साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

 मूलाधार से सहस्रार तक की यात्रा, विधि को भगवान शिव ने तंत्र कहा है। मूलाधार से जगत का सम्बन्ध है। संसार की सारी सम्भावनाएं इसी से जुड़ी हैं। जगत का विस्तार, पद-प्रतिष्ठा यहीं है। यही कारण है कि चमत्कारी बाबा या साधक जन्मों जन्म मूलाधार से ऊपर नहीं जाते। बहुत सम्भव है ये मूलाधार से स्वाधिष्ठान तक की यात्रा को ही सर्वोच्च मानते हैं। चूंकि संसार के व्यक्तियों की कामना होती है- धनेषणा, पुत्रेषणा, लोकेषणा। सभी धन की कामना करते हैं। फिर पुत्र की एवं अन्त में संसार में ख्याति की। ये तीनों इन्हीं दो चक्रों, चेतना केन्द्र के खेल हैं। फिर आगे कौन जाना चाहेगा? क्यों जायेगा ? धर्म प्रचारक, कथा वाचक, राजनेता, अधिकारी, साधारण जनता सभी इसी के पीछे भाग रहे हैं। फिर परम पुरुष की उपलब्धि कैसे होगी।

????"जब मैं भूला रे भाई, मेरे सतगुरु जुगतलखाई।किरिया करम आचार मैं छाड़ा, छाड़ा तीरथ नहाना ।सगरी दुनिया भई सथानी में ही इक बौराना। ना मैं जानु सेवा बांदगी, ना मैं घण्ट बजाई। ना मैं मूरत धरि सिंहासन, ना मैं पुहुप बजाई । ना हरि रीझै जप तप कीन्हे, ना काया का जोर घटाई। ना हरि रीझै धोती छाड़े, ना पांचों के मारे। दाया राखि धरम को पाले, जंगल रहै उदासी। अपना सा जीव सबको जानै, ताहि मिले अविनासी । सह कुसबद वाद को त्यागे, छाड़े गरब गुमाना। सतनाम ताहिं को मिलिहै, कहै कबीर दिवाना ॥"????

जैसे ही साधक यह सोचने लगे कि 'मैं भूल गया हूँ, यह मेरे जीवन का उद्देश्य नहीं है, मैं भटक गया हूँ, तब आपको परमात्मा किसी न किसी रूप में समय के सद्गुरु के समक्ष भेज ही देता है। परन्तु यह दुखद दुर्घटना है कि हम सोचते हैं कि इस सृष्टि में सबसे अधिक चतुर हम ही हैं। आधे में सम्पूर्ण दुनिया है। यहाँ से भटक जाते हैं। किसी भी साधक को यह ज्ञात हो जाये कि मैं भटक गया हूँ, समझ लीजिए कि पचास प्रतिशत कार्य हो गया। प्यास जग गई। अब हमें पानी अमृत सा प्रतीत होता है। कथा वाचक पंडित, पुरोहित मात्र प्यास जगाता है। अब प्यासा व्यक्ति पानी के खोज में दौड़ता है। कभी-कभी कथावाचक ओस को ही सच्चा पानी बता देता है। प्यासा व्यक्ति उस ओस को ही चाट कर संतोष कर लेता है। यह उसकी भ्रान्ति है। पानी तो मात्र सद्गुरु के पास होता है। वह साधक को गंगा के सामने खड़ा कर देता है कि आप छलांग लगा लो जी भर कर पानी पी लो। स्नान कर लो। बाहर भीतर से तृप्त हो जाओ। आपको छलांग लगाने की "जुगति" बता देता है। कबीर साहब का जुगति शब्द अत्यन्त प्यारा है। कृष्ण की 'साक्षी, उपनिषद का द्रष्टा भाव, पातंजलि का ध्यान ही कबीर का जुगति हैं।

