साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़

साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव तंत्र से

????श्वासों के मध्य रुको????

    शिव कोई विद्वान नहीं हैं पण्डित नहीं हैं जो रटे-रटावे उत्तर दे दें। जैसे रामायणी व्यास लोग देते हैं। सुग्गे की तरह, कम्प्यूटर की तरह सभी प्रश्न उत्तर फिट हैं। बटन दबा दो, उत्तर हाजिर हैं। यह कार्य शिव के लिए कतई सम्भव नहीं है। वे उत्तर देना ही नहीं जानते। हाँ विधियाँ अवश्य बता देते हैं। ये विधियाँ अत्यन्त पुरातन हैं परन्तु अभी भी अत्यन्त नयी प्रतीत होती हैं। (मानो अभी-अभी किसी आप्त पुरुष के द्वारा निस्सरीत हो रही हैं, नवनीत की तरह) ये विधियाँ सभी को समान रूप से फायदा करेंगी। जैसे सूर्य का प्रकाश समान रूप से उजाला फैलाता है बिना किसी भेद-भाव के। इसके लिए कोई शर्त नहीं है। चाहे आप शराबी हों या मांसाहारी, चोर हों या डाकू, चाहे आप जो हों, रहें। इस विधि से गुजरो तो देखो चमत्कार, परिवर्तन अवश्य ही होगा। भारतीय साधु कहते हैं पहले चोरी छोड़ो, शराब छोड़ो। सब छोड़ ही देगा तब डॉक्टर की क्या जरूरत। जरूरत तो अस्वस्थ व्यक्ति को है। यह रूग्णता, अनैतिकता, उपदेशकों के चलते हो आयी है। उनके पास उपदेश है। विधि नहीं है। अब समय आ गया उपदेश छोड़ने का, विधि देने एवं ग्रहण करने का। यदि देश के सारे अस्पताल उपदेशकों के, व्यासों के हवाले कर दें तो ये अस्पताल में जाकर भी उपदेश देंगे, स्वस्थ हो जाओ। काम छोड़ दो। क्रोध मत करो। रोगी कह उठेंगे हमारा यह हाल तुम्हारे ही चलते हुआ है। अब तू क्षमा कर पूरी पृथ्वी को रोग से मत भर तंत्र के लिए मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे की कोई जरूरत नहीं है। जरूरत है गुरु के सान्निध्य की जरूरत है गुरु को अब सुनना नहीं पूरी तरह पी जाना। आत्मसात कर जाना। यही है अनुष्ठान यही भाव, यही अनुष्ठान पूर्णत्व को उपलब्ध करा देगा। इसमें संशय नहीं है। संशय का मूल समेत नाश निश्चित है। चूँकि तंत्र में, जो भी आप हैं, उसे स्वीकारें। आप ही महा रहस्य एवं ऊर्जाओं के स्रोत हैं। वही ऊर्जा सहयोगी हो जाती है तब संसार का ही निर्माण हो जाता है। शरीर ही मन्दिर बन जाता है। शान्ति से जीवन भर जायेगा वही शान्ति पूरे ब्रह्माण्ड के साथ लयबद्ध हो जायेगी। साधक और समग्रता के बीच एक गहरी लयबद्धता स्वतः हो जायेगी। साधक अपने आप में मस्त हो जायेगा। अब सर्वत्र वही परमसत्ता ही नजर आयेगी। सम्भव है एकाएक बदलाहट से परिवार के सदस्य आपको पागल कह दें। पागल खाने में दे दें। पागल व्यक्ति स्वस्थ व्यक्ति को पागल ही कहता है। अतएव साधना के प्रथम से चतुर्थ चरण तक गुरु गृह या गुरु सान्निध्य जरूरी है। इसके बाद मानसिक तरंगों से काम हो जायेगा। गुरु का निर्देश शिष्य पकड़ने में सक्षम हो जाता है उसके अनुसार आगे की यात्रा करता है। शिव उत्तर रूप में विधि बता देते हैं। हालाँकि ये एक सौ बारह विधियाँ बताते हैं परन्तु मैं अत्यन्त महत्वपूर्ण जो वर्तमान के लिए लाभकारी हैं, उन्हीं के सम्बन्ध में कहूँगा । आप इसे केवल पढ़ें ही नहीं अपने जीवन में उतारें। यदि कठिनाई हो तो निकटवर्ती जानकार गुरु से सम्पर्क कर सीख लें। शिव कहते हैं-हे देवी, यह अनुभव दो श्वासों के बीच घटित हो सकता है। श्वासों के भीतर आने के पश्चात् और बाहर के लिए लौटने के पूर्व श्रेयस्कर है, कल्याण है।

