साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
चन्द्रवंश
चन्द्र कहने से आकाशीय चन्द्रमा की तरफ ध्यान जाता है। परन्तु ऐसा नहीं है, चन्द्रमा अत्रि ऋषि के पुत्र थे। ये अत्यन्त पराक्रमी थे। चन्द्र यानी अत्रि एवं कश्यप जी प्रारम्भ काल में पास-पास रहते थे। अतएव चन्द्रवंश का देवगण से सम्बन्ध सहज स्वाभाविक हो गया। अत्रि चन्द्रमा को पढ़ने के लिए देवताओं के गुरु बृहस्पति के यहाँ भेज दिए। बृहस्पति देव गुरु थे। अतएव इनका चरित्र भी देवतागण से मिलता-जुलता था। कहावत है यथा गुरु तथा शिष्य। महाभारत के अनुसार इनकी बड़ी पत्नी का नाम यशस्विनी तथा सबसे छोटी पत्नी का नाम तारा था। यह हरिवंश पुराण में भी है। खैर ऐसा ज्ञात होता है कि बृहस्पति वृद्धावस्था में तारा से सम्बन्ध किये थे। अत्रि पुत्र चन्द्र जब पढ़ने देवलोक (देव राष्ट्र) गये तब वे लोग अपने स्वभाव एवं आचरणवश चन्द्रमा के स्वागत में लग गए। इस कार्य में बहुत-सी देव कन्याएँ, स्त्रियाँ लग गर्यो। चूँकि अत्रि भी बहुत ही शक्ति सम्पन्न राजा एवं ऋषि थे। उनका एक पुत्र चन्द्रमा था। जो प्रतिभा सम्पन्न युवक था। ऐसा पुराणों में मिलता है कि सिनीवाली, कुहू, धुनि, पुष्टि, प्रभा, वसु, कीर्ति इत्यादि कन्याएँ उनकी सेवा में हर समय तत्पर रहती थीं। इसके अतिरिक्त वृद्ध बृहस्पति की युवा पत्नी तारा भी थी। तारा चन्द्रमा का कान्ति तेज़ देखकर मोहित हो गयी। उसकी लाचारी का फायदा उठाया। जिससे तारा एवं चन्द्रमा में प्रेम सम्बन्ध स्थापित हो गया। तारा चन्द्रमा के साथ बृहस्पति को छोड़कर चली गयी। जब बृहस्पति को यह मालूम हुआ तो अत्यन्त क्रोधित हुए। देवेन्द्र को आदेश दिया-हे देवेन्द्र ! हमारी पत्नी तारा को किसी भी तरह चन्द्रमा से वापस लाओ।
देवेन्द्र तारा को वापस लाने गये। परन्तु वह भी वृद्ध पति के यहाँ जाना नहीं चाहती थी। न ही चन्द्रमा छोड़ना चाहते थे। तारा के चलते देवगण एवं चन्द्रमा में घोर युद्ध हुआ। जिस युद्ध में दैत्य (राक्षस) चन्द्रमा की मदद किये। हालाँकि राक्षस लगभग हर समय मानव की ही मदद किये हैं। इस युद्ध में देवता पराजित हुए। देवेन्द्र युवा चन्द्रमा की बल-बुद्धि, युद्ध की नीति, देखकर भयभीत हो गये। बृहस्पति अपने दारूण दुःख को ब्रह्मा से कहते हैं। ब्रह्मा जी चन्द्रमा से बात करते हैं एवं किसी तरह समझा-बुझाकर तारा को वापस बृहस्पति को लौटाते हैं। बृहस्पति को जब यह ज्ञात होता है कि तारा गर्भिणी है तब उसे डांटते हैं।
"त्यज त्याजाशु दुष्प्रज्ञे मत्क्षेत्रादाहितं परैः। नाहंत्वां भस्मसात् कुर्मास्त्रियं सान्तानिकः सति ॥"
अर्थात् "दुष्टे। मेरे क्षेत्र में यह तो किसी दूसरे का गर्भ है। इसे तू अभी त्याग दे, तुरन्त त्याग दे। डर मत, मैं तुझे जलाऊँगा नहीं, क्योंकि तू तो एक स्त्री है और दूसरे मुझे सन्तान की कामना है। देवी होने के कारण निर्दोष है।" अपने पति की डाँट सुनने के बादं वह लज्जित हो जाती है। साथ ही भय से पुत्र गिर जाता है। आप सोचें, बृहस्पति भी दैवज्ञ कहलाते हैं। भूत-वर्तमान भविष्य सभी उन्हें मालूम है, ऐसा कहा जाता है। परन्तु उन्हें क्या ज्ञात है? क्या नहीं। उन्हीं पर अवलोकन कर उनकी बुद्धिमत्ता का अंदाजा लगा लें। "तत्याज ब्रीडिता तारा कुमारं कनकप्रभम् । स्पृहाभारिस श्चक्रे कुमारे सोम ए वच ॥ समायं न तवे तयुच्चैस्तस्मिन् विवदमानयोः । पप्रच्छुऋर्षयो देव नैवोचे व्रीडिक्त तु सा॥"
