प्राण से भर दें। आप हृदय में रुकें। हृदय से श्रद्धा उत्पन्न हो रही है। वह श्रद्धा प्रेम का रूप ग्रहण कर रही है। वही प्रेम पूरे शरीर में फैल रहा है। प्रेम रस जैसे-जैसे पूरे शरीर में फैल रहा है। वैसे-वैसे शरीर पुलकित हो रहा है मानो शरीर प्राण से, प्रेम से भर गया। सारे कष्ट बाहर आ रहे है। आप निर्मल स्वरूप शान्त हो रहे हैं। आपका स्वभाव ही शान्त था। अशान्ति तो बाहर से आयी थी निकल गयी। आप प्रसन्न हैं। धीरे-धीरे हृदय से प्रकाश पुंज ऊपर आ रहा है। क्रमशः ऊपर उठ रहा है। अब त्रिकुटी पर आकर रुक गया। आप वहीं ध्यानस्थ हो जायें। यही प्रकाश ज्योति आपको ऊपर ब्रह्माण्ड की यात्रा करा देगी। अतएव यहीं ध्यान करें। गुरु मन्त्र का स्मरण करें। गुरु को, परम पिता परमात्मा को धन्यवाद देते हुए, प्रणाम करते, प्रफुल्ल चित्त आँखें खोलेंगे। अब आप वह नहीं हैं जो एक घण्टा पहले थे। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्ति ।

अनुभव - एक साधक कहने लगा कि स्वामी जी गजब हो गया। मैंने तो सोचा ही नहीं था। मैंने ध्यान में घर जाकर अमुक-अमुक आदमी को अमुक-अमुक काम करते, बातें करते देखा सुना। बिल्कुल प्रत्यक्ष मैं उन लोगों को देख रहा था। सुन रहा था। वे हमें नहीं देखे। जब पितृगण से मिलने को हुआ तो हमारे घर-परिवार में जो भी मरा, सभी आ गये। बिल्कुल उसी रूप में, वे हमसे बातें करना चाहते थे परन्तु मैंने कहा कि सामने गुरुदेव बैठे हैं। उनका आदेश नहीं है। मैं पिण्डदान दे रहा हूँ। आप स्वीकार करें। वे खुशी से स्वीकार किये। अत्यन्त प्रसन्न थे इसके बाद मैंने देखा सारे ऋषि वेद व्यास, गणेश, देवगण सभी हमारे इर्द-गिर्द बैठे थे। वे बोले-बोलो, कैसे आया? क्या चाहिए? मैंने यों ही दण्ड प्रणाम कर पूजा किया। कुछ नहीं बोला उन्हें भी आपकी तरफ इंगित किया। वे बोले-तुम धन्य हो जो ऐसा गुरु मिल गया। तुम्हारे जन्मों की साधना मिनटों में करा दी। अन्यथा तू अभी कहाँ कहाँ भटकता। यह तुम्हारा पूर्व जन्म का पुण्य ही है कि सद्गुरु से भेंट हो सकी। यह क्या है स्वामी जी ? जो मैं सोच भी नहीं सकता था । उनसे मिल लिया वह भी वैसे जैसे समानता का भाव हो। अब हमारा मोह स्वर्ग-नरक का, पाप-पुण्य का, लोभ-मोह का जाता रहा है। अब मात्र ध्यान को जी चाहता है और कुछ भी नहीं। बस ध्यान। अब मैं शान्त हूँ। प्रसन्न हूँ।

क्रमशः....