साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

सत्यव्रत का सशरीर स्वर्ग जाना

सत्यव्रत अपने राजमहल में लौटकर उस स्वर्ग की कामना में चिन्तित हो गये। सोचने लगे क्या यह सब करना निरर्थक है? इस तरह सत्यव्रत चिन्ताओं से ग्रस्त हो विश्व-मित्र के आश्रम चरित्रवन पहुँच गये। गुरुदेव को दण्ड प्रणाम करने के पश्चात् अपनी चिन्ताओं का कारण बताया। गुरुदेव देवमाया समझ मुस्कुरा उठे। क्या राजन तुम भी तथाकथित सुख के फेर में पड़ गये ? क्या देवेन्द्र की माया तुझे भी नहीं छोड़ती ? छोड़ेगी भी कैसे वशिष्ठ कामदेव, रम्भा आदि अप्सराओं के साथ सत्संग लाभ करा रहा है। सुख के चक्कर में क्यों पड़े हो ? जो सुख चाहता है उसे दुःख भोगना पड़ता है। जो युवक बना रहना चाहता है, उसे बूढ़ा होना पड़ता है। जो स्वर्ग चाहता है, उसे नरक जाना पड़ता है। तुम सुख दुःख, स्वर्ग-नरक से ऊपर उठ जाओ। पा लो उस आनन्द को जो तुम्हारे भीतर ही है। उसकी अनन्त सम्भावनाएँ हैं। आनन्द ही है केवल, आनन्द के उलटा कोई शब्द नहीं है। आनन्द हो तो सच्चिदानन्द है। स्वर्ग-नर्क, सुख-दुःख यह सभी देवमाया है। देवता भी मानव शरीर पाकर गुरु धारण कर उस परमानन्द को प्राप्त करना चाहते हैं। परन्तु सत्यव्रत विक्षिप्त हो गया है। "आरत हृदय न रहे चेतु, फिर-फिर कहे आपन हेतु"। बार-बार अपना ही आग्रह दुहरा रहा है एवं कहता है कि गुरुदेव मात्र एक बार मुझे स्वर्ग को भेज दें। मात्र कुछ काल के लिए ही सही। इसके बाद आपके बताये हुए सत्यपथ पर चलकर सत्य को उपलब्ध हो जाऊँगा। लोग कहते हैं कि स्वर्ग जाने की कला मात्र वशिष्ठ में ही है। वशिष्ठ भी हमसे बार-बार देवसंस्कृति अपनाकर स्वर्ग भेजने का लालच दिए। उनका स्पष्ट मन्तब्य था यह कार्य मेरे सिवा कोई नहीं कर सकता। अयोध्यावासी आतुर दृष्टि से वशिष्ठ की तरफ देखने लगे है। मेरे लिए न सही अयोध्यावासियों के लिए ही कुछ काल के लिए मुझे सशरीर स्वर्ग भेज दो। जब वशिष्ठ, अगस्त्य, शुक्राचार्य, भृगु इत्यादि लोगों का गमनागमन है तो मैं क्यों नहीं जा सकता। क्या आप से यह सम्भव नहीं है। इन बहुतेरे प्रश्नों से विश्व-मित्र को बेध दिया। विश्व-मित्र नहीं चाहते हुए भी बोले-वत्स । तुप्ते स्वर्ग इस शर्त पर कुछ काल के लिए भेज सकते हैं कि वहाँ किसी देवता, अप्सरा के चक्कर में पड़कर अपना चरित्र मत खोना। हाँ वहाँ भी मानव संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना। देव लोगों को भी तंत्र विद्या बताना जिससे ये तथाकथित भोग वृत्ति से बाहर निकलकर अपने स्वरूप को जान सकें।