(श्रीमद्भागवत पुराण)
उसने सोने के समान चमकता हुआ एक बालक अपने गर्भ से अलग कर दिया। उस बालक को देखकर बृहस्पति और चन्द्रमा दोनों ही मोहित हो गए और बाहने लगे कि हमें मिल जाए। अब वे एक-दूसरे से इस प्रकार जोर-जोर से झगड़ा करने लगे कि यह तुम्हारा नहीं, मेरा है। ऋषियों और देवताओं ने तारा से पूछा कि यह बच्चा किसका है परन्तु तारा लज्जावश कोई उत्तर नहीं दे सकी।
तब उस श्रीयुक्त बालक ने सोचा कि कहीं भय से माँ झूठ न बोल दे, अतएव बालक ने कहा-दुष्टे ! तू बतलाती क्यों नहीं? तू अपना कुकर्म मुझे शीघ्र से शीघ्र बतला दे। तब भी तारा अपने पति के भय से नहीं बोली। चूँकि बृहस्पति को उस बालक को देखकर लोभ हो गया था। तब ब्रह्मा जी जो सम्भवतः सृष्टि के रचयिता थे। उन्हें भी मालूम नहीं हो सका। एकान्त में तारा को ले जाकर पूछते हैं, बहुत तरह से समझाते हैं और बचाने का आश्वासन देते हैं। तब तारा धीरे से कहती है-चन्द्रमा का। ब्रह्मा जी उस लड़के की बुद्धि पर जो अत्यन्त निर्भीक एवं गम्भीर था। उसका नाम बुध रखते हैं। यह बुध ही चन्द्रवंश का विस्तार करता है।
इला-इलावर्त
बुध की शादी वैवस्वत मनु की पुत्री इला से हुई। इसी इला के पुत्र पुरुरवा हुए। वे बहुत ही प्रतापी, ओजस्वी, धार्मिक राजा हुए। इनके प्रताप को देखकर देवेन्द्र घबराए रहते थे। उनकी सेवा में सैकड़ों अप्सरायें भेजते रहते थे जैसा कि ऋग्वेद में मिलता है। अन्त में उर्वशी इनकी सुन्दरता एवं पौरुष का वर्णन सुनकर इनके यहाँ आती है एवं इनके साथ बहुत काल तक रहती है। जिससे इन्हें 6 से 8 (छह से आठ) पुत्र उत्पन्न हुए। विभिन्न पुराणों में पुत्रों की संख्या विभिन्न दी गाई है। पुरुरवा माता के नाम पर ऐल कहलाए तथा इला के नाम पर ही इस क्षेत्र का नाम इलावर्त-फिर आर्यावर्त हुआ। ये लोग अपनी राजधानी वर्तमान (प्रतिष्ठान पुणे) डूसी (इलाहाबाद, ऊ प्र०) में बनाए, ऐसा लगता है इला के नाम पर ही इलाहाबाद नाम पड़ा।
चन्द्रवंश से ब्राह्मण एवं ब्रह्मर्षि
चन्द्रवंश में अनेक योद्धा, महर्षि, पण्डित, ब्राह्मण, क्रान्तिकारी, खगोलशास्त्री, आयुर्वेद के विद्वान हुए। जैसे चरक संहिता के रचयिता कृष्णत्रेय, सूर्य को बेध लेने वाला प्रभाकर, दत्तात्रेय ऐसे महान संन्यासी। दत्तात्रेय शैव संन्यासियों के प्रथम गुरु भी कहे जा सकते हैं। यही सहस्त्रार्जुन के भी गुरु थे। देवापी, बाल्मीकि, शान्तनु अत्यन्त वीर, तेज सम्पन्न एवं अद्वितीय महारथी थे। देवापी को तो देवता लोग अपना उपाध्याय तक बनाये। इनके दिशा-निर्देश पर ही धर्म, कर्म प्रारम्भ हुए एवं योग की दीक्षा भी दी गयी। चन्द्रवंश से पूरी पृथ्वी पर धर्म की क्रान्ति भी आयी। विश्वमित्र के ही लड़कों में से बहुत से क्षत्रिय हुए बहुत से ब्राह्मण। इनके 26 गोत्र ब्राह्मणों में आये यानी इनके 26 लड़के ब्राह्मण हुए जिनसे गोत्र बना। इस तरह कौशिक कुल भी ब्राह्मण कहलाया। इसके बाद चंद्र एवं सूर्यवंश के बहुत से लोग ब्राह्मण हुए, महात्मा हुए। विश्वमित्र एवं शालवती के देवश्रवा, तथा 'कति' हुए। कति से कात्यान गोत्र ही चला। रेणु से- सांस्कृतिक, गलब, मुदगल, मधुच्छन्द, जय एवं देवल हुए जो अलग-अलग गोत्र भी बने। माधवी से अष्टक ।
