साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
????भगवान शिव का तंत्र????
भगवान शिव एवं तंत्र शब्द सुनते ही लोगों के कान खड़े हो जाते हैं। किसी अज्ञात मन्त्र या चमत्कार के लिए उत्सुक हो जाते हैं। चमत्कार तो होता ही है। परन्तु आन्तरिक । पूर्ण परिवर्तन, जीव का शिवत्व को प्राप्त करना ही चमत्कार हैं। इस विधि को जानने वाले एवं करने वालों की संख्या न्यूनतम है जो साधक हैं, उनके साथ असाधकों की भीड़ खड़ी है। शिव स्वयं तंत्र को देने वाले आदि पुरुष हैं परन्तु बहुत वर्षों तक पार्वती उनके तंत्र से अपरिचित थी। अनभिज्ञ थी। तंत्र एक विधि है, विज्ञान है। दर्शन एवं विज्ञान में भेद है। दर्शन क्यों पूछता है ? विज्ञान कैसे पूछता है? दर्शन का सम्बन्ध मन-मस्तिष्क से होता है। दर्शन में परिवर्तन सम्भव नहीं। तंत्र में स्वयं को बदलना ही पड़ेगा। यह तंत्र शिव एवं पार्वती के मध्य घटित होता है। शिव के साथ शिष्यों की जमात नहीं है, क्योंकि तंत्र जमात को नहीं दी जा सकती। तंत्र एकाकी है। पात्रता सम्पन्न व्यक्ति ही इसे ग्रहण कर सकते हैं। शिव के द्वारा तंत्र की एक सौ बारह विधियाँ दी गयी हैं। इतनी विधियाँ दी गयीं, जिससे पूरी मानवता इसे ग्रहण कर सके। एक ही विधि सभी नहीं अपना सकते। यह व्यक्ति समय, स्थान पर निर्भर कर सकता है परन्तु इन एक सौ बारह विधियों में सम्पूर्ण मानवता आ सकती है। यदि गहराई से देखा जाये तो दुनिया के जितने धर्म हैं, जितनी भी साधना की विधि हैं सभी किसी-न-किसी रूप में शिव की इन विधियों से मिलती हैं। मूल वही है। बाहर से लेबल बदल गया है। कुछ विधियाँ अभी के लिए उपयुक्त नहीं हैं, पहले थीं। कुछ विधियाँ भविष्य के लिए उपयुक्त होंगी। तंत्र के लिए वेशभूषा जाति-सम्प्रदाय कोई अर्थ नहीं रखता। जैसे कोई अन्धा व्यक्ति हो, पूछता हो कि प्रकाश कैसा है ? दार्शनिक प्रकाश के सम्बन्ध में अपना दर्शन देगा। परन्तु तंत्र वेत्ता प्रकाश के सम्बन्ध में कुछ नहीं बतायेगा, वह तो आँख का उपचार शुरू कर देगा। उसे दृष्टि उपलब्ध करा देगा जिससे उसका उत्तर वह स्वयं पा सके। अतएव तंत्र का अर्थ हुआ - चेतना के पार जाने की विधि। विज्ञान का अर्थ है- चेतना ।
????शिष्या-शिवा????