सतगुरु जुगति बता देता है। गंगा दिखा देता है। यही भगवान शंकर का तंत्र है। जैसे ही साधक उस जुगत अर्थात् तंत्र को लखता है अर्थात् पहचानता है वैसे ही उस परमतत्व को प्राप्त कर लेता है। सद्गुरु उसे मात्र लखाता है, दिखाता है, परिचय कराता है। वह तो आपको सदा से मिला ही है। श्वास आ रहा है, जा रहा
 है। उसको ठीक से देखना है। कैसे जाता है? कहाँ तक जाता है? कहाँ शंकर का अवधान उपस्थित करता है। जब स्वर एक दूसरे से बदलता है तब कहाँ अवधान को प्राप्त करता है। कहाँ मुड़ता है। क्या कहता है? जो कहता है वही महा मंत्र है। मंत्र को प्राप्त करते ही आप उस परम सत्ता के साथ जुड़ जाते हैं। वर्षों का रास्ता, जन्मों का पथ सद्गुरु इसे क्षण मात्र में उपलब्ध करा देता है।

क्षण भर में आप उस परम चैतन्य को प्राप्त कर लेते हैं। आपका मन परम तृप्त हो जाता है। अब मन की उस परम चैतन्य से मित्रता हो गई। उससे मित्रता छूटना अब कठिन है। बाहर भीतर सर्वत्र वही दिखाई पड़ने लगता है। चाह समाप्त हो गई। चिंता गिर गई। कल तक तीर्थों में दौड़ रहा था। क्रिया कर्म करता था । तीर्थ स्नान कर विभिन्न देवी-देवताओं को जल देता था। उनकी कर्मकाण्ड से पूजा करता था। प्रातः से सन्ध्या तक उसी के झमेले में फँसा रहता था। अब मुक्त हो। गया। तुलसी दास जी भी इसी स्थिति में अपनी भावना व्यक्त करते हैं-

????"तुलसी प्रतिमा पूजबो, जस गुडियाँ की खेल ।
साँच पति से भेंट भयो, सब मिट गयो भ्रम मेल ॥ " अब मुझे बहुत हँसी आती है। यह बच्चों का खेल बहुत दिनों तक खेला है। सगरी दुनिया भई सयानी, मैं ही इक बौराना। ना मैं जानु सेवा बाँदगी ना मैं घंट बजाई ॥????

अब ऐसा ज्ञात होता है कि इस काशी की सारी आबादी प्रात:काल स्नान कर, विभिन्न देवी-देवताओं की सेवा बाँदगी कर रही है। मंदिरों में घंटा बजा रही है। उस भीड़ को देखकर यह ज्ञात होता है कि सारी दुनिया के लोग चतुर हैं, सयाने हैं। अर्थात् बचपन अब जवानी में परिवर्तित हो गया है। ये बच्चे नहीं हैं। युवा व्यक्ति तो सत्पथ पर चलता है। ये सभी सयाने हो गये हैं। श्रेष्ठ हो गये हैं। मैं ही (कबीर) एक बौरा हूँ। पागल हूँ। अब मेरा मन उन मंदिरों की सेवा, पाठ, क्रिया कर्म में नहीं लगता है। मैं अकेला हूँ सारी दुनिया वही कर रही है। यदि मैं कहूँ कि आप कब तक इस क्रिया कर्म में रहेंगे। कब तक इस मंदिर में घंटा बजायेंगे। आप अपने मंदिर में कब प्रवेश करेंगे। चूँकि बहुमत का जमाना है। तब यह भीड़ मुझे पागल कहेगी। उनके पास तर्क है। शास्त्र का प्रमाण है। पांडित्य है। लोगों की भीड़ है। सद्गुरु ने जैसे ही वह जुगति (तंत्र) लखा दी, वैसे ही मैं अपने मंदिर में प्रवेश कर गया। तब मुझे आश्चर्य हुआ कि मेरा यह मंदिर तो स्वयं परमात्मा का बनाया है। वह मंदिर बनाकर स्वयं उसमें प्रवेश कर गया। यह बाहर का मंदिर तो ईंट-पत्थर से मैंने बनाया है, फिर अपने देवता को स्थापित कर दिया। कितना भी अच्छा निर्माता हो, परन्तु परमात्मा के द्वारा बनाये गये मंदिर से श्रेष्ठ निर्माण नहीं कर सकता है। मेरे द्वारा बनाया गया मंदिर मुझ से श्रेष्ठ नहीं हो सकता है। उसमें मेरी क्षुद्र कलाकृति होगी। वह विराट है। अनन्त है। अगम है। अतएव उसकी कला भी विराट है। अनन्त है। उसमें प्रवेश करते ही उसकी कला के सामने मुझे झुकना पड़ा। उसकी अनन्त शक्ति का हमें ज्ञान हो गया। मेरी क्षुद्रता गिर गई। व नत मस्तक हो गया।

