साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

विश्वमित्र द्वारा राम को माँगना

    शान्तचित्त से महर्षि सुन रहे थे। मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। सभी ऋषि आतुर दृष्टि से सूर्य सा चमकता मुख-मण्डल देख रहे थे। वशिष्ठ चिन्तित थे। महर्षि कहते हैं "हे राजन् आप नृप श्रेष्ठ हैं। आपका जन्म भी उत्तम तपस्वियों के कुल में हुआ है। आपके खानदान के लोगों ने धर्म रक्षा हेतु प्राण तक दे दिए हैं। मुझे भी विश्वास है आप दिए गये वचन का जरूर पालन करेंगे। अब मैं यहाँ आने का अभिप्राय आपसे निवेदन करता हूँ। सिद्धाश्रम में ज्ञान रूपी यज्ञ वर्षों से होता आ रहा है जिसे अब निशाचरगण नष्ट-भ्रष्ट कर रहे हैं। कोई विद्यार्थी अब इतना सशक्त प्रवीण नज़र नहीं आता, जिसे आगे बढ़ाऊँ। अतएव है राजन् आप अपने ज्येष्ठ पुत्र राम को दे दीजिये। जिनसे यज्ञ की रक्षा भी होगी। दस दिन में ही उन्हें विद्या भी दे दूँगा। दोनों कार्य साथ-साथ हो जायेंगे। जिससे राम की श्रेष्ठता बढ़ जायेगी। राम की कीर्ति में चार चाँद लग जायेंगे। इनकी तीनों लोकों में पूजा होगी।"

      यह सुनकर दशरथ जी क्षणभर के लिए बेहोश हो गये। वे कभी सोच भी नहीं सकते थे कि गुरुवर राम को ही माँग लेंगे। गुरु तो माँगता वही है जिसकी आप कल्पना तक नहीं कर सकते। चूँकि आपकी कल्पना की सीमा है। गुरु असीम है। दशरथ जी आज तक किसी सद्‌गुरु के सान्निध्य में रहे ही नहीं। वे पुत्र मोह में पड़ जाते हैं। अभी सभी कुछ देने का वादा कर रहे थे। माँगने पर बहाना ढूँढते हुए अन्तर्भाव से कहते हैं- "हे नाथ! मैं स्वयं उन राक्षसों से युद्ध नहीं कर सकता। वे महाबली अतिबली हैं। उनसे देवता, दानव, गन्धर्व कोई भी युद्ध नहीं कर सकता फिर भी मैं अपने सम्पूर्ण राज्य-सेना के साथ चलता हूँ।"

राम विश्वमित्र वार्ता

    आदेशपाल वापस आकर कहता है "हे महाराज ! जैसे भ्रमर रात को कमलमें बन्द होकर उदास बैठा रहता है, उसी प्रकार श्री रामचन्द्र जी भी अपने भवन में अनमने होकर बैठे हुए हैं। वे अज्ञात शून्य में ध्यानस्थ हैं।" यह सुन विश्वमित्र मुस्कुराते हुए कहते हैं -

"अहं वेदितं महात्मानं रामं राजीव लोचनम्।"

