साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
राहु का अमृत पीना
स्थान एवं समय निर्धारित होने के उपरान्त देवेन्द्र के द्वारा अधिकृत देवगणों को बुलाया गया, कुछ प्रमुख यक्ष गणों को भी बुलाया गया तथा लक्ष्मी एवं हरि के द्वारा प्राधृत एवं अधिकृत कुछ मानव संस्कृति के लोग भी सम्मिलित हुए। अमृत का बंटवारा शुरू हो गया। पहचान कर वह अमृत दिया जाने लगा। किसी तरह राहु नामक रक्ष संस्कृति का एक व्यक्ति भी वहाँ अपना भेष बदलकर केवल पहुँच ही नहीं गया वरन् उस वितरण में शामिल होकर अमृतपान करने में सफल भी हो गया। जिसे देवेन्द्र के द्वारा अन्त में पहचान लिया गया। देवेन्द्र के द्वारा हरि से इस बात को शिकायत की गयी। हरि ने प्रथम बार उस चक्र का प्रयोग उस राहु नामक राणास पर ही किया। जिससे वह दो भागों में कट गया परन्तु अमृतपान कर लेने के कारण उसका अस्तित्व दो हो गया। जो कालान्तर में राहु एवं केतु के नाम से विख्यात हुए।
हरि का समुद्र में निवास करना
हरि देव संस्कृति के बहुत ही सामीप्य में चले गये थे। जो देवेन्द्र चाहता लगभग वही करने को बाध्य होने लगे। इस तरह देवेन्द्र एक बार पुनः शक्तिशाली हो उठा। देवगणों ने सोचा कि यह भी कहीं शिव की तरह दूर न हट जाये इसलिए समुद्रराज जिसकी लड़की से इनकी शादी हुई थी, के यहाँ ही रहने का परामर्श दिया। देवेन्द्र के आदेशानुसार वहीं पर विश्वकर्मा के द्वारा एक अत्यन्त सुन्दर भवन का निर्माण किया गया।
विश्वकर्मा यानी देव संस्कृति के अभियन्ता प्रमुख, भवन निर्माण कला में अत्यन्त दक्ष एवं प्रवीण थे। अतएव उन्होंने समुद्र राज के नगर में ही एक ऐसे विचित्र भवन का निर्माण किया जो देखने में नाग (सर्प) की तरह दिखायी पड़ा यानी वह कुण्डल मारे सर्पाकार था जिसे कालान्तर में शेषनाग भवन कहा गया। वह सुरक्षा की दृष्टि से उत्तम तथा आराम के दृष्टिकोण से भी सुन्दर था। हरि लक्ष्मी के साथ वहीं निवास करने लगे। देव संस्कृति के लोग ही उनके सामीप्य में ज्यादा थे, जिसके चलते हरि एक बार पुनः मानव संस्कृति से कट से गये। यही काल रहा है जब देव संस्कृति हरि को जोड़कर इस भूखण्ड पर आ ही नहीं गयो वरन् इसका प्रचार-प्रसार जोर-शोर से होने लगा। मानव संस्कृति को पार करते हुए यह रक्ष संस्कृति तक पहुँच गयी।
समुद्र मंथन का आध्यात्मिक अर्थ
साधक साधना करता है तो सबसे पहले उसका श्वास प्रश्वास मूलाधार चक्र पर आघात करता है। मंदरा चल पर्वत रूपी स्तम्भ जो जन्मों से अचल है। मंद पड़ा है। उसे ही सर्पिणी (कुण्डलिनी) साढ़े 3 घेरा मार कर बैठी है। वही वासु की नाग है। हमारा मन ही दो तल पर घूमता है। आत्मा तल पर, शुभ संकल्प पर- यह देव है। शरीर तल (वासना तल) पर, अशुभ संकल्पों पर यह दानव है। योगी का यही है समुद्र मंथन। कुण्डलिनी के जागृत होते ही प्रथमतः साधक विषय से, वासना से भर जाता है। आप जब किसी सद्गुरु के सान्निध्य में जायेंगे तो आप हो सकता है वासना से भर जायें। या विरक्ति से भर जायें। यही कारण है कि व्यक्ति मंदिर, गुरुद्वारा जाना चाहता है। कर्म काण्डों में रहना चाहता है परन्तु सद्गुरु से भागता है। चूंकि उसकी ऊर्जा आपको अवश्य उद्वेलित करती है। यह आपकी पात्रता पर निर्भर करता है।