सत्यव्रत सहर्ष स्वीकार कर लिए। महर्षि विश्वमित्र के द्वारा सशरीर स्वर्ग भेजने के लिए सोन नगर में यज्ञ का आह्वान किया गया। जो बिहार के रोहतास पर्वत के नज़दीक पड़ता है। यज्ञ प्रारम्भ हो गया। उस यज्ञ में किसी भी देवता ने अपना यज्ञ भाग नहीं स्वीकार किया। विश्व मित्र के शिष्य बताये कि गुरु देव! अग्नि भी स्वयं नहीं प्रगट हुई। न ही अन्य ग्रह-नक्षत्र या आमन्त्रित देवगण हो आये। सभी तिरस्कारपूर्ण नजर से देखते हैं। वशिष्ठ के पुत्र भी यज्ञ में सम्मिलित हो नहीं हुए। विश्व-मित्र अपनी झोपड़ी से बाहर आते हैं। कह उठते हैं-देवगणों आखिर तुम चाहते क्या हो ? तुम्हारी मनमानी नहीं चलेगी। तुम अपना यज्ञ भाग स्वीकार करो। यज्ञ में सशरीर उपस्थित हो जाओ। अन्यथा तुम समझना। इतना कहना था कि मानो सभी काँप उठे। सहसा सभी एकाएक सशरीर प्रगट हो गये। उ यज्ञ प्रारम्भ हो गया। वशिष्ठ के पुत्रों से बोले तुम शूद्रवत आचरण करते हो। अहं में रहते हो। तुम शूद्र हो जाओ। वही काशी के शूद्र हुए। यज्ञादि के बाद विश्वमित्र के आदेश से सत्यव्रत सशरीर आकाश की तरफ उठने लगे तथा स्वर्ग के लिए प्रस्थान कर दिए।

ज्यों-ज्यों वह स्वर्ग के नज़दीक पहुँच रहे हैं त्यों-त्यों देवलोक में कौतुहल बढ़ने लगा। इधर विश्वमित्र का भय भी था उधर देवताओं के अस्तित्व का खतरा भी। अस्तित्व के रक्षार्थ इन्द्र ने अपने वज्रास्त्र का प्रयोग कर डाला, जिससे सत्यव्रत को गम्भीर चोट लगी एवं वे उल्टे हो गये। मुँह नीचे हो गया और पैर ऊपर। मुँह से क्रन्दन की आवाज़ निकली। गुरुदेव बचाओ का चीत्कार हुआ। जिससे जो पानी निकला वह एक नदी का रूप धारण कर लिया जो कालान्तर में कर्मनाश कहलायी।

कर्मनाश यानी कर्म का नाश हो गया हो। अभी भी यह भ्रान्त धारणा है कि कोई व्यक्ति तीर्थ यात्रा से लौट रहा हो एवं कर्मनाश को पार करके जाना पड़े तो उसके कमाये हुए पुण्य फलों का नाश हो जाता है। विश्वमित्र अपनी दिव्य दृष्टि से देखे एवं देवताओं के रहस्य को जान गये। तेज स्वर में बोले- "तत्रतिष्ठ। रुक जाओ वहाँ।" सत्यव्रत त्रिशंकु की तरह उल्टा ही रुक गया। त्रिशंकु यानी न ऊपर न नीचे बीच अधर में ही रुक गया। विश्वमित्र आदेश दिए सीधे हो जाओ। त्रिशंकु सीधे हो गए। देवगणों की यह मनमानी देख कर विश्वमित्र खिन्न हो गये। सोचे ये तो उद्दण्ड हैं। अतएव इनके समान्तर ही नहीं उनसे भी अच्छा एक स्वर्ग का ही निर्माण कर दिया जाये। तब इन्हें भी सबक मिलेगा कि मानव तुम्हारी दया पर निर्भर नहीं। उनके दया के पात्र तुम हो। यह सोच तुरन्त दूसरी सृष्टि करने का अमोघ निर्णय ले लिए। जिसके सन्दर्भ में कोई सोच भी नहीं सकता था। मानव ऋषि यह भी कर सकता है क्या ? विश्वमित्र ने अपने शिष्य के हेतु एक दूसरी सृष्टि का निर्माण कर दिया। जिसमें त्रिशंकु को उस सृष्टि का राजा घोषित कर दिया। उस सृष्टि के लिए इन्द्र के स्वर्ग से भी बढ़-चढ़कर सारी व्यवस्था