साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से

????मृत्यु के पार????

अक्सर मृत्यु शब्द सुनते ही लोग चौंक जाते हैं। यक्ष ने धर्मराज से पूछा था कि इस दुनिया में सबसे आश्चर्य क्या है ? धर्मराज ने कहा-सभी मरते जा रहे हैं। सभी जानते हैं कि मृत्यु सत्य है। परंतु अपने विषय में निश्चिन्त हैं। पड़ोसी मरता है। उसके घर जाते हैं। श्मशान पर जाते हैं। चिता को जलते हुए देखते हैं। मन में वैराग्य उत्पन्न होता है। सोचते हैं-शरीर नश्वर है। दुनिया नश्वर है। परमात्मा ही सत्य है। कुछ क्षण के बाद परिवार, धन, सम्पत्ति, दुकान सत्य प्रतीत होने लगता है। जिन्हें पूर्ण गुरु नहीं मिला है। वे साधना से मृत्यु को साकार नहीं किया है। उन्हें मृत्यु अत्यंत भयावना एवं खौफनाक प्रतीत होती है। जो साधक शरीर से बाहर निकलकर, अपने ही पार्थिव शरीर को ठीक से देख लिया है। उन्हें मृत्यु से भय नहीं होता है। जैसे आप अपने पुराने कपड़े को कब बदल दिये और वस्त्र कब धारण कर लिये, यह आपको भान ही नहीं होता है।

ज्ञानियों को मृत्यु वस्त्र-परिवर्तन-सा प्रतीत होता है। अज्ञानियों को मृत्यु से अति भय होता है।

मृत्यु को प्रत्यक्ष देखने की प्रबल इच्छा बचपन में ही उत्पन्न हो गई। मैं नौ या दस वर्ष का बिहार के बांका शहर के जगतपुर के एक स्कूल में पढ़ रहा था। यह घटना लगभग 1959 की होगी। छोटा-सा देहाती स्कूल था। मैं पढ़ने जाया करता था। एक दिन सरस्वती पूजा थी। सवेरे ही स्कूल आ गए। प्रसाद लेकर मैं अपने साथी के साथ शहर की तरफ चल दिया। साथी ने कहा कि हम लोग दौड़कर चलें। शीघ्र ही शहर पहुंच जाएंगे। उस समय बसें कम चलती थीं। मैं सड़क से बाई पटरी पर दौड़ना प्रारंभ किया। उसे भी कहा कि तुम या तो मेरे आगे चलो या पीछे। सड़क छोड़कर दौड़ो। लेकिन वह नहीं माना। चूंकि वह बच्चा वहीं गांव का ही था। वह हमारे समानान्तर सड़क पर दौड़ रहा था। अभी हम लोग दो मील ही दौड़े थे कि पीछे से बस आई और उस बच्चे को धक्का मारकर भाग गई। वह चक्के के नीचे आ था। मैं एकाएक रुक गया। दौड़कर उसे उठाया। सिर अपने अंक में लेते ही उसका प्राण पखेरू उड़ गए। सिर लुढ़क गया। रक्त से

 लथपथ हो गया। जैसे ही उसे अपनी गोद में लिया, ऐसा ज्ञात हुआ उसके शरीर से सूक्ष्म प्रकाशमय कुछ निकला तथा वह नीचे मेरे पैर के तरफ गया फिर सामने हाथ जोड़कर प्रणाम किया। उस क्षण में दिन में ही स्वप्न देख रहा था। वह प्रकाशमय सूक्ष्म शरीर गायब हो गया। कुछ लोग आ गए। उसका शरीर मुझसे ले लिया।

मैं किंकर्तव्यविमूढ़-सा नदी के किनारे गया। एक छोटी-सी नदी थी। सारा 'वस्त्र निकाला- पानी में साफ किया। चूंकि सोच रहा था कि रक्त लगे कपड़े में घर जाने पर क्या उत्तर दूंगा। मन उदास था। उसकी मृत्यु एवं रक्त मेरे मन पर बुरी तरह छा गए थे। सभी कपड़े नदी में साफ किया नंगे होकर स्नान कर चुपचाप 1 नदी के किनारे ध्यान में बैठ गया।

सोच रहा था कि कपड़ा सूख भी जाए। मैं ध्यान में था। एकाएक ध्यान की गहराई में चला गया। मैं सहसा शरीर से बाहर निकल गया। देखता हूँ-वह मित्र मेरे पास आकर बैठ गया है। वह कह रहा था कि यदि आपका दर्शन नहीं होता, तब हमें लम्बे समय तक पृथ्वी पर रहना पड़ता। देखो मैं तो सूक्ष्म शरीरी तपस्वी हूं। यह मृत्यु तो बहाना है। आपकी गोद में आते ही मेरी आत्मा बाहर निकली। मृत्यु का दुःख एकाएक भूल गया। आप हमारे गुरु हैं। आपके द्वारा दिया गया दीक्षा से ही मैं यही मंदार पर्वत पर रहकर सूक्ष्म शरीर से ध्यान करता था। आपका आदेश था कि जब तक इस संसार से वापस नहीं लौटूं तब तक तुम अपने गुरुभाइयों के साथ यहीं रहना आपके आने के बाद कुछ गुरुभाई हिमालय को चले गए। कुछ 1 आपकी जन्मभूमि की तरफ आपकी सेवा में चले गए। मैं अकेला वहीं रुक गया था। मेरे मां-बाप जिनसे मैं जन्म लिया हूं। वे वहीं मंदार पर्वत पर भ्रमण कर रहे थे। ये कुछ काल वहीं निवास किए थे। वे पुत्र हेतु महादेव की आराधना करते थे। मैं करुणावश उनके गर्भ में प्रवेश कर गया।