वासना का निकलना ही विष है। जो हर हालत में साधक का पतन करने है। उस वासना रूपी विष को ऊर्ध्वगति देना ही शिव को अर्पित करना है। जैसे ही यह अभ्यंगति प्रदान करता है, शिव में मिलता है वही ब्रह्मचर्य रूपी अमृत कर जाता है। जिसमें समाधि रूपी फल लग जाता है। फिर वहीं मूलाधार चक्र पर ही ऋद्धि-सिद्धि, शुभ लाभ साधक के अनुचर बन जाते हैं। इसके इच्छा मात्र से कार्य करने लगते हैं।
जो साधक उस विषय रूपी विष का पान कर लेता है, वही राक्षस है। उसमें वह मृत्यु को प्राप्त करता है। साधक की कुण्डलिनी जैसे जैसे चेतना के अवरो को पार करती है, उसमें उसी के अनुसार परिवर्तन आता है। वही हैं चौदह रत्न। अन्त में समाधि रूपो अमृत स्वयं नारायण अपने हाथों से पिलाते हैं। अर्थात् आप नारायण स्वरूप को ग्रहण कर लेते हैं। विशेष जानकारी के लिए हमारी पुस्तक 'कुण्डलिनी जागरण' देखिये।
रक्त संबंध एवं देव यज्ञ
धीरे-धीरे देव संस्कृति और मानव संस्कृति घुलने-मिलने लगी। यहाँ के श्रेष्ठ बलशाली राजाओं की शादी (रक्त सम्बन्ध) का सम्बन्ध देव कन्याओं से करने लगे। जो शादी नहीं करते उन्हें अप्सरा एवं सोमरस से अपनी तरफ आकर्षित करने लगे। इनके ऋषि-मुनियों के यहाँ भी शिष्य-शिष्या, दास-दासी के रूप में अप्सराओं को भेजने लगे। उनके जंगल स्थित आवास में भोग-सुविधा मुहैया करने लगे। इनका वर्चस्व मानव संस्कृति पर छाने लगा। देव संस्कृति को अब हरि (विष्णु) का सुरक्षा कवच प्रदान हो गया। जिस सुरक्षा कवच में जगह-जगह हरि का मन्दिर बनने लगा। हरि की आड़ में ही देवताओं का भी मन्दिर बनने लगा। वेदों के बाद पुराणों का श्रीगणेश होने लगा। विभिन्न पुराणों में विभिन्न देवों को स्तुति एवं उन्हीं का वर्चस्व कायम किया गया। धीरे-धीरे देवताओं की बाहुल्यता आ गयी। जितने मानव नहीं उससे भी ज्यादा देवता आ गये। कहीं-कहीं छत्तीस करोड़ देवताओं का उल्लेख मिलता है। जीवित-निर्जीव वस्तु, प्रकृति के हर रूप, हर आकार में एक अधिष्ताता देवता छिपा हुआ है। ऐसा उल्लेख कर दिया गया। इसी तरह का पठन-पाठन शुरू हो गया। एक बार फिर देव संस्कृति भारतीय आध्यात्म एवं तंत्र की चादर ओढ़कर मानव संस्कृति पर छाने लगी। अब यज्ञादि
के माध्यम से देवेन्द्र वगैरह की स्तुति शुरू हो गयी। देव संस्कृति पहले भारत भूखण्ड पर अपना विस्तार करती हुई रक्ष संस्कृति की तरफ मुखातिब हुई। पहले तो रक्त सम्बन्ध से ही अपना कार्य क्षेत्र का विकास किया। अब वे तंत्र में भी निपुण हो, गुरु का भी चोला धारण कर लिए। गुरु के रूप में अगस्त्य, शुक्राचार्य, पुलस्त्य, विशेश्रवा को दक्षिण में भेजा गया। उन्हें रक्ष संस्कृति को प्रभावित करने का उत्तरदायित्व दिया गया। ये भारतीय ऋषि के ही तंत्र तप की खाल ओढ़ दक्षिण की तरफ बढ़े। ये शिव के तंत्र विद्या का भी ज्ञान कर चुके थे अब क्या कहना था "एक तो करैला अपने तीत दूसरे चढ़े नीम के डार", वाली कहावत अक्षरशः चरितार्थ हुई। यह कला अद्भुत कारगर साबित हुई। समय-समय पर देवेन्द्र, काम, अप्सरा, सोम इत्यादि देव को लेकर उनके आश्रम पर विचरण करते रहते। अब ये ऋषि