ना मैं मूरत धरि सिंहासन, ना मैं पुहुप बजाई । ना हरि रीझै जप-तप कीन्हे, ना काया के जोर घटाई ॥

सद्गुरु कबीर कहते हैं कि आम तथाकथित भक्त भगवान की मूरत (मूर्ति) को अपने राजा के तरह सिंहासन बनाकर रखते हैं। नैवेद्य से पूजा अर्चना करते हैं। शंख, घंटा, घड़ियाल, नगाड़ा बजाते हैं। आरती करते हैं। परन्तु परमात्मा नहीं मिलता है। आज तक किसी को मिला भी नहीं है। फिर भी लकीर के फकीर बने हुए हैं। इस पृथ्वी पर नित्य हजारों मंदिर बनते जा रहे हैं। कोई उसे प्राप्त नहीं कर सका। हम विभिन्न प्रकार के पुराने से पुराने मंत्र नदी के तट पर, मंदिर में, पर्वत पर बैठ कर जाप किये जा रहे हैं। तप के लिए खड़े हैं। खड़ेश्वरी बाबा बनकर। मौन हो गये, मौनी बाबा बन गये। कांटों पर बैठ रहे हैं। नग्न होकर पंचाग्नि ले रहे हैं। शरीर सूख कर काँटा हो गया। उपवास के दिन बढ़ाते जा रहे हैं। हमारे उपवास की संख्या बढ़ती जा रही है। समाचार पत्रिका में निकल रहा है हमारे उपवास का आज एक सौ आठवाँ दिन है। गजब की है यह तपस्या । यह समाचार देखते हैं। आँखों में चमक आ जाती है। कोई नेताजी फूल-माला लेकर आ रहे हैं। फिर क्या बाछें खिल गई। इस तरह से अहंकार को भोजन मिल रहा है। इसी अहंकार के साथ अब जीने लगे हैं। परन्तु मन की अशान्ति प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। परमात्मा और दूर होते जा रहा है।

 ????विक्षिप्त महात्मा????

अभी गत सप्ताह एक महात्मा हम से मिलने आये थे। उनके शिष्यों की संख्या लाखों में है। वे लगभग साठ वर्ष से तपस्या में हैं। बड़े-बड़े मंत्री उनका स्वागत करते हैं। करोड़ों का आश्रम है। समाज में बहुत प्रतिष्ठा है। मैं भी सोचने के लिए बाध्य हुआ आखिर ये हम से क्यों मिलने आ रहे हैं।

मुझ से मिलते ही आश्रम से अर्थात् हमारे कक्ष से सभी साधु संन्यासियों को निकाल दिए। स्वयं द्वार भी बन्द कर दिए। फिर एकान्त पाकर साष्टांग प्रणाम कर पैर पकड़ कर रोने लगे। रोते हुए बोले- स्वामी जी! आपकी पुस्तक मैंने पढ़ी है। मेरी, आपसे विनती है। आप मेरे मस्तक पर अपना पैर रख दें। ऐसा कर दें कि
 मुझ में शक्ति पैदा हो जाये। मैंने कहा-आप पहले बैठें। अपनी समस्या कहें। वे जल्दी-जल्दी कहने लगे देखिए मेरी भी प्रतिष्ठा है हमारे हजारों शिष्य हैं। मैं बचपन से ब्रह्मचारी हूँ। संन्यासी हूँ। मंत्र भी जाप करता हूँ। भिक्षाटन से प्रसाद ग्रहण करता हूँ। दर्जनों स्कूल कॉलेजों की स्थापना करा चुका हूँ। परन्तु मैं काम वासना से मुक्त नहीं हो पाया। किसी भी बालक बालिका के स्पर्श मात्र से मैं स्खलित हो जाता हूँ। किसी को आशीर्वाद देता हूँ तो उसका कार्य नहीं होता। मेरे वाणी या चेहरे में मोहिनी शक्ति नहीं है। उनकी समस्या सुनकर मैं अवाक रह गया। मेरे शिष्य छिपकर सुन रहे थे। वे भाग चले। कुछ काल के बाद महात्मा जी को भी तंत्र दिया। कुछ मंत्र बताकर उसका अनुश्चरण करने की विधि भी प्रदान की। मुझ से ऐसे महात्मा बहुत मिलते हैं। जिनकी लोकेषणा, धनेषणा, कामेषणा शान्त नहीं हुई है।