  मैं महात्मा राम को अच्छी तरह जानता हूँ। यह कोई सद्‌गुरु ही कह सकता है। आप लोग जाकर हमारे आने का सन्देश दो। वे स्वयं आ जायेंगे। वे विवेक एवं वैराग्य से सम्पन्न हैं। अतः उन्हें मोह नहीं बोध ही प्राप्त हुआ है। जो महान् अभ्युदयकारक है। इस विचार मूलक मोह का युक्ति द्वारा निवारण कर देने पर राम हमारे भाँति ही परमपद् में प्रतिष्ठित हो जायेंगे। हमारे उपदेश से वास्तविक बोध का उदय हो जाने पर महात्मा राम अमृत पीये हुए पुरुष की भाँति सत्यता त्रिकाल बाधिता, ब्रह्मरूपता, भुविता (परमानन्द स्वरूपता) यज्ञ (अपरिच्छिन्न ज्ञानरूपता) को प्राप्त होकर विश्रान्ति सुख से सम्पन्न, संताप शून्य, शरीर में हष्ट-पुष्ट और उत्तम कान्ति से युक्त हो जायेंगे। वे निर्गुण परब्रह्म परमात्मा के ज्ञान से सम्पन्न हो जायेंगे। राजा यह सुन अत्यन्त प्रसन्न हुए। राम विश्वमित्र का संवाद सुन शीघ्र ही सभा में उपस्थित हो गये। मानो जन्मों से उन्हें सद्‌गुरु की खोज़ हो। वे दौड़कर पकड़ लेते हैं गुरुदेव के पैर। अब वे शान्त चित्त गुरुदेव के आदेश की प्रतीक्षा करने लगे। सभी सभासद् को ज्ञात हो रहा है जैसे राम उन्हीं के इन्तजार में बैठे हों। सच्चा

शिष्य अपने गुरु के चरणों में बैठ कर समाधि का अनुभव करता है। महर्षि विश्वमित्र जी ने कहा- महात्मा राम! तुम्हारे मोह का, भ्रम का क्या

कारण है? तुम्हारे मन में जो अभिलाषा हो उसे शीघ्र बताओ। तुम्हें वह सब मनोरथ प्राप्त होंगे जिससे मानसिक व्यथाएँ फिर तुम्हें कष्ट नहीं पहुँचायेंगी। राम ने कहा- हे गुरुवर ! तीर्थ करके लौटने पर मेरा मन विवेक से पूर्ण हो गया। बुद्धि भोगों से विरक्त हो गयी। मुझे राज्य से क्या लेना है? भोगों से क्या प्रयोजन है? मैं कौन हूँ? यह दृश्य प्रपंच क्या है? ये प्रश्न मेरे मन में सदा घूमते रहते हैं। शरीर बाल्यावस्था, युवावस्था में अनेक दोषों से भरा रहता है। वृद्धावस्था पश्चाताप में बीतती है। इस तरह राम धन, सम्पत्ति, आयु की निस्सारता, अहंकार एवं चित्त का दोष, तृष्णा की निन्दा, स्त्री शरीर की मोहकता एवं रमणीयता का निराकरण जो रक्त माँस से भरा है, जिन्हें विभिन्न प्रकार से सजाया गया है। मूर्ख पुरुष काम में आसक्त हो, आकृष्ट हो जाते हैं। उसी देह को गिद्ध-सियार नोंचते एवं घसीटते हैं। सांसारिक वस्तुओं की निस्सारता एवं क्षणभंगुरता, जागतिक पदार्थों की परिवर्तनशीलता एवं अस्थिरता का विशद वर्णन करते हुए विश्वमित्र से निवारण चाहते हैं। राम की उक्ति सुनकर वहाँ बैठे हुए ऋषिगण यथा- वशिष्ठ, वामदेव, राजमंत्रीगण, नारद, व्यास, मरीचि, दुर्वासा, अंगिरा और उनके पुत्र अंगिरस, क्रतु, पुलस्त्य, पुहल,शरलाभ, वात्स्यायन, भारद्वाज, वाल्मीकि, उर्दूलक, ऋचीक सभी अचंभित रह गये। सभी विश्वमित्र की तरफ मुखातिब हुए। अब क्या उत्तर देंगे महर्षि। कैसे राम की शंका को निर्मूल करेंगे ?