कर दी। तारे, ग्रह, नक्षत्र से लेकर देव, गन्धर्व, यक्ष सब बना दिए। सत्यव्रत (त्रिशंकु) को वहीं राज्य करने का आदेश दे दिया। इस दूसरी सृष्टि के चलते सारा भू-मण्डल ही कांप उठा। सम्भवतः गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त गिरते नज़र आया। अभी तक सारे ऋषि अपने पुत्र के हित के लिए ऐसा करते थे। ये पहले ऋषि हैं जो शिष्य के लिए दूसरा स्वर्ग ही निर्माण कर दिया।

देवताओं में हड़कम्प मच गया। देवेन्द्र अपनी राजधानी छोड़कर भाग चले। वशिष्ठ देवर्षियों को लेकर कैलाश पर अवस्थित सदाशिव के यहाँ पहुँच गये। कुछ काल के उपरांत यक्ष, देव सब सदाशिव से अनुनय विनय करने लगे। सदाशिव भोले-भाले जो ठहरे। शिव सब को लेकर विश्वमित्र के आश्रम पर पहुँच कर स्तुति करने लगे। ये देव, यक्ष लोग चरित्रवन में उनके आश्रम के चारों तरफ पाँच कोस के घेरे में खड़े होकर प्रार्थना कर रहे थे। जो अभी भी पंचकोसी के नाम से पुकारा जाता है। पंचकोसी को अभी भी अपूर्व महत्व दिया जाता है। कहा जाता है कि जो इस पंचकोसी की परिक्रमा कर लेता है उसका पाप-जन्य संस्कार क्षय हो जाता है। वह मुक्त धाम का अधिकारी हो जाता है। विश्वमित्र को यह मालूम हुआ कि देवगण सदाशिव के नेतृत्व में प्रार्थना कर रहे हैं तो उन्हें कुछ दुःख हुआ। सदाशिव को सम्मानपूर्वक आश्रम में लाने हेतु शिष्यों को भेज दिया। सदाशिव की आड़ में ही देवेन्द्र वगैरह उनके आश्रम में पधारे। वह आश्रम उनके तप से सिद्ध हो चुका था। वहाँ किसी भी माया का प्रपंच नहीं आ सकता था। इससे वह कालान्तर में सिद्धाश्रम कहलाया। सदाशिव स्वयं अपने मुख से गुणगान किये एवं कहे कि हे  महर्षि इस तरह का दिव्य आश्रम त्रिलोक में कहीं नहीं है। यहाँ आते ही व्याक्ति योगयुक्त हो जाता है, निर्भय हो जाता है। इस आश्रम में जो कोई भी निवास करेगा बह मोक्ष का अधिकारी होगा। यह सुन विश्वमित्र ने सदाशिव का स्वागत कर, आने का कारण पूछा। सदाशिव सारी स्थिति को संक्षेप में कह सुनाये। अनुरोध करते हुए कहा कि महर्षि आप बुरा न मानें तो मैं कुछ निवेदन करूँ। देवगण, देवर्षि वशिष्ठ अपने किए हुए कर्मों पर लज्जित हैं। आप नयी सृष्टि को वापस लें। पूरी सृष्टि ही आपके निर्देशानुसार संचालित होगी। देवेन्द्र आपके निर्देशानुसार कार्य का संचालन करेंगे। आप ही इस सृष्टि में हो जो चारों संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व कर सकते हो। आपकी छत्र-छाया में ये संस्कृतियाँ प्रगति के पथ पर अग्रगति से संचालित होंगी। विश्वमित्र शिव का प्रिय वचन सुनकर तथास्तु कह दिए। उनके निर्देशानुसार ही विश्वमित्र निर्मित सृष्टि को उत्तर दिशा में रखा गया। उत्तर दिशा में जो आप तारों की अधिकता देखते हैं। वह विश्वमित्री ही है। त्रिशंकु बने सत्यव्रत के निर्देशन में देवेन्द्र को रहने का आदेश दिया। इस तरह यह त्रिलोक विश्वमित्र के निर्देशन में अग्रसर होने लगा। तंत्र विद्या जोर पकड़ने लगी। विद्या तंत्र का प्रभाव बढ़ने लगा। "सर्वेभवन्तु सुखिनः सर्वेप्रसन्तु निराभयां। " सभी सुखी हुए, सभी निर्भय हुए।