      ????योगी महात्मा????

     मैं अपने गुरु स्वामी आत्मा दास जी की सेवा में गंगा तट मिरजापुर (उ.प्र.) के आश्रम पर था। यह घटना सन् 1977 की रही होगी। संध्या समय गंगा स्नान करने गया था। घाट से थोड़ी ही दूर पर श्मशान है। एकान्त के लिए उधर ही चला गया था। स्नान कर तट पर ही बैठ गया। मई का महीना था। मैं ध्यान हेतु अनायास ही बैठ गया। तभी आवाज सुनाई पड़ी-स्वामी जी आज कौन-सा दिन है? नक्षत्र क्या है? मैंने इधर-उधर नजर दौड़ायी कहीं कुछ भी नहीं दिखाई पड़ा। फिर एकाएक सामने एक युवक प्रकट हो गया। दण्डवत करके उसने पुनः वही शब्द दोहराये। मैंने प्रश्न किया, आप कौन हैं? देखिये सूर्यास्त होने जा रहा है। आप पश्चिम ही खड़े हैं। आपकी छाया नहीं बन रही है। क्या आप देव या योगी पुरुष हैं। युवक ने कहा- हाँ स्वामी जी मैं योग साधना में हूँ। कितने दिन से- मैंने पूछा। स्वामी जी लगभग 800 वर्षों से हूँ। मेरे गुरुदेव हठ योगी थे। मेरी कुण्डलिनी जागृत हुई मैं वासना से भर गया। अरूणाचल प्रदेश में मेरे दो जन्म मूलाधार चक्र पर ही बीत गये। मैं सिद्ध महात्मा के रूप में विख्यात था। मेरे गुरुदेव मुझ से खिन्न होकर जब शरीर छोड़ रहे थे। तब मेरे बहुत अनुनय विनय करने पर उन्होंने कहा कि जाओ तुम प्रत्येक जन्म में पिछले जन्मों को जानते रहोगे एवं हर जन्म में साधना के तरफ ही उन्मुख रहोगे। इस तरह दो जन्म अरूणाचल प्रदेश में ग्रहण किये। मूलाधार से स्वाधिष्ठान चक्र की यात्रा में गवां दिए। धन-सम्पत्ति, मान प्रतिष्ठा बहुत मिली। तीसरा जन्म नेपाल में हुआ। वहाँ बौद्ध धर्म में दीक्षित हुआ। पुनः यात्रा किया तप किया। मणिपुर चक्र पर आ गया। फिर एक राज कन्या की सुन्दरता में फँस गया। पुत्र-पौत्र-धन के पीछे भागते हुए वह शरीर भी छूट गया। परन्तु इस चक्र पर आने के बाद शरीर से घृणा होने लगी। सूक्ष्म शरीर में ही ध्यान करने लगा।