विश्वमित्र बोले "हे ज्ञानश्रेष्ठ राम! तुम अपनी सूक्ष्म बुद्धि से सब जान गये हो। बस जरूरत है उसे निष्काम कर्मयोग में परिणत करने की। तुम्हारी ही तरह शुकदेव जी ने प्रश्न किये थे अपने पिता व्यास जी से। तुम्हारे पिता के काल से तपस्वी व्यास जी बैठे हैं। उन्होंने नाना प्रकार से उत्तर दिए, परन्तु वे सन्तुष्ट नहीं हुए। अन्त में व्यास जी ने शुकदेव जी को उपयुक्त गुरु जनक के यहाँ भेज दिया। जनक जी राज्य करते हुए विदेह थे। वे शुकदेव की शंका का समाधान करते हुए बोले इस ब्रह्माण्ड में एक अखण्ड चिन्मय परमपुरुष परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। इसे विवेक द्वारा जाना जा सकता है। तब कुछ पाना, जानना, शेष नहीं रह जाता है, सारे भ्रम अपने आप गिर जाते हैं। इस प्रकार जनक शुकदेव जी को निष्काम योग में दीक्षित कर देते हैं। शुकदेव दीक्षित होते ही उस परमशून्य में ध्यानस्थ हो जाते हैं। उनके भय, शोक सभी नष्ट हो जाते हैं। उनकी निर्विकल्प समाधि लग जाती है। हे राम तुमने भी ज्ञानतत्व को जान लिया है। भोगों से तुम्हारी रुचि हट गयी है।

"भोगभावनया याति बन्धो दाढर्चमकस्तुजः ।

तमोपशान्तया याति बन्धो जगति तानवम् ॥"

     भोगों के चिन्तन से अज्ञान जनित बन्धन दृढ़ हो जाते हैं। भोग-वासना के शान्त हो जाने पर संसार बन्धन क्षीण हो जाता है। अब तुम्हारी बुद्धि को केवल अद्वितीय सच्चिदानन्द परमात्म तत्व में विश्राम की अपेक्षा है। हे महात्मा राम उस परमात्म तत्व में स्थिर रहकर जगत काम भी निष्काम भाव से प्रतिपादित करो। मुझे भी ऐसे ही शिष्य की खोज है। अब तुम विलम्ब न करो। शीघ्र हमारे साथ पिता का आदेश लेकर चलो। तुम से ज्यादा आतुरता हम में है। शिष्य को जरूरत है अपने में पात्रता लाने की। सद्‌गुरु तो खोजते-खोजते पहुँच ही जाते हैं। क्षणभर में गागर में सागर भर देते हैं। अन्यथा शिष्य को तैयार करने में, संस्कारों को पूर्ण करने में बहुत समय निकल जाता है।

विश्वमित्र के साथ राम का जाना

    दशरथ जी अत्यन्त प्रसन्न थे। मानो राम का भविष्य ही साकार रूप में उनके सामने खड़ा हो, उसे सँवारने-निर्माण करने के लिए तत्पर हो। दशरथ जी के कहने पर कुल पुरोहित वशिष्ठ जी ने मंत्र अभिमंत्रित मंगलाचार किये। पूरे राज्य में खुशी छा गयी। जगह-जगह शंख, नगाड़े बजने लगे। ध्वज फहराने लगे। विश्वमित्र जीराम-लक्ष्मण को लेकर चल पड़ते हैं। नगरवासी पुष्यों की वर्षा करने लगे। विश्वमित्र प्रसन्न थे। वे सोच रहे थे शीघ्र ही राम को सारी विद्यायें हस्तान्तरित कर हूँ। इसे देव संस्कृति से किसी तरह निकाला गया है। इस पर वशिष्ठ का प्रभाव नहीं के बराबर है। जो था भी वह तीर्थ यात्रा, साधु महात्माओं के सत्संग से धुल गया। यह सोचते हुए अयोध्या से 6 कोस दूर चले गये। सरजू के नज़दीक सुन्दर सिद्ध स्थल देख विश्वमित्र बोले हे राम तुम शीघ्र स्नान कर पवित्र हो लो। मैं तुम्हें दीक्षा दूँगा तथा तंत्र विद्या को तुम्हें बताऊँगा। राम-लक्ष्मण स्नान कर गुरुदेव के चरणों में प्रणाम करते हैं। गुरुदेव उन्हें दीक्षा प्रदान कर बला एवं अतिबला नामक तंत्र देते हैं। बला यानी लम्बिका अति बाला यानी खेचरी। महा कठिन खेचरी मुद्रा योगी जन की मातरी। इससे शरीर की कान्ति बढ़ती है। भूख प्यास नहीं लगती है। शरीर नि-रोग हो जाता है। शरीर के एक-एक सैल्स का पोषण होता है। इसी से योगी जन की माँ कही गयी है। विश्वमित्र राम-लक्ष्मण को लेकर आगे चल देते हैं। रास्ता भी तय करते हैं। साथ ही कथा-कहानी के माध्यम से उन्हें तंत्र विद्या का ज्ञान भी देते जाते हैं। राम ऐसे सत्पात्र हैं जो हर समय गुरु-मुख देख रहे हैं जो भी उनके मुँह से निकल रहा है वेद-वाणी समझकर आत्मसात् करते जाते हैं। विश्वमित्र के जीवन में भी इस तरह का शिष्य सम्भवतः प्रथम बार मिला है। जो समग्ररूप से समग्रता को ग्रहण करने के लिए उत्सुक हो।

