रहस्यमय लोक में गतिमान

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

रहस्यमय लोक में गतिमान

  धर्म, अपने आप में व्यापक अर्थों में जीव-जगत की अस्तित्व-चिंता और संभाल का क्षेत्र है । जैव-संस्कृति के श्रेष्ठतम प्राणी होने के कारण मनुष्य पर सर्वाधिक बार आता है। अतः धर्म, मनुष्य की अध्यात्मिक, परम-आत्मिक उन्नति की प्रेरणाओं का क्षेत्र बन जाता है। इस क्षेत्र में, धर्म-क्षेत्र में प्रवेश के द्वार श्रद्धा ,आस्था, निष्ठा ,विश्वास में खुलते हैं। क्योंकि मनुष्य मात्र भौतिक अस्तित्व (स्थूल अस्तित्व देह) तक ही सीमित पुरानी नहीं है, उसको अन्य दो अस्तित्व ( सूक्ष्म अस्तित्व ,मन तथा कारण अस्तित्व ,आत्मा या चेतना ) भी उपलब्ध है। (पतंजलि योग सूत्र) इस कारण मनुष्य तीन- तीन स्थितियों का स्वामी है। अकेला इकहरा नहीं। इन तीनों स्थितियों के रोग ,वैद्य एवं उपचार -औषधियां भी पृथक -पृथक उत्तरोत्तर सूक्ष्म एवं रहस्य पूर्ण है। इनकी अवस्थिति ओऽम के प्लुत (त्रैमात्रिक) उच्चारण तथा शांति पाठ में तीन बार शांति: शांति: शांति: घोष का विधान भी मात्र काल्पनिक किन्ही अवधारणाओं का पिष्टपेक्षण नहीं अपितु मनुष्य- लोक एवं ब्रह्मांड- लोक के-- त्रिलोकी स्वरूप के स्वीकार हैं। तभी वनस्पतियों ,ग्रहों की शांति को मनुष्य के बाह्म अंतर लोको की तिहरी शांति से संयुक्त करके प्रार्थना की जाती है।

          कबीर, रैदास, नानक, दादू, मलूक आदि संतों ने इन लोको को जाना ,देखा और अपनी वाणीयों में स्पष्ट उल्लेख भी किए , ये लोक जो मनुष्य के बाहरी परिवेश भी हैं और आंतरिक परिवेश भी है। वेद -पुराण उपनिषद ने भी कहा ,यथा ब्रम्हांडे  तथा पिंण्डे यथा पिंण्डे तथा ब्रह्मांडे। और साथ ही नेति- नेति भी कहा । अर्थात् इतना सब जान लेने के उपरांत भी ब्रह्मा और उसकी सृष्टि के रहस्यों को पूरी तरह जान पाना असंभव है ।इस ज्ञान की कोई इति नहीं, अंत नहीं।सृष्टि की इस घटना की रहस्यमयता बनी हुई है ।तो भी ध्यान ,योग के बल पर जो उपलब्ध हुआ उसे हमारे धर्म- ग्रंथों ने ,संतों ने उल्लिखित किया।

        संत कबीर ने मनुष्य के शरीर के भीतर ब्रह्मांड के अवस्थित होने को इस पद में कहा है -------

  इस घट अंतर बाग बगीचे, इसी में सिरजनहारा।
इस घर अंतर सात समुंदर, इसी में नौलख तारा।
इससे घर अंतर पारस मोती, इसी में परखनहारा।
इस घट अंतर अनहद गरजै, इसी में उठती फुहारा।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, इसी में साईं हमारा।

    जैसे धरती के जीवन का केंद्र सूर्य है ,वैसे ही मानव के जीवन का केंद्र उनका मन है। कबीर अपने स्थायी आवास का पता भी बताते हैं -------
सुर नर मुनिजन औलिया, ए सब उरली तीर।
अल्लाह राम का गम नहीं, कहां घर क्यों कबीर ।।
    