आत्म शरीरी आत्माओं ने बताया कि तुम्हें कर्म शरीर में जाना ही होगा। अपने संस्कारों को क्षय करना ही होगा। मानव शरीर ही कर्म शरीर है। अतएव मैंने अपने माँ-बाप की खोज आरम्भ की। जिससे सहज ही साधना के लिए समय एवं शरीर मिले। लगभग सौ वर्ष इंतजार करने के बाद काशी में ही एक ब्राह्मण दम्पति मिले। जो भगवान शंकर के भक्त थे। पति-पत्नी दोनों पूजा-पाठ ध्यान धारणा सत्संग में ही ब्रह्मचर्य पूर्वक रहते थे। उन्हें संतान पैदा करने की इच्छा ही नहीं थी। वे वीतरागी हो गये थे। दोनों युवक थे। परन्तु शारीरिक सम्बन्ध के प्रति उत्सुक नहीं थे। साथ-साथ रहते, सोते, जागते, सत्संग करते। मैंने दो वर्षों तक उनका पीछा किया। फिर भगवान शंकर से प्रार्थना की। फिर अपने भावी पिता के मन में पुत्र के प्रति लालसा पैदा की। माता के मन में भी ऐसी ही उत्सुकता पैदा की। एक दिन वे स्वयं प्रार्थना पूर्वक बोले-हे भगवान शंकर! हमें एक पुत्र दो। जो योगी हो । यति हो। भगवान शंकर ने मेरी प्रार्थना सुनकर तथास्तु कर दिया।

पति-पत्नी दोनों शुभ नक्षत्र मुहूर्त देखकर पुत्र के कामना से शंकर का ध्यान कर रतिक्रिया में प्रविष्ट हुए। मैं सभी कुछ देख रहा था। उनकी रतिक्रिया भी ऐसे लगी जैसे वे समाधि में प्रवेश कर रहे हैं। उन्होंने अपने जीवन में प्रथम एवं अन्तिम बार संसर्ग क्रिया की, वह भी योगी यति पुत्र की कामना से हमारे ऋषि मुनियों ने इन्हीं परिस्थितियों में योग्यतम आत्मा के अवतरण के अवसर उपलब्ध कराये हैं।

उस गर्भ में प्रवेश करने के लिए सैकड़ों योगी आत्माएं पहुँच गय में देख रहा था। मात्र शंकर की ही आराधना कर रहा था। मेरे भाग्य ने साथ दिया। सभी आत्माएं मुझे धन्यवाद देते हुए हट गर्यो। मुझे उस गर्भ में प्रवेश करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। गर्भ से ही पूजा-पाठ सत्संग का सुअवसर प्राप्त हुआ।

जन्म लेने के बाद शैव संन्यास ग्रहण कर लिया। मेरे माता-पिता दोनों मेरे शिक्षा-दीक्षा से प्रसन्न थे। कभी शादी करने के लिए मुझे प्रेरित नहीं किया। यह जन्म मेरे लिए सौभाग्यशाली था। किसी कामिनी ने दिल-दिमाग को नहीं सताया। चारों धाम किये घूम फिर कर गौ मुख से गंगा सागर तक गंगा नदी के तट पर भ्रमण करता रहा। इस तरह इस जन्म में भगवान शंकर के क्षेत्र अर्थात् अनाहत चक्र पर पहुँच गया। फिर शरीर छूट गया। मैं बहुत दिनों से इसी मनोमय शरीर में घूम रहा हूँ। मैं पंथ, सम्प्रदाय, जाति, लिंग भेद से मुक्त हो गया हूँ। परन्तु शरीर ग्रहण करने की इच्छा नहीं हो रही है। न ही गर्भ में प्रवेश करने की। उस तरह के कोई माता-पिता भी नहीं मिल रहे हैं। जैसे-जैसे शिक्षा का स्तर उच्च हो रहा है। वैसे-वैसे लोगों का दिल-दिमाग विकृत हो रहा है। खैर स्वामीजी आप तो सद्गुरु के सान्निध्य में हैं। मैं लगभग चालीस वर्षों से स्वामी जी के साथ ही हूँ। एकान्त में उनकी सेवा करता। सत्संग करता। साधना की विधि पूछता हूँ। उन्होंने बताया था कि आप एक बार फिर शरीर धारण करो। उन्होंने मुझे मृत शरीर में प्रवेश करने की विधि भी दी है।