इस तरह विश्वमित्र अपने समय के धर्म के प्रवर्त्तक एवं क्रान्तिकारी थे। वे कहते थे आप क्षत्रिय होकर राज्य भी कर सकते हो, यज्ञ भी, तप भी। किसी पर निर्भर मत रहो। अन्यथा अकर्मण्य बन जाओगे। धर्मच्युत हो जाओगे। विश्वमित्र ने कर्म के अनुसार ही मानव को सम्मान देने के लिए प्रोत्साहित किया। जो उस समय या वर्तमान के लिए अत्यन्त ही अनुकरणीय है। इसी कर्मवाद सिद्धान्त को लेकर वशिष्ठ में एवं विश्वमित्र में द्वंद्व भी हो गया था। अन्त में विश्वमित्र की जीत हुई। वशिष्ठ मानने के लिए बाध्य हुए।
चन्द्रवंश में निम्न राजा एवं इनके परिवार ब्राह्मण बने, संन्यासी राजर्षि, महर्षि एवं ब्रह्मर्षि बने।
(1) यति-गृहस्थ होते हुए भी विरक्त थे, जिससे यति संन्यासी ही बने।
(2) अलर्क-सत्यप्रतिज्ञ, ब्राह्मण बने।
(3) सृजय-धर्मज्ञ एवं नीति नियामक ।
(4) जनमेजय-महर्षि एवं प्रभो की पदवी पाये।
(5 ) महाशाल-देवों द्वारा पूजित हुए।
(6) महामना-देवों द्वारा पूजित हुए एवं धर्म नीति के नियामक हुए।
(7) उशिनर-धर्मज्ञ एवं तपस्वी ।
(8) विजय-धर्मज्ञ होने के नाते ब्राह्मणों को शिक्षा दिए एवं शौर्य तेज के चलते
क्षत्रियों को भी।
(१) सुरोध-धर्म के प्रवर्तक, महान यशस्वी, एवं महर्षि हुए।
(10) मुदगल- धर्मज्ञ तथा इनके भाई ब्राह्मण बने जिससे ब्राह्मण वंश आगे चला जो मुद्गल गोत्र है।
(11) इन्द्रसेन-ब्रहार्षि हुए। इनके लड़के ब्राह्मण एवं क्षत्रिय हुए।
(12) च्यवन-धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र के महान ज्ञाता।
(13) उदीथ-सम्पूर्ण धर्म एवं यज्ञ के ज्ञाता एवं यज्ञ करना, करने की शिक्षा देते थे।
(14) मरूत-राजर्षि, धर्मज्ञ।
(15) वृषभ-अद्वितीय बलवान एवं विद्वान भी।
(16) पुण्यवान - धर्मात्मा ।
(17) ऊर्ज-धर्म के पूर्ण ज्ञाता।
(18) सत्यहित - शौर्य, एश्वर्य से पूर्ण पराक्रमी।
(19) जनमेजय-धर्म एवं नीति के पूर्ण जानकार।
(20) उग्रसेन - भीमसेन, श्रुतसेन, महारथी।
(21) रजि- महापराक्रमी जो देवेन्द्र भी बने।
(22) नहुष-देवेन्द्र बने यानी देव राष्ट्र के शासक हुए।
(23) सभार-चाक्षुष, परमन्यु, तितिक्षु ये लोग महाबली एवं धर्मज्ञ।
(24) धर्मरथ-विद्वान एवं इन्द्र से भी ज्यादा पराक्रमी।
(25) चित्ररथ-धर्मज्ञ एवं इन्द्र का मित्र।
(26) सहश्रद् हैह्य, हय, वेणु हय (यदुवंशी)- परम धार्मिक एवं महाबली नीतिज्ञ ।
(27) महिष्मान-पराक्रमी तथा इसने महिष्मति नगरी बसाई।
(28) सहस्त्रार्जुन - महाबली। इसने द्वीप, समुद्र, पत्तन एवं नगरों को जीता।
(29) भद्रशेण्य - काशी का राजा एवं धर्मज्ञ।
(30) कनक - धर्मज्ञ।
इसी तरह इसी वंश के धन्वन्तरी, याज्ञवल्क्य, भारद्वाज एवं अहिल्या थी। उपर्युक्त विवचेन से चन्द्रवंश के विषय में कुछ जानकारी मिल जाती है। विशद जानकारी हेतु पुराणों एवं वेदों के पन्नों को पलटना आवश्यक है।
क्रमशः.....