परमात्मा से मानव का साक्षात्कार
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
सागर की लहरें सागर से मिलने के लिए व्याकुल थी। उनकी चिंताएं बढ़ने लगी। वे पूरी शक्ति से चंद्रमा को स्पर्श करना चाहती है। उन्हें वही सागर प्रतीत होता है। ऐसा करने में असफल हो जाती है। फिर उपदेशक, पुरोहित आश्वासन देता है। घबराओ नहीं जन्मो- जन्म के पुण्य का परिणाम होता है--- सागर से मिलन।पुनः लहरें कुछ संतोष करती हैं ,उनकी व्याकुलता दिनों -दिन बढ़ने लगती हैं । उनकी उत्ताल तरंगे गगनचुंबी होने लगती है। फिर कोई पुरोहित उसे क्रिया -कर्म का उपदेश देता है। सुने हैं--अभी तक लहरें सागर से मिलने में असमर्थ है । पुरोहित, कथावाचक ,प्रवचनी उन्हें सांत्वना देते आ रहे हैं।
वायु का झोंका उसे थपेड़े देता है। उसे बार-बार समुद्र में मिलाता है। उसे संदेश देता है तुम ही समुद्र हो । समुंद्र से तुम्हें अलग नहीं किया जा सकता है। तरंग की आकांक्षा स्वाभाविक है कि सागर हो जाए।
एक छोटे से बीज में संपूर्ण वृक्ष छिपा है। उस बीज को आप कैसे समझा सकते हैं, कि तुम में विराट वृक्ष छिपा है। उसे प्रगट होने दो। आप उसे समझाने का लाख प्रयास करें वह मानने के लिए तैयार नहीं होगा। उसका भी अपना तर्क है। कहां विशाल वृक्ष? कहां मैं? वृक्ष में डालें ,तने, पत्तियां है। हमारे जैसा लाखों बीज एक साथ बना देने की क्षमता है। उसकी छाया में पूरी बारात विश्राम करती है। उसके सामने मेरा अस्तित्व ही क्या है? समानता की बात करना, सोचना कोरी मूर्खता है ।
दोनों का तर्क सही है। उसे तर्क से नहीं जाना जा सकता है। जो तर्क से समझाने की चेष्टा करता है-- वही पंडित है। जो पुराणों के माध्यम से, गीता से, रामायण से समझाने की चेष्टा करता है-- वही प्रवचन करता है। वही कथावाचक है।उसने स्वयं अपने अंदर के बीज को वृक्ष नहीं बनने दिया है। बल्कि अनेक वृक्षों के-- टहनियों को तोड़कर अपने ऊपर रख लिया है। जिससे वह मुर्दा- सा प्रतीत होता है। उसकी वाणी बासी है।
जो उसे अष्टांग योग के द्वारा, तीर्थ,दान ,व्रत ,पूजा- पाठ के द्वारा प्राप्त करने को सुझाव देता है -- वही गुरु है।
जो कहता है-- तुम ही नर श्रेष्ठ हो। निष्पाप हो। परमपिता परमात्मा के ही पुत्र हो। मेरी तरफ देखो। अपने को पहचान लो। क्षण मात्र में उसे पहचान करा दें-- वही सद्गुरु है।
परमात्मा कोई विशेष व्यक्ति नहीं है। न ही आकाश में बैठा उसका कोई विशेष रूप है। आप की पूर्णता ही परमात्मा है। मनुष्य की आखिरी संभावना है-- परमात्मा। जहां पहुंचकर आप तृप्त हो जाते हैं। आप परितोष से भर जाते हैं।
मानव-मन विभिन्न प्रकार से भुला देने का उपक्रम करता है । संसार वासना से परिपूर्ण है। माया का नाम ही संसार है। उसी माया में मन बुरी तरह आबद्ध रहना चाहता है। मन-जहां-जहां विश्राम करना चाहता है । वही उसे ठोकरे लगती है। जिसे पाना चाहता है, पाने के बाद उस से भागने लगता है। मन हर समय परिवर्तन चाहता है। और - और पाने के होड़ में लगा रहता है। सांसारिक वासना में भूलने का अथक प्रयास करता है।
जो संसार के पद- प्रतिष्ठा में भूल गया--उससे अभागा व्यक्ति खोजना मुश्किल है ।
जो व्यक्ति गुरु अनुकंपा से समझ लिए कि संसार में सफल नहीं हुआ जा सकता है--वही धन्य भागी है । वे किसी ना किसी दिन बीज से वृक्ष में बदल ही जाएंगे। नर से नारायण बन जाएंगे, वे अभागे हैं जो सांसारिक सफलता को ही अपनी सफलता मान कर रुक गए। वही घर बना लिए। बीज से आगे की यात्रा पर नहीं निकलना चाहते है।
एक पौराणिक कथा है। पृथ्वी जल में डूबी हुई थी। देवताओं ने पृथ्वी को बाहर करने हेतु सभा बुलाई।जिसमें सर्वसम्मति से तय हुआ कि भगवान विष्णु वराह रूप में जाकर पृथ्वी को जल से बाहर करें। इस कार्य को पूर्ण कर शीघ्र ही स्वर्ग लोक लौट आएंगे। उन्होंने वैसा ही करने का वादा किया। नारद ने कहा-- "प्रभु ! मैं तो मृत्यु लोक में जाता -आता हूं।वहां जो भी जाता है माया में बुरी तरह आबद्ध हो जाता है। सभी एक- दूसरे को उपदेश देते हैं कि संसार असत्य है।" रहना नहीं देश बिराना है। मृत्यु सत्य है।फिर भी स्थाई घर बनाने के लिए, अपने पुत्र ,पौत्र ,प्रपौत्र हेतु चिंतित हो जाता है। कहीं आप भी भूल ना जाएं।"
सभी देवगण नारद की बात पर हंस दिए। भला भगवान नारायण भी भूल सकते हैं। नारद आप कभी-कभी बचकाना प्रश्न करते हो। वह भगवान विष्णु की तरफ एकटक देखे जा रहे थे। भगवान विष्णु मुस्कुराते हुए बोले--"भक्तराज नारद! ऐसी कोई संभावना नहीं है। मैं तो लीला करने जा रहा हूं।"
"जो पृथ्वी को ही रंगमंच समझता है। उस पर अपने कर्म करते हुए निष्कर्म भाव में रहता है ,वही ईश्वर है।"
साभार सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति "रहस्यमय लोक" से