भी खुद अपना रक्त सम्बन्ध रक्ष संस्कृति की कन्याओं से करने लगे। जगह-जगह अपना विद्यालय चलाने लगे। जन-साधारण से उच्चस्तर के लोगों को वर्तमान ईसाई मिशनरी से आगे बढ़-चढ़ कर शिक्षा-दीक्षा देने लगे। धीरे-धीरे शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक आवश्यकताओं के केन्द्र के रूप में परिणत हो गये। जैसे-जैसे इनका प्रचार प्रसार दक्षिण में बढ़ता गया, वैसे-वैसे वहाँ के शासन पर अपना प्रभुत्व मजबूत करते गये। धीरे-धीरे ये रक्ष संस्कृति के नीति नियामक भी बन गये। शुक्राचार्य ने अपने को रक्ष संस्कृति के गुरु के रूप में अधिष्ठापित कर लिया। अब कोई भी कार्य शुक्राचार्य की इच्छा के बिना सम्भव नहीं था। शुक्राचार्य को निर्देशन प्राप्त होता था देवेन्द्र से।
शुक्राचार्य की कूटनीति
देवेन्द्र शुक्राचार्य की गति विधि देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्हें मानव संस्कृति की तरफ भी अभिमुख होने का निर्देश दिया गया। चूँकि शुक्राचार्य के कल-बल-छल, वाक्पटुता, सुन्दरता, तथाकथित धर्म, तंत्र के आगे वशिष्ठ भी पीछे छूट रहे थे। फिर भी सूर्यवंश को वशिष्ठ सम्भाल रहे थे। इधर चन्द्रवंश की ख्याति बढ़ रही थी। चंद्रवंशीय बहुत ही तेज, विद्वान, तंत्रवेत्ता थे तथा राजनीति में इनकी पहुँच भी सुदृढ़ थी। जिससे देवेन्द्र का भयातुर होना स्वाभाविक था। भयवश शुक्राचार्य का ध्यान इधर भी आकृष्ट किया गया। चन्द्रवंश की राजधानी वर्तमान प्रयाग में थी। जो प्रतिष्ठा का केन्द्र बनी हुई थी अतएव उसे प्रतिष्ठा नगर (प्रतिष्ठान पुर) के नाम से भी जाना जाता था। यहाँ के राजा ययाति बहुत ही धर्मप्रिय शासक, प्रतिभा सम्पन्न राजा बने। जिनकी शादी वृषपर्वा नामक राक्षस राज की कन्या शर्मिष्ठा से हुई थी। जिससे तीन पुत्र दनु, अनु, एवं पुरू थे। इन्होंने भी देवताओं पर आक्रमण कर इन्द्र को पदच्युत कर दिया था। यह आदेश भी दिया कि कम से कम हमारी तरफ अपनी संस्कृति को मत फैलाना। परन्तु इस कार्य में पहले से ही लगे शुक्राचार्य किसी तरह ययाति से संबंध स्थापित करने में समर्थ हो गए। शुक्राचार्य अपनी वाक्पटुता के चलते जैसे रक्ष संस्कृति पर छाये रहे। उसी तरह ययाति को भी फंसाना शुरू कर दिया। इससे पहले ययाति के खानदान में कभी भी देवगण से सम्बन्ध स्थापित नहीं हुआ था। ययाति ने कुछ दिन इन्द्र को हटाकर वहाँ पर भी राज्य किया था। परन्तु शुक्राचार्य की माया में फंसकर उनकी लड़की देवयानी से भी शादी कर ली थी। देवयानी अत्यन्त सुन्दर, चतुर एवं प्रशिक्षित लड़की थी। वह अपने रूप, यौवन, गुण और चतुरता से राजा ययाति को अपने प्रभाव में करने में कामयाब हो जाती है। जहाँ से शुरू होता है, मानव संस्कृति के पतन का इतिहास। यह क्रमशः आगे ही बढ़ता जाता है। यदि एक बार भी कोई व्यक्ति किसी तरह के दोष में फंस जाता है तो उसका निकलना असम्भव हो जाता है। कहाँ चतुर गुरु का सान्निध्य रहा तो सम्भव है अन्यथा शुक्राचार्य की तरह गुरु तो अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। उनका लक्ष्य शिष्य का मंगलमय भविष्य नहीं बल्कि अपना हित ही सर्वोपरि होता है। उनका लक्ष्य है- भारत भू-खण्ड पर आधिपत्य ।