तंत्र में प्रश्नकर्ता है देवी उत्तर देने वाले हैं शिव देवी शिव की गोद में बैठी हैं। शान्त, निर्विकार, मौन। ऐसा क्यों? पश्चिम के लोग इस चित्र को देख कर व्यंग्य करते हैं, क्योंकि यह उनकी समझ के बाहर है। अतएव यह उन्हें अशिष्ट मालूम होता है। लोक समाज युक्त नहीं मालूम होता। योगी की भाषा, योगी का रहन-सहन एक योग युक्त व्यक्ति ही समझ सकता है। औरों का उस पर बोलना बचकाना हरकत से ज्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता। खैर इसे हम गहराई से देखें तो स्पष्ट हो जायेगा। देवी स्त्री की प्रतीक हैं। स्त्रैण भाव है। शिष्य के लिए स्टैण मन-भाव की ही आवश्यकता है। पुरुष भाव तार्किक होता है। तर्क आक्रमण का रुख रखता है। स्त्रैण भाव ग्राहता का जिसका अर्थ है गर्भ जैसी ग्राहकता । स्त्री जिस क्षण ग्रहण करती है उसी क्षण अपने शरीर का अभिन्न अंग बना लेती है। बच्चा ग्रहित कर लेती है। अब उसका पोषण करती है। अब वह माँ बन जाती है। बच्चा उसी की तरह खाता, जीता है। अतएव शिष्य को भी गर्भ जैसी ग्राहकता चाहिए। जो सुने एवं समझे ही नहीं वरन् सद्गुरु पर विश्वास कर पूरा का पूरा पी जाये। शिष्य को गुरु के साथ एकाकार होना पड़ेगा। इसी से शिव को अर्द्धनारीश्वर भी कहते हैं जिसे विज्ञान की भाषा ने अब पकड़ा। विज्ञान कहता है कि मनुष्य में एक्स एवं वाई क्रोमोजोम दोनों हैं। यानी स्त्री-पुरुष दोनों हैं। बहुत गहरे अर्थों में शिष्य देवी की तरह अर्द्धांगिनी है। अब दोनों के बीच सन्देह है ही नहीं। तर्क, बुद्धि, विचार विदा हो गये। तब गुरु के तंत्र से गर्भ की प्रक्रिया पूरी होती है। रूपान्तरण प्रारम्भ होता है। देवी शिव की गोद में है। यानि देवी एवं शिव में अब भेद ही नहीं। अब प्रेम की भाषा है। मौन की भाषा है। तंत्र स्वतः घटित हो रहा है शिव मानो स्वयं से स्वयं को कह रहे हों। अब देवी के साथ कोई भूत नहीं, भविष्य नहीं बस वर्तमान ही सामने है। वह पूरी तरह पीने को तत्पर है। अब प्रेम का क्षण है। दोनों दो नहीं एक ही हैं। प्रेम ही परमात्मा है। चूँकि शरीर से परे भी कुछ है जो मिलकर एक हो जाता है। दोनों का बैठने का स्थान कहाँ है? कैलाश। वह भी हिमालय का उच्चतम शिखर। वह भी शुभ्र हिमाच्छादित। चूँकि शिव प्रेम के शिखर पर हैं। शरीर मन श्वेत, शुभ्र है। शीतल है। जब साधक की यह स्थिति होती है तो समतल भी गौरी शंकर का शिखर हो जाता है। अतएव शिव का देवी के साथ इस अवस्था में बैठकर तंत्र का सम्वाद देना अत्यन्त ही दुर्लभ है। इस पृथ्वी के लिए अनहोनी घटना है-
देवी पूछती है- मेरे संशय को निर्मूल करें-
• हे शिव, आपका सच्चा रूप क्या है?
• यह विस्मय भरा विश्व क्या है?
• इसका बीज क्या है?
• विश्वचक्र की धुरी कौन है?
रूप पर छाये अरूप के भी परे यह जीवन क्या है?
• देश, काल, नाम और प्रत्यय के परे आकर इसमें प्रवेश कैसे करें?