विश्वमित्र जी राम को लेकर गंगा पार कर ताड़िका बन पहुँच गये। ताड़िका सुन्दर यक्ष कन्या थी। जो सुकेतु नामक तपस्वी यक्ष की पुत्री थी। जिसका विवाह जम्भ-पुत्र सुन्द के साथ हुआ। वे पति-पत्नी नियमधर्म में रहते थे। विश्वमित्र के यज्ञ में मददगार थे। परन्तु देवर्षि अगस्त्य से यह देखा नहीं गया एवं छल से सुन्द को मार डाला। जब ताड़िका, जो स्वयं अत्यन्त शक्तिशालिनी थी। अगस्त्य को परिवार समेत मारने को उद्यत हुई तो अगस्त्य किसी तरह यह समझाने में सफल हो गये कि ताड़िका तुम्हारे पति का हत्यारा हम नहीं विश्वमित्र हैं। अब ताड़िका विश्वमित्र एवं उनके आश्रम की दुश्मन हो गयी। इसको एक पुत्र भी था। जिसका नाम मारीच था। अब ताड़िका अगस्त्य एवं इन्द्र के नज़दीक आकर माँसाहारी, शराबी हो गयी। विश्वमित्र राम से बोले कामरूपिणी ताड़िका आश्रम को बर्बाद कर रही है साथ ही आस-पास की मानव संस्कृति के गाँवों को बर्बाद कर रही है। अतएव हे राम तुम इसका वध करो। इसके बाद आगे आश्रम चलेंगे। इतना कह ही रहे थे कि ताड़िका चीत्कार करती हुई राम को ही पकड़ने ज़ोर से आगे वढ़ी। तब श्रीराम ने गुरु आज्ञा पाकर कामरूपिणी ताड़िका को मार दिया।

गुरुदेव विश्वमित्र ने रात्रि विश्राम के पश्चात् सुबह ताड़िका वन में ही स्नानादिके पश्चात् राम को सर्व अस्त्र प्रदान किये जिससे राम सुर, असुर, नाग, गन्धर्व आदि को अपने वश में कर उन्हें जीत सकें। उन अस्त्रों को प्रयोग करके उन्हें लौटाने की विधि भी बताई। तत्पश्चात् वे सिद्धाश्रम पहुँचे। राम के द्वारा जिज्ञासा हुई इस पवित्र आश्रम के सम्बन्ध में। विश्वमित्र ने कहा है राम पहले वामन जी ने यहीं तप किया था जिससे यह सिद्ध होकर सिद्धाश्रम कहलाया। कश्यप जी ने अपनी पत्नी अदिति के साथ यहीं तप किया था। गाधि ऋषि ने भी यहीं तप किया था। हे राम रात्रि विश्राम यहीं करना है अतएव तुम स्नान कर शीघ्र पवित्र हो लो जिससे तुम्हें गायत्री रूपी महाशक्ति दे सकूँ। इस तरह उन्हें गायत्री प्रदान की।