   अर्थात् इस भौतिक लोक में, चैतन्य प्रवाह रूपी नदी के उरले तट पर देवता, नर, मुनि जन, औलिया और शगुन अल्लाह ,राम आदि स्थित है, किंतु इस लोक के प्रवाह के पार-परालोक में कबीर कहते हैं ,उनका घर है ,आवास है ।
    संत, दृश्य एवं अदृश्य लोकों के यथार्थ में समान गति रखते हैं।इन दोनों लोकों के बाह्य एवं अंतर को संवारने ,संभालने उन्नत बनाने हेतु उनका पूरा जीवन ही एक लंबी प्रार्थना सरीखा होता है। ''शब्द"की शक्ति ,जो सृष्टि के अस्तित्व में आने का भी कारण है ,जिसे सभी धर्मों- हिंदू, ईसाई, मुस्लिम आदि स्वीकार करते हैं, उसी शब्द के माध्यम से इस शब्द - सृजित सृष्टि और इसके रहस्यो से पर्दा हटाने के सतत क्रम में कवि ,योगी, संत, सन्यासी ,रहस्य- दर्शी नित्य क्रियाशील रहते हैं तथा संतों की वाणी अन्य अर्थात अनुभव की हुई, अनुभूत वाणी कहलाती है। और यह तथ्य है, कि जो वेद में है ,वह संतों की वाणी में है।
   
         स्वामी कृष्णानंद जी द्वारा 'रहस्यमय लोक' ' ग्रंथ भी उक्त संदर्भ में शब्द के माध्यम से अपने अनुभवों को मुद्रित रूप में प्रसारित करने के संकल्प का मूर्त रूप है। इससे पूर्व, इसी क्रम में, उनके 12 ग्रंथ सेवकों-भक्तों को प्रकाशित कर, उपलब्ध कराए जा चुके हैं, जिनमें प्रमुख है ----- क्रांति महाविश्व, , कहै कबीर गुरु बसै बनारसि, क्रान्ति महाजीवन, यंत्र मंत्र रहस्य ,सर्वर से समाधि, दिव्य गुप्त विज्ञान,नानक भगता सदा विगासु, आदि। रहस्य मय लोक को भी स्वामीजी के पूर्व सृजित इन ग्रंथों की पंक्ति में, विषय-उद्देश्य निर्वहण की सृष्टि रखकर देखना अभीष्ट होगा। साथ ही यह भी ध्यान देना होगा कि इक्कीसवीं शताब्दी के चौथे वर्ष में ज्ञान-विज्ञान के वर्चस्व वाले समय में इस ग्रंथ को अध्यात्म भावना के तर्कों की परिधि में ही जानना- समझना समीचीन होगा।

     ब्रह्मांड ,ब्रम्हजल ---चैतन्य आलोक से आपूरित है। कबीर जीव को मीन( मछली) का प्रतीक मानकर करते हैं ---जल विच मीन प्यासी, मुझे सुन-सुन आवै हांसी     अर्थात इस सारे ब्रम्हाण्ड में, जो ब्रह्म जल से भरा हुआ है। यहां मछली रूपी जीव इस जल में रहता हुआ भी प्यासा है ,यह जानकर हंसी आती है। संत दादू दयाल भी कहते हैं   -------

सार भरया दस दिसि,पंछी प्यासा जाय ।
दादू गुरु प्रसाद बिन, क्यों जल  पीवै आय ।।

अर्थात समूचे ब्रह्मांड जल से भरे सरोवर की भांति है। जीव पक्षी की भांति आता है परंतु उज्जैन नहीं पी सकता, जब तक कि गुरु इन जल , ब्रह्मा जल का ज्ञान नहीं कराता । गुरुद्वारा आत्मज्ञान और परम आत्मज्ञान का बोध कराए जाने पर ही जीव से ग्रहण करके अपनी आत्म तृप्ति कर सकता है।
         उक्त अवध धारणाओं की भांति ही अध्यात्म के रहस्यमय अन्य कई आयामों को स्वामी कृष्णानंद जी ने अपनी प्रस्तुत पुस्तक ---रहस्यमय लोक में उद्घाटित करने का यत्न किया है।व्यक्ति-मन के आंतरिक लोको की यात्रा में वह अपने अनुभवों को पाठकों से साझा कर रहे हैं।