शुक्राचार्य के चार पुत्र बाग्मी, बण्ड, मर्क और अभर्क भी अब विभिन्न तरीकों से विभिन्न भागों में फैल गये। यथा पिता तथा पुत्र-पुत्री की कहावत चरितार्थ होती है। एक लड़का विश्वावती से अपना धर्म एवं व्यापार का कार्य साथ-साथ फैलाता है। वही विश्वावती बाद में सिन्धु घाटी कहलायी। दूसरा एवं तीसरा पुत्र रक्ष संस्कृति की तरफ (दक्षिण) जाकर पुरोहित (यज्ञादि) का काम करने लगा। चौथा पुत्र शुक्राचार्य के साथ रहकर मानव-संस्कृति में तंत्र यज्ञादि का कार्य करने लगा। अब इसकी पहुँच राजघराने के अन्दर तक हो गयी थी। इससे इसका प्रभाव भारत-भूखण्ड पर शीघ्र ही हो गया। देवयानी रानी थी हो उस पर अविश्वास कैसे किया जा सकता था। वह गुप्तचर का भी काम करने लगी। तंत्र-मंत्र, गुप्त आयुध सामान, गुप्त मन्त्रणा सब को जानकारी शुक्राचार्य या अपने भाई को दे देती जो इनके माध्यम से देवेन्द्र तक पहुँच जाती। शुक्राचार्य को यह ज्ञात हो गया कि मानव संस्कृति अत्यन्त मजबू, एवं अभेद्य है अतएव वह वशिष्ठ, बृहस्पति, अगस्त्य इत्यादि के साथ देवेन्द्र की अध्यक्षता में मन्त्रणा करता है। सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पास किया जाता है कि इनकी संस्कृति को समाप्त करो। इन्हें आपस में ही बांटो । इन्हें आपस में तोड़ी। जब ये आपस में ही विभक्त हो जायेंगे, टूट जायेंगे। इनमें आपस में ही ऊँच-नीच का बोध हो जायेगा। तब इन पर शासन करना आसान हो जायेगा। बांटो तोड़ों के सिद्धान्त पर इन तथाकथित देवर्षियों ने कार्य करना शुरू कर दिया। अब बहुत सारे वेद भाग को अयोध्या में, कुछ प्रतिष्ठान में, कुछ पश्चिम उत्तर भाग में जोड़ा गया। स्मृति का भी गठन हुआ। जिसमें यहाँ के ही काले एवं सत्ता से च्युत लोगों को शूद कह दिया गया। जो दबंग राजा थे, उनसे ययाति की तरह रक्त सम्बन्ध कर विश्वास में ले लिया गया। अब शुरू हो गया सूक्ष्म रूप से मानसिक दमन चक्र एवं दुस्साहसिक सूजन। बहुत वर्षों तक तो इसका फला-फल भारतीयों को नहीं मालूम पड़ा। उन्हें क्या आवश्यकता पड़ी कौन क्या इतिहास लिख रहा है, पुराण या स्मृति। वे तो अपने कर्म में लीन थे। परन्तु पहले इन देवर्षियों ने यहाँ के वेदों में अपनी बातें घुसार्यों, पुराणों में अपनी बातें कहीं एवं स्मृतियों में तो नीति-नियम नाम का काला कानून कालों के लिए विषवमन था। इधर जितने लोग उतनी जातियां बना दी गयी। लगभग कुल छह हज़ार जाति-उपजाति बना दी गयीं। सभी को एक-दूसरे से छोटा-बड़ा बना दिया गया। इन स्मृतियों में अलग-अलग फला-फल का विवेचन किया गया। देवर्षि से उत्पन्न या देव कन्या से उत्पन्न लोगों को श्रेष्ठतम माना गया। इस तरह धीरे-धीरे यहाँ के लोगों को शक्ति एवं धन के आधार पर बांटा गया। उस समय कहा गया कि इससे सामाजिक रचना सुदृढ़ होगी। अब कार्य का बंटवारा नहीं करना पड़ेगा। मानव चक्र ठीक ढंग से आगे कदम रखता जायेगा। धीरे-धीरे जन्मजात ये जातियां हो गई। अब देवगण प्रसन्न थे। वही होता जो वे चाहते। उनकी इच्छानुसार मानव संस्कृति कार्य करने को मजबूर हो गयी।
देवेन्द्र स्वर्ग-नरक एवं जातियाँ