देखिये स्वामी जी ! यह बालक का शरीर बहते आ रहा है। कानपुर का यह किशोर माँ-बाप का एकलौता पुत्र है। इसे सर्प ने काट लिया, जिससे यह मृत्यु को उपलब्ध हो गया। मैं इसके शरीर में प्रवेश करना चाहता हूँ। मैंने कहा अभी पुष्य नक्षत्र बीतने जा रहा है। मैं किसी स्वप्न लोक में घूम रहा था। सभी कुछ चल चित्र के तरह घूम रहा था। देखते ही देखते उस किशोर का शरीर नदी के तट पर खींच कर लाये। ठीक उसी के रूप रंग में दूसरा किशोर भी मेरे सामने प्रकट हो गया। वह हाथ जोड़कर प्रार्थना एवं करूण स्वर में बोला स्वामी जी! मुझ पर कृपा करें। मेरे शरीर का नाम 'महेश' है। सर्प के काटने से मेरी अकाल मृत्यु हुई है। मेरे माता-पिता अत्यन्त दुःखी हैं। मेरी आसक्ति है अपने माँ-बाप के प्रति उन्होंने मेरे शरीर को गंगा में प्रवाहित कर दिया। जैसे ही शरीर को मछलियाँ या कोई जीव जन्तु खाना शुरू कर देते हैं वैसे ही इस शरीर से आसक्ति मुक्त हो जाती है। मैं अन्य लोक में चला जाता। हालांकि मेरी अधोगति ही होगी। दूसरी तरफ ये योगी जी कानपुर से ही मेरे शरीर के पीछे पड़े हैं। ये प्रवेश करना चाहते हैं जब तक ये मेरे शरीर में रहेंगे, मैं दूसरा शरीर ग्रहण नहीं कर सकता। इन्होंने आपको ही पंच माना है आप मेरे साथ न्याय करें।

वे संन्यासी बोले- स्वामी जी! ये अभी अकाल मृत्यु के कारण यम लोक में जायेंगे। जहाँ इन्हें विभिन्न प्रकार की यातना दी जायेगी। फिर सर्प योनी धारण करेंगे या किसी संत का आशीर्वचन मिल जाये तो इस क्रिया से मुक्त भी हो सकते हैं। मैंने कहा तुम बताओ ये मुक्त कैसे होंगे ? पहले युवक ने कहा- "मैं तो स्वार्थ में था कि इनका शरीर धारण कर इस काशी में ही गुरुदेव के साथ आपके गुरु भाई के रूप में संन्यास धारण कर बंधन से मुक्त हो जाऊं। आत्म शरीर ब्रह्म शरीर को ग्रहण कर लूं। फिर इन्हें भी मुक्त कर दूँ। चूँकि मुक्त ही मुक्ति प्रदान कर सकता है।"

मैंने दूसरे युवक से पूछा तुम बोलो-बंधु, क्या चाहते हो ? वह रोते हुए बोला- स्वामी जी! मेरे माता-पिता भी शैव हैं। भगवान शंकर के भक्त हैं। उन्हीं के गण ने सर्प बनकर हमें डसा है। उन्हें फकीर बनाना चाहते हैं। परन्तु वे रो-रोकर मर जायेंगे। उनका उद्धार करें। मेरा भी उद्धार करें। मैंने कहा-बन्धु समय कम है। आप शीघ्र ही स्पष्ट करो। अन्यथा तुम्हारे शरीर में विकार उत्पन्न हो जायेगा। फिर किसी काम का नहीं रहेगा।

वह अत्यन्त दुःखी स्वर में बोला- स्वामी जी! मैं इस शरीर में प्रवेश नहीं कर सकता हूँ। आप इन्हें प्रवेश का आशीर्वाद दें परन्तु मेरे शर्तों पर। मेरे कफन में पाँच स्वर्ण मुद्रायें मेरी माँ ने बाँध दी हैं। ये इसमें प्रवेश करें। उन स्वर्ण मुद्राओं से काशी मैं नये वस्त्र धारण कर मेरे घर चले जायें। ये मेरे माता-पिता जी का पुत्र बनकर रहें। मेरे माता-पिता वैश्य कुल के हैं। व्यापार करते हैं। परन्तु अत्यन्त धार्मिक हैं। घर पर ही शिव मंदिर है। हो सकता है भगवान शिव के लिंग पर अपना सिर पटक कर जान दे दें। ये अपनी कुशलता से उन्हें भी संन्यासी बना लें, स्वयं संन्यासी बनकर मेरी सम्पति को साथ सेवा एवं धर्म में खर्च करें। मेरे अकाल मृत्यु से छूटने का भी उपाय कर शरीर छोड़ दें। तब मैं अन्यत्र शरीर धारण कर सकूँगा। मुझे आशीर्वाद दें कि काशी के आस-पास ही साधु-योगी के परिवार में मैं दूसरा शरीर ग्रहण करके मुक्ति का मार्ग तय करूं।