     "यथा ब्रह्मांडे तथा पिंडे"की अवधारणा को दृष्टि में रखते हुए ध्यान अवस्था में मन के भीतर के सूक्ष्म रहस्य लोकों में गमन करें तो ऐसे - ऐसे अदृश्य, अपरिचित-अप्रत्याशित लोकों का साक्षात होता है, जिन्हें योगी कोई भी नाम दे लें --"सूक्ष्म काशी","अलकापुरी",    "सिद्धाश्रम","ज्ञान गंज", किंतु हम अपने ब्रह्म की स्मृतियों-अहसासों से नितांत पृथक होते हैं। वस्तुतः वामपंथी-योगियों, सिद्धों ने अपनी तांत्रिक साधनाओं के मध्य एवं फल स्वरुप आध्यात्मिक रहस्यमयता को जैसे परिचित नामों से अभिहित करके सृष्टि संरचना के समांतर प्रतीकात्मक सृष्टि के रूप में संकेतिक किया, उक्त पुस्तक में भी इसी विधि को अपनाया गया है। इसी प्रकार"सृष्टि का उल्टा वृक्ष"में धर्म की अमूर्त अवधारणा को बोधगम्य बनाने के लिए "वृक्ष"के परिचित प्रतीक-रूपक का आश्रय लिया गया है। धर्म-वृक्ष की जड़े आकाश में अर्थात परालोक में है, और शाखाओं-पराशाखाओं एवं पत्तों का विकास फैलाव भौतिक जगत- मृत्यु लोक मे है। अतः धर्म को समझने में सुभिता होता है। पुराणों की इस प्रतीक-रूपक की सत्ता को श्री स्वामी जी ने अपने अनुभव को मूर्त करने हेतु उपयोग में लिया है। इसी प्रकार अन्य अवधारणाओं को समझा जा सकता है। जैसे मां के गर्भ से एक बार जन्म लेकर, इसी जीवन में ज्ञान-आलोक में पदार्पण करना"द्विज"हो जाना--दूसरा जन्म पा लेना है। इसी प्रकार गुरु की कृपा से आत्मज्ञान प्राप्त कर लेना मुक्तिकाधर्मी जीव का पुनर्जन्म पा जाना है। अपनी आस्था से साक्षात्कार हो जाने के पश्चात परम-आत्मा(परम सूक्ष्म, विराट,ब्रह्मांड- व्यापी चेतना) से साक्षात्कार घटित हो जाना ही "परमात्मा से मानव का साक्षात्कार" होना है। दैहिक, दैविक, भौतिक --इन तीनों तापों को भगवान शिव शंकर का त्रिशूल क्यों न माना जाए?      
   अतः कहना होगा कि चर्म चक्षुओं--स्थूल को देखने वाले ब्रह्म नेत्रों की सामर्थ्य एवं पहुंच से परे अदृश्य,सूक्ष्म, बृहत-विराट की विद्यमानता जहां विज्ञान क्रम-क्रम पहुंच पा रहा है वहां का सांकेतिक प्रतीकात्मक अभास श्रद्धा आस्था- वानों को देने के लिए सफल रोचक प्रयासों में प्रस्तुत पुस्तक की सार्थकता को आंका जा सकता है। संतो के अनुभव संसार में ध्यान योग भक्ति के साधना मार्ग को नवधा भक्ति के अतिरिक्त दशधा भक्ति मार्ग माना जाता है। प्रस्तुत पुस्तक हमारे विचार में अपने आशय में, इसी मार्ग का अनुसरण करती है, जहां सगुण-निर्गुण एवं योग की सम्मिलित विधियां समाहित है। आध्यात्मिक साधना-पथ के पथिको में नई अनुभूतियों का प्रस्फुरण कर उन्हें पुरस्कृत करने में सफल होगी वह पुस्तक, ऐसा मेरा विश्वास है।