अब देवेन्द्र सहित अन्य देवताओं का वर्णन किया गया। उनका महत्व बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया। शब्द जाल बिछा दिया गया। उन्हें सर्वश्रेष्ठ बता दिया गया। उनकी इच्छा के बिना मानव कोई कार्य नहीं कर सकता था। अब आ गया स्वर्ग-नरक। जो अच्छा काम करेगा। वह स्वर्ग प्राप्त करेगा। जहाँ अत्यन्त सुख है। अप्पारा है। मनोवांछित फलाफल मिलेगा। सोमरस है। सभी युवा ही हैं। वृद्ध है ही नहीं। बस सारी सुख-सुविधा उपलब्ध है। जो युवा मन को चाहिये। अच्छा काम कौन-सा है? इसका भी विवेचन कर दिया गया। देवताओं को खुश करना ही अच्छा काम है। जिस विधि से देवगण खुश रहें वही पवित्र काम करें। देवता को खुश करने हेतु नये-नये यज्ञों का आविष्कार हुआ। अमुक यज्ञ से अमुक देवता प्रसन्न होंगे, वे आशीर्वाद देंगे। बस आपका कल्याण हो जायेगा। अब पृथ्वी बन
गई देवगणों का अभ्यारण्य। शुरू हो गया अनाचार, अत्याचार। यज्ञादि के माध्यम हसे जन-साधारण का शोषण होने लगा। देवर्षि एवं देवगणों की चलती हो गयी। जो भी इस कार्य का विरोध करेगा वह पापी होगा। वह नर्क जाएगा। नर्क में उसे बातनाएं दी जायेंगी। यह यातना यमराज-धर्मराज देंगे। देवेन्द्र के इशारे पर स्वर्ग-नरक का वर्णन कर दिया गया। सीधे-सादे भारतीय भू-खण्ड के लोग अब भयभीत हो गये उस स्वर्ग-नरक से। अतः मान लिया स्वनिर्मित पुरोधा प्रमुख की बातों को। सब अपने-अपने जातिगत कर्म में लग गये। अन्यथा नरक हो जायेगा। अब तथाकथित पुरोधा वर्ग समाज पर हावी हो गये। इनकी अहम् भूमिका रही वर्तमान समाज को बद से बदसूरत करने में। देव एवं देवर्षि का चारागाह बन गया यह अमृतमयी भू-खण्ड। इसी काल में आप पुराणों में पढ़े होंगे कि फलां देवर्षि, सूद कन्या (पराशर सत्यवती) से यौन सम्बन्ध कर दिए तो देवेन्द्र भारतीय ऋषि कन्या (अहिल्यादि) से। इस पृथ्वी को सुर-सुरा एवं सुन्दरी का स्थल समझ लिया।
इसी तरह तो लगभग छह हज़ार जातियां बनी हैं, इसी अवधि में। कुछ
जातियों का वर्णन निम्न प्रकार आया है-
ययाति + देवयानी
यदु
सहस्रजीत
श्रेष्ठ क्रौष्ट नीलांजिक
तुर्वसु
बहिह्न त्रिशनु करघम
वृजनिवाव
रूष्णु चित्राद्य शशबिन्दु
गोभानु
मरूत निवेश
स्वाहा
पृथुश्रवा
रूक्मकवच
ज्योमध
क्रथ कौशिक
लाभपाद
सहस्रजीत से जायसवाल (वैश्य समाज) श्रेष्ठ से-गोस्वामी एवं ब्राह्मण, ततवां, सेनुरिया क्रोष्ट से-सूठी वैश्य, राठौर, चौहान, क्षत्रिय
नोलॉजिक से-ब्राह्मण
रघु से-भूमिहार एवं ब्राह्मण
तुर्वसु से- क्षत्रिय, जिस खानदान में आगे दुष्यन्त भी हुए। देवर्षि समाज के स्व-निर्मित अगुआ हो गये। समाज के राजा-सशक्त, लड़ाकू को मिला लिए। इन्हें भी स्वर्ग का सुख मिला। वाणी मौन होना स्वभाविक था। शास्त्रों का रूप बदल दिया गया। अब पुण्य कार्य (यज्ञादि) हेतु वैश्य को धन देना ही पड़ेगा। शूद्रों को सेवा। पुराण सूत्र बदला गया। पूर्व में कह चुके हैं कि इसी काल में मनुस्मृति एवं पराशर स्मृति का गठन हुआ। जिसमें विषवमन किया गया। यथा पराशर स्मृति आ 6/25
चाण्डालखातवणीषु पीत्वा सलिलमग्रजः । अज्ञानाच्चैकनक्तेन त्वहोरात्रेण शुद्धयति ॥
चाण्डालभण्ड संस्पृष्टं पीत्वा कूपगतं जलम्। गोमूत्रयावकाहारस्त्रिरात्रात् शुद्धिमापुयात् ॥