देवगण द्वारा हरिश्चन्द्र की परीक्षा

विश्वमित्र इस सृष्टि को धर्म चक्र पर चलते हुए देख अत्यन्त प्रसन्न हुए। अपने शिष्यों को समझा दिया कि जो भी व्यक्ति सिद्धाश्रम की गद्दी पर बैठेगा, वह मेरी ही तरह तपोनिष्ठ, सर्वज्ञ एवं सर्वहित करने वाला मेरा प्रतिनिधि होगा। वह विश्वमित्र ही कहलायेगा। यह गद्दी ही विश्वमित्र गद्दी कहलायेगी। इसी परिपेक्ष्य में वशिष्ठ वगैरह ने भी अपनी व्यवस्था दे दी। इसी तरह इन्द्र, ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर का भी पद है। जो भी उस पर आरुढ़ होता है वह उसी नाम से जाना जाता है। जैसे प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति पद हैं। नाम नहीं कर्तव्य के अनुसार उनकी भी पदोन्नति होती या पदावनति। अभी ब्रह्मा के पद पर विश्वमित्र ही हैं। इन्द्र के पद पर सत्यव्रत। इसके बाद ब्रह्मा के पद पर वशिष्ठ होने वाले हैं। इसी से वर्तमान समय में विश्वमित्र सृष्टि की वस्तुओं की माँग बढ़ गई है। तथा इस समय गायत्री के द्वारा मानव कुछ भी प्राप्त कर सकता है। विश्वमित्र ने जब निश्चिन्त होकर अन्तर्यात्रा कर अनाहद में विश्राम हेतु प्रस्थान कर दिया। इधर सृष्टि चक्र धीरे-धीरे पुनः अपना रास्ता बदलने का उपक्रम करने लगी। जिस उपक्रम का परिणाम है सत्यवादी हरिश्चन्द्र । देवेन्द्र एवं वशिष्ठ मिलकर पुनः अपनी पुनरावृत्ति में आ जाते हैं। देवेन्द्र विश्वमित्र का रूप ग्रहण कर छल से उनका राज्य दान में माँग लेता है। हरिश्चन्द्र जो गुरु भक्त ठहरा। वह गुरु के रूप में ज़रा भी सन्देह न कर क्षणमात्र में पूरा राज्य देवेन्द्र रूपी विश्वमित्र को अर्पित कर देता है। जिस दान का संकल्प कराते हैं, वशिष्ठ। संकल्प की दक्षिणा के ऐवज में हरिश्चन्द्र को बिकना पड़ता है। काशी में बेचने, खरीदने, कष्ट देने का काम करते हैं देवगण। हरिश्चन्द्र को देवगण ने विभिन्न रूपों से तंग किया कि वह अपना धर्म छोड़ दें। देव संस्कृति को अपना लें। हरिश्चन्द्र सत्य-धर्म, मानव-संस्कृति की रक्षा हेतु सब कष्ट खुशी-खुशी सह लेते हैं। देवगण उनकी पत्नी को भी निम्नतम से निम्नतम कार्य कराकर पथभ्रष्ट करने को बाध्य करते हैं। इतना ही नहीं इनकी कुवृतियाँ चरम सीमा पर पहुँच जाती हैं। वर्षा ऋतु है, घोर अन्धियारी है। हरिश्चन्द्र श्मशान पर मृतकों से कर लेने का कार्य करते हैं। इधर देवतागण उनके लड़के