मेरे संशय को निर्मूल करें।
तंत्र देवी के प्रश्न से ही शुरू होता है। गुरु इन्तजार करता है, शिष्य के प्रश्न का। वहाँ से अन्दाज़ा लगा लेता है कि शिष्य में कितनी आकुलता है।
कितना गहरे में उतर सकता है? उसके प्रश्न की जिज्ञासा किस स्तर की है? शिष्य के अन्दर अभी व्याकुलता, छटपटाहट है या नहीं ? यह प्रश्न इसका अपना है या लोक-वेद का ? कहीं से उधार तो नहीं माँग लाया। मात्र पूछ लें। जब आ ही गये हैं तो कुछ पूछना है, तो पूछ ही लें। क्या लगता है। समय का कुछ उपयोग तो हो मैं भी देखता हूँ। हमारे यहाँ प्रतिदिन ऐसे व्यक्ति कुछ-न-कुछ आ ही जाते हैं, बिना उद्देश्य के, बिना काम के। मैं पूछता हूँ क्यों जी कैसे आ गए? बस स्वामी जी घर पर मन नहीं लगा, चला आया। कितने पुरुष कहते हैं क्या करूँ ? स्वामी जी घर कलह का स्रोत बन गया है। पत्नी बच्चे काँव-काँव करते हैं। बस चुपके से भाग आया। औरतें कहतीं हैं उनसे पटती ही नहीं, बड़े दुष्ट हैं, शराब पीते, गालियाँ देते हैं। आप कुछ कर दो स्वामी जी यही है मिलने वालों का उद्देश्य । उनको तंत्र से कोई वास्ता नहीं। तब गुरु बेचारा हो जाता है। जो आता अपना दुःख सुनाता, सुनने पर तैयार ही नहीं है। न ही दुःख को छोड़ने पर तैयार है। अब उस दुःख में ही उसे सुख आने लगा, रस आने लगा। उसके बिना जी भी नहीं सकता है। खैर देवी के प्रश्न का इन्तजार है शिव को देवी पूछती है-हे शिव, आपका स्वरूप क्या है? आखिर यह प्रश्न अभी क्यों? इसके पूर्व बहुत वर्षों से वह साथ-साथ हैं। पहले ही क्यों नहीं पूछ लिया। यदि वह नहीं पूछी तो शिव क्यों नहीं अपना परिचय दिए। इत्यादि प्रश्न उठ खड़े होते हैं। सम्भवतः देवी प्रथम बार प्रेम को उपलब्ध इतने नजदीक से शिव को देख रही है। जब वह प्रेम से लबालब हो, अत्यन्त नजदीक से देखती है तब उसके अन्दर कौतुहल उत्पन्न हो जाता है। ये वह नहीं है जिनसे मैंने विवाह किया। जिनसे बच्चे उत्पन्न हुए थे तो कोई और ही हैं। अब सगुण का भाव गिर गया। निर्गुण उपस्थित हो गया। भाव-विभोर हो गयी। जिसका शिव को भी इतने दिनों से इन्तजार था। इसी से प्रारम्भ काल में शिव की लिंगाकार में स्थापना की गयी। जो प्रकाश का, ऊर्जा का स्रोत है। यही खोत धीरे-धीरे ऊपर उठने लगता है।
देवी का प्रश्न महाभारत के अर्जुन से भिन्न है। अर्जुन एक प्रश्न करते, उसका उत्तर सुनकर दूसरा प्रश्न ठोक देते। दूसरे का उत्तर सुनते तो तीसरा प्रश्न ढूँढ लेते। मानो उत्तर सुनते ही न हो। किसी तरह युद्ध भूमि से भागने का उपक्रम खोजते हैं। कृष्ण के सामने हथियार डालने को तैयार नहीं हैं। आखिर कृष्ण भी जोगी करें, कहते हैं पूछ ले। आज ही अभी ही, जो-जो तू पूछना चाहता है। प्रश्नोत्तर अवरह अध्याय बन गया। तब अन्त में थक कर या कृष्ण का विराट रूप देखकर, भयातुर हो पूछते हैं-तू कौन है? क्या चाहता है। यहाँ देवी में अर्जुन से पात्रता बहुत ज्यादा है। देवी में सम्भावनाओं का मानो स्रोत ही छिपा हो। वह प्रेम से परिपूर्ण है। पूछती है-एकाएक बिना किसी पूर्वाग्रह के आपका सच्चा स्वरूप क्या है? अभी तक जो देखा, समझा ऊपरी तल पर, शरीर के तल पर वह आप नहीं हैं। देवी अपने प्रश्न के उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही दूसरा प्रश्न ठोक देती है। अब उसके उत्तर की प्रतीक्षा भी नहीं करती है। एक-एक मिनट उसके लिए असह्य हो रहा है। सोयी रही है इतने दिन का समय यों ही बर्बाद कर दिया। शिव का सच्चा स्वरूप भी नहीं समझ सक। आज तक जो कुछ समझा वह उनका स्वरूप है ही नहीं। अतएव अन्दर से उद्वेलित हो गयी है। इसी से बिना रुके प्रश्न पर प्रश्न पूछती जा रही है। यह विस्मय भरा विश्व क्या है? यह स्थिति साधक ही समझ सकता है। एक झेन फकीर रिझाई हुए हैं। जब वे आत्मोपलब्ध हुए तब बोले मेरा शरीर कहाँ है? मैं कहाँ खो गया ? अपने शिष्यों को बुलाये एवं कहे तुम मेरे शिष्य हो मेरी मदद करो। मेरा शरीर खो गया। तुम खोज लाओ। शिष्य विस्मय में पड़ गये। सोचा क्या हो गया गुरुदेव को क्या ये पागल तो नहीं हो गये। सद्गुरु अभी भी इसी स्थिति में कहते हैं-हे सखि मैं कहाँ खो गया ? अब मैं अपने को देख ही नहीं पाता। चारों तरफ तो वही है आखिर "मैं" क्या हो गया। उसी तरह झेन सन्त “हुई हुई" भी अपने शिष्यों से कहते कि जब तुम्हें यह भान हो जाये कि मेरा सिर अब नहीं है। ध्यान करते-करते जब यह भान हो जाये कि सिर ही खो गया तब तू मेरे यहाँ आ जाना। तू तब तुझे कुछ सिखाया जा सकता है। वह क्षण अत्यन्त ही सौभाग्यपूर्ण होता है वही क्षण देवी के लिए आ गया है। रूप विदा हो गया है। प्रेमी शिव निराकार हो गये हैं। ये ही विश्व बन गये हैं। कृष्ण के विराट रूप के सदृश उस निराकार शिव मैं ही समस्त ब्रह्माण्ड नजर आ रहा है। सारे तारे, नक्षत्र, पृथ्वी, ग्रह सिमटते हुए शिव में ही एकाकार होते नजर आते हैं। अतएव वह पूछती है यह विस्मय भरा विश्व क्या है? इसका बीज क्या है? विश्वचक्र की धुरी कौन है? इन्हीं प्रश्नों से नहीं रुकती। मानो वह स्वयं से प्रश्न कर रही हैं। यदि उसे जरा सा भी भान होता कि नहीं, उत्तर देने वाला दूसरा है, तो वह रुक जाती। इन्तजार कर लेती। सोचती क्या मूर्खता कर रही हूँ। अभी तक उत्तर तो दिया नहीं पहले प्रश्न का दूसरा क्यों पूहूँ। अतएव आगे बढ़ती है। रूपों पर दायें रूप के परे यह जीवन क्या है? देश, काल, नाम और प्रत्यय के परे जाकर हम कैसे पूर्णतः प्रवेश करें? आधे पर समझौता नहीं है। वह हिन्दू, मुसलमान, ईसाई के चक्कर में नहीं है। न ही देश, काल के ही फेरें में सबसे ऊपर उठकर उस परम पुरुष में पूर्णतः प्रवेश कर जाना चाहती हैं। इन प्रश्नों के अन्त में कहती हैं-मेरे संशय निर्मूल करें।
देवी का अन्तिम वाक्य अत्यन्त ही महत्व का है। उसे न ही अपने प्रश्नों से वास्ता है न ही उसका उत्तर चाहती है। वह चाहती है जो संशय है उसे ही निर्मूल करें। जब संशय निर्मूल हो जायेगा तब सारे प्रश्न उत्तर अपने आप निरर्थक हो जायेंगे। इसी से बुद्ध उत्तर देने के पहले कहते थे। कुछ दिन रुक जाओ। साधना करो। यदि तेरा उत्तर नहीं मिले तब हमसे पूछना। वे प्रश्नोत्तर के चक्कर में नहीं पड़ते। प्रत्यक्षतः देखने, अनुभव में विश्वास करते थे। देवी भी कहती है मैं अपना मन दिखाने के लिए प्रश्न किये देती हूँ परन्तु मेरा काम उत्तरों से नहीं चलेगा। वह तो संशय का निर्मूल नाश पूर्णतः नाश इससे कम पर समझौता नहीं चाहती।
क्रमशः....