यज्ञ की रक्षा

     राम को यात्रा में चार दिन लगे। उसमें ही उन्हें बहुत सारी विद्याएँ विश्वमित्र द्वारा प्रदान कर दी गयीं। अब सिद्धाश्रम में गुरुदेव ने मौनधारण कर लिया छह दिन का अनुष्ठान करने के लिए। सारे विद्यार्थियों ने प्रसन्न होकर अपना-अपना अनुष्वन शुरू कर दिया। शिक्षकगण भी अपने शोधकार्य में लग गये। विद्यालय में नव-जीवन का संचार हो गया। राम-लक्ष्मण भी पठन-पाठन में लग गये। साथ ही निष्काम योग प्रवीण राम, रक्षा के ख्याल से हर समय चौकन्ना रहते थे। किसी भी अनहोनी घटना से निपटने के लिए तत्पर थे। राम के जागने से पहले लक्ष्मण जाग जाते एवं गुरु विश्वमित्र के जागने के पहले ही राम। राम जहाँ स्नान करते थे वही राम रेखाघाट कहलाया। जहाँ राम को दिव्य शक्तियाँ दी गयीं। वही राम चौतरा कहलाया। वे स्नान ध्यान कर गुरु के पैर दबाकर उठाते एवं स्नान कराते, उनकी पूजा अर्चना करते। उनके ज्ञान यज्ञ को मौनता से ग्रहण करते। योगी ही योगी की मौन वार्ता को समझ सकता है। छह दिन का यही था "मौन ज्ञान यज्ञ।" यह यज्ञ अत्यन्त विलक्षण था।

     एक तरफ मौनता, दूसरी तरफ सेवा, तीसरी तरफ मौनता से गहन ज्ञान को आत्मसात करना, चौथी तरफ बाह्य-अन्तर स्थित राक्षसों के उपद्रव से लड़ना। जब वह साधक मौन होता है तो मन उपद्रव कर उठता है। काम, क्रोध, अहंकार रूपी ताड़िका मारीच, सुबाहु, आक्रमण कर ही देते हैं। परन्तु चतुर साधक उन्हें गुरु से प्रदत्त मंत्र रूपी अस्त्र से धराशायी कर देता है। अन्त में वह निर्विघ्न हो स्वरूप को प्राप्त कर परमानन्द में स्थित हो जाता है। छह दिन में ही अष्ट चक्रों का भेदन कर सहस्त्रार में पहुँच जाता है। हो जाता है "महान ज्ञान यज्ञ" पूरा। काम को साधक गुरु कृपा से पहले ही मार गिराता है। उससे लड़कर मारीच रूपी क्रोध को सद्बुद्धि रूपी पुष्प बाण से समाप्त कर दिया जाता है। सुबाहू रूपी अहंकार को ज्ञान रूपी अग्नेयास्त्र से मार गिराया जाता है। यदि गुरु का सान्निध्य है तो यह यज्ञ साधकपूरा कर ही लेता है। राम ने इस यज्ञ को छह दिन में शरीर रूपी यज्ञ स्थल पर आत्मा रूपी अग्नि में वृत्तियाँ रूपी धूप से दीक्षा रूपी मंत्र से हवन कर पूरा कर लिया। महर्षि विश्वमित्र दसों दिशा रूपी कर्म एवं ज्ञान इन्द्रियों को उपद्रव रहित देख राम पर अत्यन्त प्रसन्न हुए। राम को आशीर्वाद दे आगे की योजना बनाई।