रोहित को सर्प बनकर डस लेते हैं। उनकी पत्नी चीत्कार कर उठती है। इकलौते पुत्र के लिए विकल हो रोने लगती है। उन तथाकथित देवताओं को जिनके घर वह चौका-बर्तन करती थी, जरा भी दया नहीं आती कि वे उसके कफन की व्यवस्था कर दें एवं श्मशान घाट पहुँचा दें। इतना निष्ठुर, कठोर, अधर्मी साधारण मानव नहीं हो सकता। अपने मृतक पुत्र के लिए अपनी ही आधी साड़ी फाड़कर कफन बनाती है। स्वयं अकेले रोहित को लेकर श्मशान पहुँचती है। हरिश्चन्द्र देखते हैं। उन्हें अपने पर विश्वास नहीं होता कि इस अवस्था को प्राप्त मेरे ही पुत्र व पत्नी हैं। जिसके पास न तो कफन है न ही जलाने के लिए अग्नि की व्यवस्था। यह देख विचलित हो उठते हैं परन्तु कुछ काल के बाद उन्हें अपने ज्ञान का बोध होता है। वे बिना शुल्क लिए जलाने की आज्ञा नहीं देते। इधर पूरी मानवता ही सिसक उठती है। इस परिस्थिति तक पहुँचाने वाले देवतागण को अभी भी जरा-सी लज्जा नहीं। वहीं पूरी सृष्टि कांप उठती है। तारे-नक्षत्र ग्रहादि मानव अपने कर्तव्य पथ से विमुख होने वाले हैं। हरिश्चन्द्र एवं तारा अपने गुरु का ध्यान करते हैं। "हे गुरुदेव विश्वमित्र ! अब तुम क्या चाहते हो। खैर वही हम लोगों को मंजूर है जो तुम्हारी इच्छा हो। तुम्हारी इच्छा ही सर्वोपरि है, तुम्हारी इच्छा ही हमारे लिए अनुकरणीय है। तुम मेरे लिए आराध्य हो और रहोगे। सूर्य टल सकता, पृथ्वी टल सकती है, चन्द्रमा अपने पथ से टल सकता है, वायु का वेग टल सकता है परन्तु मेरी दृढ़ इच्छाशक्ति जो आपके प्रति है वह नहीं टलेगी। हर हालत में तुम मेरे परम आराध्य हो। तुम प्रसन्न हो, मुझे कर्तव्यपथ पर चलने का साहस दो। यही मेरी इच्छा है, यही मेरी तमन्ना है। तुम्हारे द्वारा निर्देशित सत्य धर्म से एक क्षण भी हम विचलित न हों। हे गुरुदेव तुम्हारे चरणों में कोटिशः प्रणाम।" यह देव एवं देव संस्कृति के ही लोग कर सकते हैं। उनके पास सरस्वती (प्रचार तंत्र) है। अपने आप ही लिख देंगे या प्रचारित कर देंगे। मैं तो उस स्थिति में जाकर या उस ऋषि से सत्यासत्य जानकर ही लेखनी उठाता हूँ। इसलिए मेरी लेखनी या वाणी कठोर हो जाती है। पुराण में कुछ ऋषियों के साथ अन्याय किया गया तो कुछ को बहुत ही चढ़ा-चढ़ा कर महान बनाया गया है। अतएव आपको विवेक के आँख से अवलोकन करना ही होगा। कालान्तर में कथा गढ़ दी गयी कि विश्व मित्र ने ही हरिश्चन्द्र का सभी कुछ दान में लिया है। यह उचित नहीं है। चूँकि इसके सभी पात्र देवता हैं। इन्द्र, यम, धर्म, अग्नि। 
विश्वमित्र का हरिश्चन्द्र की पुकार सुन प्रकट होना