मैंने सहर्ष कहा—तथास्तु! शुभम् शीघ्रम ! आप प्रवेश करो। वह देखते ही देखते मुँह के मार्ग से प्रवेश कर गये। क्षण भर में उठकर बैठते हुए बोले- “ॐ नमः शिवायः, ॐ नमः शिवायः।" फिर मुझे साष्टांग प्रणाम किये। मैंने कफन से पाँच स्वर्ण मुद्राएं निकालीं। मैंने स्नान के बाद धोती गमछा बनियान सूखने के लिए डाल रखा था। एका एक याद आई। युवक से कहा- कफन का परित्याग करो। माँ गंगा में स्नान करो। प्राणायाम कर शरीर के तंतु को व्यवस्थित करो। पूर्ण गौर वर्ण, सुन्दर चमकते हुए आकर्षक दिव्य चेहरे में पूर्ण नग्न कफन को छोड़कर वह बाहर आये। मैंने उसे अबोध शिशु के रूप में देखा। उसके सिर पर हाथ रखकर शक्ति पात किया आशीर्वचन दिया जिससे शरीर प्रेत कर्म से मुक्त हो जाये। फिर अपना वस्त्र दिया। फिर पाँच स्वर्ण मुद्राएं हाथ में रखी। ऐसा करने में लगभग एक घंटा लगा। मैंने कहा- हे संन्यासी! आप गोपनीयता को रखते हुए कानपुर के लिए प्रस्थान करो। इस के माँ-बाप को शान्ति दो अपनी इच्छानुसार योग-जप करो। परन्तु वे मेरे साथ आश्रम में आ गये। वह किशोर भी सूक्ष्म शरीर में साथ-साथ आ गया।

गुरुदेव अपने कक्ष में एकान्त ध्यान में बैठे थे। हम लोगों के प्रवेश करते ही आँख खोलकर मुस्कुराते हुए बोले- "कृष्णानंद तुमने इसे शरीर उपलब्ध करा ही दिया।" संन्यासी ने उन स्वर्ण मुद्राओं को रखकर साष्टांग प्रणाम किया। गुरुदेव ने कहा कि तुम क्या चाहते हो ? वह बोला-हमें दीक्षा प्रदान करें। तुम कितनी बार दीक्षा ग्रहण करोगे। देखो पंथ सम्प्रदाय अलग हो सकते हैं। परन्तु गंतव्य एक ही  है। फिर भी तुम्हारे इस शरीर को दीक्षा की आवश्यकता है। आज ही बारह बजे रात्रि में तुझे दीशा दूंगा। तुम इन स्वर्ण मुद्राओं को रखो अभी जिस कार्य हेतु तुझे प्राप्त हैं वही करो। तुम प्रातः ही इसके नाम पर साधु संतों का भंडारा करा दो। फिर जो बचता है काशी जाकर साधु संतों को दान कर दो। तुम्हारे खर्चे एवं वस्त्र का प्रबन्ध कृष्णानन्द कर देगा। कभी इसे दक्षिणा दे देना। ऐसा ही किया गया।