यानी शूद्र के द्वारा बनाया गया कुंआ आदि से कोई ब्राह्मणादि अज्ञान से जल पी ले तो वह 24 घंटा उपवास करके शुद्ध होता है। शूद्रं या चण्डाल के बर्तन का जिस कुएं से स्पर्श होता है, उस कुएं का जल यदि कोई पी ले तो वह तीन दिन रात गोमूत्रपात और गोमूत्र के भीगे हुए जौ का भक्षण करके शुद्ध होता है- मनुस्मृति के अनुसार-
मार्जारनकुलों हत्वा चायं मंडूकमेव च। खगोघोल्लूक काकांश्च शूदहत्याव्रतं चरेत् ।।
यानी बिल्ली, नेवला, नीलकण्ठ, मेढ़क, कुत्ता, गोह, उल्लू और कौआ इनमें से किसी को मारकर शूद्र हत्या किये जाने वाला व्रत करें।
वर्तमान युग के तथाकथित प्रवर्तक जो सन्त तुलसीदास जी, संत कबीर से भी छोटे थे। पता नहीं कैसे उसी परम्परा को आगे बढ़ा दिए, जहाँ कबीर ऐसा महामानव इस पर प्रहार कर रहे थे-सन्त तुलसीदास मानस में-
पूजिय विप्र शील गुण हीना। शूद्र न गुणवान ज्ञान प्रवीना। शोचिय शूद्र विप्र अपमानी। मुखर मासाप्रिय ज्ञान गुमानी ॥ जाहु छांह छुई लेई असीचा। लोक, वेद, सबही विधि नीचा। ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी। ये सब ताड़न के अधिकारी ॥ इतना ही नहीं आगे-,
अहीर, यवन, किरात, खस, स्वपचादि अति अध रूपजे। यह कुण्ठा पुरातन स्मृतियों से ही चलकर तुलसीदास तक आ गयी। चूंकि ये भी संस्कृत के महान् पण्डित थे। स्वयं लिखते भी हैं कि नाना पुराण, स्मृति पढ़ने के बाद स्वांतः सुखाय इस रामायण को लिख रहा हूँ। इससे औरों के सुख की अपेक्षा नहीं है। भले ही इस वाणी से समाज में द्वेष फैल जाये, उन्हें तो अपना सुख चाहिये। यही प्रतीक है समाज के पुरोधा का, अगुआ का। खैर हम वस्तु स्थिति से विषयान्तर हो रहे हैं। अतएव पुनः लौटें उसी युग में।
हरिनएण्कश्यप एवं प्रहलाद
पुराणों से यह भी ज्ञात होता है कि हिरण्यकश्यप ने कश्यप तट से अलग लक्ष्मी (धन सम्पति) की खोज़ करना शुरू की। देवगण चूंकि अब तक सशक्त हो गये थे। चूंकि इसके ही छोटे भाई थे। वहाँ बंटवारे को लेकर भी युद्ध हुआ, जिसे प्रथम देवासुर संग्राम कहा जा सकता था। हालाँकि पिता की आज्ञा से अब तक देवगण की रक्षा एवं पोषण का कार्य इसी के द्वारा किया गया परन्तु वे सदा धूर्तता से इसे एवं इसके परिवार को मारने पर उतारू रहते थे। इन परिस्थितियों में त्याग एवं मेहनत के बल पर हिरण्यकश्यप एवं हिरण्याक्ष ने प्रथम बार समुद्र का उल्लंघन किया। जहाँ इनकी मेहनत काम आयी। सोने की खादान मिली। वहाँ अपना राज्य स्थापित किया। सभी अमन-चैन से रहने लगे। जिसका पता देवगण को लग गया। चूंकि वे संख्या में ज्यादा थे। इनका काम ही था पता लगाना कहाँ किसने धन इकट्ठा किया। उसे छीन लो। हड़प लो। ये भी अपना रूप बदलकर समुद्र का उल्लंघन कर वहाँ पहुँच गये। हिरण्याक्ष ने रोकना चाहा परन्तु हिरण्यकश्यप ने मना कर दिया ये भी हमारे भाई हैं। कमजोर हैं। जनसंख्या में ज्यादा हैं। इन्हें भी इस राज्य के मध्य भाग में रहने दो। ये भी मेहनत करेंगे एवं आराम से रहेंगे। ये देवगण भी खुशी-खुशी मान गये परन्तु हिरण्यकश्यप ने कह दिया कि यहाँ सोमयज्ञ नहीं होगा। अप्सराओं का आना जाना नहीं होगा। आप सभी परमपिता परमात्मा का ध्यान