विश्वमित्र की दक्षिणा

     सन्ध्या-वन्दना के पश्चात् विश्वमित्र ने राम को समझाया कि हे राम तुमने इस यज्ञ को पूरा कर लिया। तुम्हें हमने सब अस्त्र-शस्त्र, योग-ध्यान दे दिया? मेरा काम पूरा हो गया। तुम्हारा काम प्रारम्भ हुआ। रावण या कोई देव गन्धर्व मेरे भय से तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। अब तो तुम स्वयं समर्थ हो चुके हो। परन्तु तुम्हारा एक काम और करा देता हूँ। वह है तुम्हारी शादी। चूँकि वशिष्ठ श्रवण कुमार के मारने से तुम्हारे पिता को श्रापित करा चुका है जिससे तुम चारों भाइयों से शादी कोई नहीं करेगा। यह किसी तरह तुम्हारा खानदान समाप्त करने पर तुला है। राजा जनक की लड़की जानकी का स्वयंवर है। जिसमें ऋषि, महर्षि, देव, नाग, राक्षस सभी को निमन्त्रण प्राप्त हुआ है। तुम्हारे पिता जी को नहीं मिला है। हमें मिला है। शिष्य ही गुरु की सारी मानसिक सम्पत्ति का उत्तराधिकारी होता है। शिष्य ही गुरु परम्परा को आगे बढ़ाता एवं उसके उपदेश को कार्यरूप में बदलकर जीवनोपयोगी बनाता है। अतएव राम हम तुम्हें जनकपुर ले जाकर तुम्हारी शादी जानकी से करायेंगे एवं वहीं से तुम हमारे कार्य में लग जाना। इसे गुरुकार्य समझकर ही करना जिससे तुम्हारी कार्य की क्षमता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जायेगी। विघ्न-बाधा से घबराना नहीं है और हम हर समय हर क्षण सूक्ष्म रूप से तुम्हारे साथ होंगे। विजय भी तुम्हारे साथ है। देखो देव-दानव संस्कृति दोनों मिल गये। जिसका मुख्यालय लंका हो गया है। इससे मानव संस्कृति खतरे में पड़ गयी है। अतएव हे राम तुम्हें लंका तक पहुँचना है। बताये गये धर्म ज्ञान को पूरी पृथ्वी पर फैलाना है तभी मानवता बच सकती है। जो उपेक्षित हैं, दीन-हीन हैं, अकिंचन हैं, जंगली हैं, आदिवासी हैं, उन्हें प्रेम की आवश्यकता है। शिक्षा की जरूरत है। उनमें संगठन लाना ही होगा। उनका भविष्य दाँव पर लग चुका है अब तुम्हें अपने निष्काम योग से भोगवादी व्यवस्था, तथाकथित ऊँच-नीचवादी व्यवस्था को ध्वस्त करना हो होगा। भले ही सर्वमंगल में तुम्हें कष्ट होगा। उठाना ही, होगा। यही होगी हमारी गुरु-दक्षिणा। राम गुरुदेव के पैर पकड़कर कह उठते हैं "गुरुवर आपका आशीर्वाद हमारे साथ है तो काल भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। मैं तो निमित्तमात्र हूँ। कर तो रहे हैं आप, करेंगे आप। मैं तो आपका माध्यम हूँ। मैं वादा करता हूँ किसदैव माध्यम बना रहूंगा। अब मानवता का चीरहरण नहीं होगा। बहुत हो चुका। मेरी पूरी जिन्दगी अर्पित है मानवता की सेवा के लिए, आपके आदर्शों को पूरा करने के लिए। मैं शपथ पूर्वक कहता हूँ कि इस पृथ्वी पर मानव संस्कृति, गुरु तत्व को स्थापित करके ही रहूँगा।"