ऋषि गण द्वारा पुत्र दान

इस घटना से आपको यह ज्ञात हो जाना चाहिए कि हमारे ऋषि महर्षि विषय वासना से आसक्त होकर किसी कन्या से सम्बन्ध नहीं बनाये। बल्कि उस विशेष आत्मा के निवेदन को स्वीकार कर उस लड़की से सम्बन्ध किये। चाहे वह लड़की किसी भी जाति गोत्र की हो। यदि काम वासना से ग्रसित होते तो उस लड़की का साथ कभी नहीं छोड़ते। परन्तु पुत्र दान देकर वे अपने मार्ग पर निकल गये। यदि वह लड़की उसी ऋषि के साथ रहना चाहती थी, तो उन्हें कोई आपति नहीं थी। वे ऋषि द्रष्टा थे। पवित्र पावन आत्मा की प्रार्थना स्वीकार कर उन्हें मात्र आने का अवसर प्रदान करते थे। उन्हें अपनी इज्जत प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं था। वे तथाकथित प्रतिष्ठा से ऊपर थे। सच में प्रतिष्ठा उन्हीं से प्रतिष्ठा प्राप्त करती थी। अतएव मेरी लेखनी का गलत अर्थ न लें। चूँकि ये ऋषि प्रतिष्ठा, जाति, गोत्र, पद, खानदान की भावना से मुक्त थे। विश्व कल्याण ही इनका लक्ष्य था। अतएव इनके द्वारा प्रदत्त पुत्र-पुत्री ने किसी न किसी तरह इस संसार का कल्याण ही किया है। उनकी उस उच्चतम स्थिति को निम्नतम बिन्दु पर लाकर तर्क द्वारा, कुछ भी कहना कुतर्क ही होगा। आप मेरी लेखनी को उदार चरित्र से ग्रहण करें। न कि छिद्रान्वेषण के ढंग से। मैं नग्न सत्य कहने का आदी हूँ। नग्न सत्य अति कठोर होता है। प्रिय नहीं होता है न लोगों को अपना बना सकता है परन्तु मैं क्या करूं; यह मेरी विवशता है।

"ना हरि रीझ धोती छाड़े ना पांचों के मारै।

दया राखि धरम को पाले जंगल रहे उदासी ॥

अपना सा जीव सबको जानें, ताहि मिलै अविनासी ।"

    सद्गुरु कबीर कहते हैं कि परमात्मा केवल साधु का स्वरूप बना लेने से हो नहीं मिलते हैं न ही पाँचों कर्मेन्द्रियों के दमन से बहुत लोग लिंग में छिद्र कर लेते हैं। कान में छिद्र कर लेते हैं विभिन्न प्रकार से अपने इंद्रियों का दमन करते हैं। उससे उन्हें विभिन्न प्रकार का रोग होता है। व्याधि होती है। परमात्मा तो मिलता ही नहीं जंगल जंगल उदास बनकर घूमने से भी वह नहीं मिलता है। चूँकि सम्पूर्ण सृष्टि तो उसी ने बनायी है किसे अच्छा और किसे खराब बनाया है यह

निर्णय करना परमात्मा को छोटा दिखाना है। सद्गुरु अपना अन्तिम निर्णय दे रहे हैं कि अपने ही सदृश सभी जीवों को मानें। चूँकि सभी उसी परम पुरुष के स्वरूप हैं। सभी उन्हीं का विस्तार हैं। फिर

कौन खराब कौन अच्छा ? गुरु नानक देव ने इसे ही कहा है-

"सबन जीयन का एक ही दाता, सो मैं विसरि न जाय। " सभी जीवों का निर्माण करने वाला एक ही है। उसे मैं कभी नहीं भूलूं । फिर वह सर्वत्र उसी परमात्मा का दर्शन करता है।

"स कुसबद वाद को त्यागे, छाई गरब गुमाना। सत्नाम ताहि को मिलिहै, कहै कबीर दिवाना ॥ "

सब जीव परमात्मा ही हैं तब किसे और कैसे कठोर बोलेंगे। परमात्मा की तो प्रार्थना करते हैं। यह स्थिति आते ही अहंकार, घमंड गिर जाता है। मैं अमुक पद, खानदान, जाति का हूँ। स्वतः गिर जाता है। यदि नहीं गिरा तब स्पष्ट है आपको अभी कुछ भी नहीं मिला है। ऐसा ही भक्त सत्नाम को उपलब्ध होता है। फिर वह तो दिवाना हो जाता है। उस प्रभु का परमप्रिय हो जाता है। वह आनन्द मगन हो जाता है। अहोभाव से भरा होता है। इस सम्पूर्ण सृष्टि में वही सृष्टा दिखाई देता हैं।
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क्रमशः....