करें, यथाशक्ति परिश्रम करें। यह बात देवगणों के गले से नहीं उतर रही थी उनका तो ध्यान था यहाँ के सम्पत्ति पर। किसी भी तरह इसे हस्तगत कर लिया जाए। इन्द्र के नेतृत्व में रात्रि में सोई हुई हालत में देवगणों ने हिरण्याक्ष पर हमला बोल दिया एवं उसे मारने में सफलता भी पा गये। इसे देवासुर संग्राम द्वितीय भी कहा जा सकता है। हिरण्यकश्यप अकेले पड़ गया। देवगण बहुत थे ही। वह उदार भी था। सोचता था कि अपने ही भाइयों से बार-बार युद्ध करना ठीक नहीं लगता अतएव उनसे सन्धि कर वहाँ का पूरा राज्य देवगण को सौंपकर चल दिया अज्ञात स्थान के लिए। अपने परिवार के सदस्यों को लेकर बहुत दिन यत्र-तत्र घूमता रहा, अपने लिए उपयुक्त जगह की तलाश में। इसी कालावधि में पूर्व-मध्य भाग में रक्ष संस्कृति के रक्षक किसी तरह अपने को बचाते हुए आ बसे। अपनी तंत्र साधना में मस्त, मेहनत-ईमानदारी चरित्र से अपना राज्य-काज चलाने लगे। देव संस्कृति के द्वारा निर्मित यज्ञ यहाँ नहीं होता था। देवताओं के आने-जाने पर भी रोक थी। देवेन्द्र एवं शुक्राचार्य का पूरा ध्यान केन्द्रित था वहाँ। शिव (परमपिता परमात्मा) का परम भक्त । तंत्र विज्ञ विशारद हिरण्याक्ष को देवेन्द्र ने किसी तरह छल से हरि की मदद से मार गिराया। अब सोचा कि हिरण्यकश्यप भय से हमारी बात मान जायेगा। परन्तु दृढ़ निश्चयी हरिण्यकश्यप इसके लिए तैयार नहीं था। उससे युद्ध करने की भी हिम्मत किसी में नहीं थी। चूंकि वह अद्भुत योद्धा था। अपनी संस्कृति में ही शिवोक्त विधि का पालन करता था। तब देवेन्द्र ने उसके लड़के प्रहलाद को किसी तरह मिलाने का प्रयास किया। जिसमें उनको सफलता भी नारद के माध्यम से मिली। कम वय का प्रह्लाद स्वर्ग सुख के चक्कर में पड़ गया। एवं अपने पिता का सारा रहस्य देवेन्द्र को बताने लगा। यह राज हिरण्यकश्यप को पता चल गया। उसने प्रह्लाद पर कुछ सख्ती की। समझाया-बुझाया कि बेटा राज्य के अन्दर की बात को किसी बाहरी से नहीं कहना चाहिये। ये देवता तुम्हारी सभ्यता संस्कृति को उसी तरह नष्ट कर देंगे जैसे मानव की संस्कृति को कर रहे हैं। प्रहलाद सबसे छोटा पुत्र था। इस बात पर आप ध्यान दें कि रक्ष संस्कृति के किसी भी राजा या व्यक्ति की एक ही पत्नी होती थी। सन्तान भी कम होती थी। उनका अवैध सम्बन्ध कहीं भी नहीं होता था। उनके यहाँ शराब, मांस, जुआ, आदि का प्रचलन नहीं था। यह सब देव संस्कृति की ही देन है। प्रहलाद के पठन-पाठन की सुविधा भी राज्याज्ञा से अलग कर दी गई। परन्तु इनकी गुप्तचर शाखा मजबूत नहीं थी। जहाँ देवगण की नारदीय व्यवस्था (गुप्तचर) अत्यन्त संवेदनशील थी। उसकी पहुँच सर्वत्र थी। इसीलिए कहा गया है कि कौन सभा जहाँ नारद नहीं ? इस व्यवस्था के प्रतिनिधि को भी नारद ही कहा जाता था। वे बहुत ही निपुण एवं कुशल होते थे। हिरण्यकश्यप के राज्य में प्रहलाद की मदद से नारदीय व्यवस्था प्रवेश कर गयी थी। समय पाते ही राज्य का उत्तराधिकार देने एवं स्वर्ग का सुख उपलब्ध कराने का आश्वासन देकर राज्य विद्रोह करने की बात कही जाती। यहाँ भी सृष्टि का नियम है कि प्रत्येक कुशल दक्ष व्यक्ति अपने ही खून से मार खाता है। चूँकि अपने को