गुरु शिष्य का जनकपुर पहुँचना एवं स्वयंवर

    सद्‌गुरु विश्वमित्र अत्यन्त प्रसन्न हैं। जनकपुर के लिए प्रातः ही राम-लक्ष्मण के साथ प्रस्थान कर देते हैं। कुछ ही दूर जाने पर गौतम ऋषि का आश्रम दिखाई पड़ता है जिसे अहिल्या के रहने से अहिल्या वली कहा गया बाद में अहिरौली कहलाया। अहिल्या भी देवराज इन्द्र की कामपिपासा की शिकार हो चुकी है। पुरुष प्रधान समाज होने के कारण अहिल्या को गौतम ने त्याग दिया है। वह अछूत की तरह पाषाणवत अपना जीवन व्यतीत कर रही है। हे राम यह भी मानवता के नाम पर कलंक है। इसे सम्मान दो जिससे इसका उद्धार हो सके। अहिल्या जब सुनती है कि विश्वमित्र, राम-लक्ष्मण को लेकर आये हैं। वह अतिथि-सत्कार करती है उनकी पूजा-अर्चना कर अपने को धन्य समझती है परित्याग होने के बाद पहले-पहल उसे सम्मान देने कोई आया। इस तरह राम अहिल्या को भी माँ तुल्य सम्मान देते हैं। गौतम ऋषि को समझा-बुझाकर उन्हें सौंप देते हैं। इस तरह विभिन्न क्षेत्रों का भ्रमण करते हुए जनकपुर पहुँचते हैं। जहाँ अहिल्या पुत्र शतानन्द जी एवं राजा जनक विश्वमित्र का यथोचित आदर-सत्कार करते हैं। रात्रि विश्राम के पश्चात् नित्य क्रिया से निवृत्त हो विश्वमित्र की आज्ञा से राजा जनक द्वारा राम-लक्ष्मण को धनुष दिखाया गया। राम ने गुरु को प्रणाम कर धनुष भंग कर दिया। विश्वमित्र के आदेश पर दशरथ को बुलाया गया एवं चारों भाइयों की शादी जनक की लड़की एवं उनके भाई जो सांकाश्य नामक पुरी के राजा थे की लड़कियों, के साथ सम्पन्न कराई गयी। विश्वमित्र शादी कराने एवं विदाई के बाद दोनों राजाओं को आशीर्वाद दे स्वयं हिमालय की तरफ चल दिए। (ज्यादा जानकारी मेरी पुस्तक 'मेरे राम' से लें)

राम परशुराम वार्ता

     मिथलेश राजा जनक दशरथ जी को कुछ दूर तक विदा कर स्वराज्य को लौट आए। दशरथ जी अभी कुछ ही दूर गये थे कि भृगुवंशीय परशुराम अपनी पूरी सेना के साथ आ धमके। मानो शंकर वृत्तासुर से युद्ध करने हेतु आये हैं। वशिष्ठ वगैरह द्वारा ऋषि को समझाते हुए न देखकर स्वयं दशरथ अनुनय-विनय करते हैं एवं प्राणरक्षा की भीख माँगते हैं। परन्तु परशुराम राम की तरफ धनुषबाण लिए आगे बढ़ते हैं। राम को युद्ध के लिए ललकारते हैं। राम उनके हाथ का ही वैष्ण धनुष लेकर बाण चढ़ाते हैं एवं टंकार करते हैं। जिसकी टंकार को सुनकर सभी स्तंभित हो जाते हैं। सब की आँखें बन्द हो जाती हैं। परशुराम क्षमा-याचना करने लगते हैं। परन्तु राम कुछ न कुछ दण्ड भी देना चाहते हैं। चूँकि राम कहते हैं आप अत्यन्त अहंकारी हैं। निर्दोष लोगों की आप हत्या किये हैं। इस धनुष पर बाण चढ़ गया है तो इसे छोड़ना ही होगा। आप ही बोलें, क्या किया जाये परशुराम ? अपनी जान की भीख माँगते हुए बोले- हे राम ! आप मेरा तप नष्ट कर दीजिये, मुझे छोड़ दीजिए। जिससे मैं महेन्द्राचल पर जाकर आपका ही ध्यान-तप कर सकूँ। करुणावश राम शरणागत जान बाण छोड़ देते हैं। उनका पूर्व का अहंकार रूपी तप नष्ट कर गुरु विश्वमित्र द्वारा बताये गये सत्धर्म का उपदेश देकर कहते हैं- हे परशुराम। निष्काम होकर, सत्चित होकर, मेरे द्वारा उपदेश ग्रहण कर, महेन्द्राचल पर जाकर तप स्वाध्याय करें। अब बहुत हो चुका अत्याचार। अब मानवता के लिए सत्कार्य में लग जाइये। महान से महान व्यक्ति समय के सद्‌गुरु को नहीं पहचानता, वह अपने अमरत्व एवं अहंकार में अपना अस्तित्व ही दाँव पर लगा देता है।
क्रमशः...