आज बाहर निकलकर अपने को स्वतंत्र महसूस करता हूं। अब आपका क्या आदेश है? मुझे याद आया- तुम माधवानन्द अवधूत होना। वाममार्गी साधक। कामाख्या में साधना करते समय तुझे वाममार्ग से अलग साधना दिया था। उसके साथ बातें करते मैं भी मंदार पर्वत पर चला गया। जहां इन लोगों को नियुक्त किया था। देखते ही देखते तीन-चार सूक्ष्म शरीर प्रकट हो गए। वे सभी दण्ड प्रणाम कर हर्षित हो गए। बोले स्वामीजी आप जल्दी कैसे आ गए? मैंने कहा कि तुम लोगों को नियुक्त कर रखा था कि जो लोग अकाल मृत्यु से, दुख से शरीर परित्याग करे, उनकी कक्षा लेना। उन्हें शिक्षा देकर परिष्कृत करना। प्रेत योनि में दुःख भोग रहे आत्माओं को साधना में प्रेरित करना। मैं शरीरधारियों को व्यवस्था देने जा रहा हूं। अच्छा तुम लोग अब से अपने कार्य में जुट जाओ।
 
 मेरे सूक्ष्म शरीर में पीड़ा उत्पन्न हो गई। मैंने कहा अरे भाई देखो कोई औरत मेरे स्थूल शरीर को मृतक समझकर उठा रही है। फिर तुम लोगों से मिलूंगा। अपने शरीर में प्रवेश कर गया। उठ बैठा देखते हैं तीन-चार औरतें घेरै खड़ी थीं। हम्मारी शैशव अवस्था एवं नग्नता पर दया आ रही थी। एक बोली- अरे तुम सोया था। हम लोग तो घास गढ़ने आई थीं। आपको देखा तो ऐसा मालूम हुआ कि आप मर गए हैं। एक ने बोली क्या यह कपड़े आपके हैं? हाँ में सिर हिला दिया। वे मेरे कपड़े उठा लाई। मैं शीघ्रता से पहन लिया। ऊपर देखा सूर्य ढल रहा था। संध्या के लगभग चार बज रहा था। अरे मैं तो समय का भान ही भूल गया। तेजी से घर वापस लौट चला। मेरे मन-मस्तिष्क पर यह दिवास्वप्न घूमने लगा-यह क्या था?

समय के साथ बड़ा होता गया। मेरा अंतर्मन कभी भी जागतिक सुख, ऐश्वर्य के प्रति आकर्षित नहीं हुआ। यह जन्मों-जन्म का पूज्य ही रहा होगा कि परम पुरुष के उपासक (मेरे पितामह एवं पिताश्री) परिवार में मेरा जन्म हुआ। बचपन से ही उस रास्ते पर चलने का सुअवसर एवं राजपथ सहज ही उपलब्ध हुआ।

मृत्यु को साकार करने की प्रबल इच्छा थी। मृत्यु देवता से मिलने की इच्छा

थी। समय बीतने लगा। विद्या के साथ शरीर भी बढ़ने लगा। लेकिन मेरे इच्छा में

कभी परिवर्तन नहीं हुआ कि मैं नौकरी करूं, धन अर्जन करूं। पढ़ाई के बाद भी

मेरी साधना में प्रवृत्ति बढ़ी। यत्र-तत्र दौड़ लगाया।

इन्हीं संदर्भ में मैं साधना के उच्च शिखर पर पहुंचकर शरीर से बाहर निकलने की कला को सीख लिया। इसके पूर्व अनायास बाहर निकलता था। इसकी कला नहीं आई थी।

एक अमावस्या की रात्रि थी। मैं हिमालय पर्वत के जंगल में था। एक महात्माजी की छोटी-सी कुटिया थी वे गांव के नजदीक आश्रम में रहते थे। जंगल के आश्रम में मैं चला गया था। मेरे खाने-पीने की व्यवस्था उनके द्वारा ही कर दी जाती थी। मैं वहां चुपचाप साधना में लीन रहता था। चूंकि वहां किसी के आने-जाने का प्रश्न ही नहीं था। एकान्त सघन वृक्ष, गहन मौनता। वहां चलते- फिरते भी अनहद सुनाई देता। बगल में नदी का कलकल था। गुलाब के पुष्पों का जंगल था। दूर-दूर चौड़ के लम्बे-लम्बे वृक्ष थे। वहां स्वयं से या वृक्षों से या नदी से ही बातें होती थीं। हां सूक्ष्म शरीर आत्माएं जरूर मिलती रहती थीं। वे साधना सीखना चाहती थीं। कुछ को बताते भी थे।

क्रमशः....