बचाने की इच्छा ही बलवती रहती है। वही इच्छा प्राणघातक होती है। प्रह्लाद के द्वारा देवगणों को यह बात ज्ञात हो गयी कि राज्य की समस्त जनता सूर्यास्त (गोधूल) समय प्राणायाम एवं ईश्वर प्रणिधान में रहती है। उस समय कोई भी व्यक्ति अस्त्र-शस्त्र नहीं उठाता। हिरण्यकश्यप अमुक जगह बैठकर ईश्वर ध्यान में रहता है। उस समय में कुछ भी नहीं करता। समस्त राजकाज भूलकर ध्यान में रहता है। यही समय उपयुक्त समझा देवगण ने। अतएव दलबल के साथ एकाएक धावा बोल दिया। रूप बदलकर देवेन्द्र ने बाघनखा से सीधा प्रहार कर दिया। हिरण्यकश्यप तो ध्यान में था। वह शरीर का भान भूल-सा गया था। बगल में प्रह्लाद खड़ा था। जो सभी को आमन्त्रित किया था। देखते-ही-देखते हिरण्यकश्यप का पेट चीरकर मार डाला। देवेन्द्र ने सोचा कि प्रजा एवं सेना कहीं विद्रोह नहीं कर दे। अतएव तुरन्त प्रह्लाद का राज्यारोहण कर दिया गया।
प्रह्लाद स्वयंभू राजा बन बैठा। अपने ही पिता के रक्त रंजित हत्यारे की मदद से। अब देवगण का काम आसान हो गया। शुक्राचार्य पहुँच गये। प्रहलाद ने विधिवत् शुक्राचार्य को पुरोहित नियुक्त कर दिया। राज्य प्राप्ति की खुशी में देवगण को खुश करने हेतु शुक्राचार्य को यज्ञ करने का आदेश दिया। अब देवेन्द्र समेत देवर्षिगण का अवाध आने-जाने का रास्ता खुल गया। देव संस्कृति तेज गति से प्रह्लाद के नेतृत्व में चल उठी। अब देव संस्कृति का अलग राज्य हो गया। देव संस्कृति बे रोक-टोक रक्ष संस्कृति, मानव संस्कृति के ऊपर श्रेष्ठ नज़र आने लगी। जो उनकी पूजा करता वही महात्मा कहलाता। वही स्वर्ग सुख का अधिकारी होता। ऐसा किया भी जाता। स्वर्ग लोक घुमाया जाता। कुछ दिन वहीं रहने एवं सुख भोगने की छूट भी दी जाती। पुनः उन्हें लौटा दिया जाता। जो उनका अब विरोध करता उनको भी पकड़कर नाना प्रकार का कष्ट देते। यह कष्ट खौलते हुए पानी में फेंकने से लेकर पत्थर से मार-मार कर अधमरा तक कर देना था। दुःखों का नाना प्रकार से आविष्कार कर लिया गया। कुछ लोग दुःख देखकर भयभीत हो गये। जो ये कहते स्वतः करने को तैयार रहते। कुछ सुख देखकर उसी लालच में पड़े रहते कि किस विधि से इन्हें खुश करना है जिससे ये हमें स्वर्ग सुख प्राप्त करा सकें। अब चल दी अबाध गति से दुकान स्वर्ग-नरक की। यह अत्यन्त ही दारूण दुर्घटना थी। उस समय के मानव एवं रक्ष संस्कृति के लोगों के लिए। सभी लोग इस तरह के छल छद्म से मारने के चलते दुःखी थे। यह भी कोई बात हुई कि ऐसा चरित्रवान राजा (हिरण्यकश्यप) जब ईश्वर प्रणिधान में हो उसी समय मारा जाये। यह काम तो अधमाधम व्यक्ति भी नहीं करता। कम से कम पूजा के समय तो नहीं ही करता। यह घटना अत्यन्त शर्मनाक एवं दुःखद थी। परन्तु कहें किस से ? कौन अब सुनने वाला है? सर्वत्र अनाचार का राज्य है। सर्वत्र देवता अब बलशाली नज़र आ रहे हैं। वर्तमान युग की जनता तो विरोध प्रकट कर ही सकती है। अतएव गोधूल समय किसी तरह का शुभ कार्य छोड़ दिया गया। जैसे उस समय खाना-पीना, हंसी-खुशी मनाना। सामाजिक सांस्कृतिक कार्य करना। जो अभी तक मानव संस्कृति में भी चला आ रहा है। देवगणों का अभी तक विरोध प्रकट करता आ रहा है।
क्रमशः....