       इस कारूणिक प्रार्थना को सुनकर पूरी सृष्टि करुणा से भर जाती है। धन्य है देवतागण ! धन्य हो देवर्षि ! जरा भी दया नहीं। महर्षि विश्वमित्र जो स्वरूप में स्थिर हो, सत्य लोक में अचल आसन जमाये हुए थे, एकाएक भक्त की करुण प्रार्थना सुनकर उद्वेलित हो उठे। प्रकट हो गये। हरिश्चन्द्र साक्षात् गुरु को देखकर क्षणमात्र मैं अपने सारे दुःखों को भूल गये एवं पति-पत्नी उनके पैरों से लिपट जाते हैं। प्रेम अनुओं से धो डालते हैं उनके पैर को। अपने शिष्य को विषम परिस्थिति में देख महर्षि चिन्तित हो उठते हैं। देख लेते हैं ध्यान से। यह स्थिति क्यों हुई ? कैसे हुई ? विश्वमित्र की उपस्थिति मात्र से देव गण, वशिष्ठ चिन्तित हो उठते हैं। भयभीत हो उठते हैं। अपने अनिष्ट की आशंका से। विश्वमित्र के पूर्व के रूप को देख भयातुर हो जाते हैं। कोई उपाय न सूझ, वशिष्ठ, देवेन्द्र, धर्म, यम, अग्नि सब एक साथ उस श्मशान भूमि में उपस्थित हो जाते हैं। (जो हरिश्चन्द्र को इस स्थिति तक पहुँचाये थे।)

विश्वमित्र उन्हें दण्ड देने ही जा रहे थे कि देवगण रोहित को जिन्दा कर विश्वमित्र से प्रार्थना करने लगे - हे ब्रह्मऋषि आपके शिष्य को हम लोग दण्ड नहीं दिए हैं, बल्कि परीक्षा ले रहे थे। देख रहे थे हम लोग कि आपकी अनुपस्थिति मैं यह अपने कर्तव्यपथ, धर्म पथ, सत्यपथ पर है या नहीं। जब तक पृथ्वी रहेगी, बन्द्रमा और सूर्य रहेंगे तब तक सत्य हरिश्चन्द्र का नाम रहेगा। इनका राज्य हम लोग वापस कर रहे हैं। इन्हें हम लोग चक्रवर्ती सम्राट बना रहे हैं। हे ब्रह्मर्षि ! आप प्रसन्न हो। स्वधाम को प्रस्थान करें। विश्वमित्र बोल उठे- "देवेन्द्र, देवर्षि तुम यह याद कर लो आज के बाद इस धराधाम पर किसी भी सत्य निष्ठ मानव की इस तरह परीक्षा लेना अपराध होगा। यदि तुमने भविष्य में इस तरह की परीक्षा लेने का प्रयास किया तो दण्ड के भागी होंगे। ध्यान से सुनो तुम लोगों की इस तरह की धृष्टता भविष्य में मेरे लिए असहनीय होगी। वशिष्ठ आज के बाद तुझे वही करना होगा जो अयोध्या के राजा की इच्छा होगी। किसी भी नीति का निर्धारण राजा के मुँह से होगा। तू भी अब भविष्य में नीति निर्धारण की धृष्टता छोड़ देगा।" हरिश्चन्द्र तुम्हें मेरा अमोघ आशीर्वाद प्राप्त हो। तुम सत्यरूपी कर्तव्य पथ पर चलते रहो। भविष्य में तुम्हारा अब अनिष्ट नहीं होगा। अनिष्ट करने वाला स्वयं बरबाद हो जायेगा। इतना कह विश्वमित्र, परमहंस सद्गुरु सत्य में विलीन हो गये। पुनश्च सृष्टि का चक्र अपनी धूरी पर आगे चल दिया। हरिश्चन्द्र के निर्देशन में कार्य का संचालन सुव्यवस्थित हो गया। वशिष्ठ का कार्य क्षेत्र पठन-पाठन तक सीमित कर दिया गया। मुख्य सचिव का पद दूसरे व्यक्ति ग्रहण कर लिए। देवेन्द्र लज्जित होकर मानसरोवर के पास तप को प्रस्थान कर गये। अब विश्वमित्र के विषय में आगे विचार किया जायेगा। अब आप लोग "हरि" की तरफ ध्यान दें।

क्रमशः......