शिव पूछे गये प्रश्न पर ध्यान नहीं दिए। सद्गुरु हर समय शिष्य को नहीं बताना चाहता है, जिससे उसका प्रश्न उत्तर दोनों गिर जाये। दोनों से मुक्त हो जाये या वह उस परमसत्य को जान जाये जो सभी प्रश्नोत्तर का मूल है। वह साधक को अतीत से बाहर खींचता है, भविष्य से रोकता है वर्तमान में ला खड़ा करता है। जब साधक वर्तमान में खड़ा होता है तब उसकी "स्व" की यात्रा श्वास के सहारे प्रारम्भ होती है। जो साधक के लिए अत्यन्त अनहोनी है। जहाँ चाह नहीं होती। कामना भी नहीं। चूँकि कामना ही तो संसार है। शिव बिना किसी भूमिका के विधि का अनुगमन करने को कहते हैं जिससे अचानक मन मुड़ जाता है वर्तमान में ठहर जाता है। मन के वर्तमान में ठहरते ही विचार विदा हो जाते हैं। गति रुक जाती है। साधक पहले पहल अमन को, मन शून्यता को उपलब्ध होता है। यह पूरी श्वास प्रक्रिया है। इसे 'यों समझें। श्वास ऐसी प्रक्रिया है जो हर समय हर क्षण चलती ही रहती है। इसका प्रवाह सदा बना रहता है। सब सोते हैं, जागते हैं परन्तु वह नहीं सोता जरा सा भी भूलता नहीं। आराम नहीं। श्वास का जिम्मा यदि परमात्मा व्यक्ति के हाथों सौंप देता तो वह किसी भी क्षण भूल जाता। श्वास बन्द हो जाता। जीवन का प्रवाह ही बन्द हो जाता। परन्तु वह भी अपने जिम्मे रखा है। फिर मनुष्य के जिम्मे है क्या ? निरर्थक बकवास, उपदेश श्वास ही जीवन का वास्तविक आधारभूत तत्व है इसी से भारतीय मनीषी इसे प्राण कहे हैं। प्राण यानी जीवन शक्ति श्वास ही शरीर एवं "स्व" के बीच सेतु का काम करता है। यही श्वास "स्व" एवं विश्व ब्रह्माण्ड का भी सेतु है। बस इसी सेतु के सहारे "स्व" तक पहुँच जाना है। इस श्वास के दो बिन्दु हैं एक जहाँ पर शरीर और विश्व को छूता है तथा दूसरा जहाँ "स्व" और विश्वातीत, परम पुरुष को छूता है। सभी जन श्वास के एक बिन्दु से हो, परिचित होते हैं। जो विश्व एवं शरीर में गमन करता है। परन्तु जो श्वास शरीर से अशरीर में और अशरीर से शरीर में संक्रमण कर रहा है। उसे कोई-कोई जानता है। जैसे ही साधक दूसरे बिन्दु को जानता है वह एकाएक बदल जाता है यह बड़ा ही अनूठा तंत्र है सद्गुरु कबीर भी यही कहते हैं-

"श्वासा की करूँ सुमिरणी करूँ अजपा के जाप ।।

श्वास को ही स्मृति में रखना है। यह हर समय चल रहा है। इसी से अजपा है इसी से यह तंत्र है। जहाँ भी बाह्य वृत्ति का सहारा लिया जाता है वह तंत्र कैसे होगा ? तंत्र सहज है। एक तरह यह कबीर का सहज योग है। परन्तु योग में श्वास की व्यवस्था हो ही जाती है। प्राणायाम के द्वारा। परन्तु तंत्र में जो हो रहा है उसी के साथ सामंजस्य स्थापित करना है या होशपूर्वक रहना है।

आदमी शान्ति की खोज में हिमालय जाता है। देश-विदेश की यात्रा करता है। हरिद्वार डेरा डालता है परन्तु जो अत्यन्त निकट है, वहाँ नहीं जाता है। जहाँ कदम रखते ही व्यक्ति बदल जाता है अमृत की वर्षों हो जाती है। व्यक्ति व्यक्ति नहीं रह जाता, अब वह दूसरे अस्तित्व में, दूसरी चेतना में प्रवेश कर जाता है। परन्तु जो निकटतम है उस पर आदमी का ध्यान ही नहीं जाता। न ही बताने पर उसकी कीमत समझता है। जितना समय तीर्थ यात्रा में बर्बाद करता है उतना समय ही अपने निकटतम श्वास पर ही लगा दिया जाये तो सारी यात्रायें पूर्ण हो जायेंगी। अब कोई यात्रा ही नहीं बचती परन्तु अन्तर्यात्रा है अतएव बहुत कठिन मालूम होती है। व्यक्ति को अपने पर विश्वास भी नहीं होता है सदा दूसरे पर विश्वास होता है। "स्व" एवं शरीर के मध्य श्वास इतना नजदीक है कि देखना भी दुरूह प्रतीत होता है। इसे देखने के लिए सूक्ष्म दृष्टि चाहिये। जब दृष्टिगत करे अब साधक श्वास के साथ लग जाये। जब अन्दर आता है तब साथ-साथ बाहर आये। मन को इसी पर लगा देना है जिससे मन की भी चंचलता चली जाती है। इसे ठीक से गुरु से प्रयोगिक स्तर पर देख लें। समझ लें। अब ध्यान रहे। जब श्वास अन्दर जाये तो साथ जायें एवं बाहर आते समय मोड़ के पहले, क्षण के लिए या क्षण के हजार भाग के लिए श्वास रुक जाता है। जहाँ रुकता है, जिस बिन्दु पर बस वहीं रुक कर देख लेना है। फिर बाहर आता है। जब बाहर आ चुकता है तो फिर एक क्षण के लिए ठहर जाता है। पुनः अन्दर लौट जाता है। भीतर या बाहर मुड़ने के पहले एक क्षण के लिए श्वास रुक जाता है। सजग साधक उसी क्षण का इन्तजार करता है। वहीं ध्यान को टिका देता है। बस सब कुछ रुक जायेगा। प्राप्त हो जायेगा वह जो अप्राप्त था। जीवन का रहस्य, सत्य उपलब्ध हो जायेगा। हाँ साधक को होशपूर्वक श्वास लेना है। उसके साथ मित्रता करना है। साथ-साथ अन्दर जाना है, साथ-साथ बाहर आना है। इसके साथ अभिन्नता का संयोग कर लेना है। जब श्वास अन्दर जाता है। तब जीवन कहलाता है। जब बाहर आता है तो मृत्यु कहलाता है। बाहर निकलने के बाद एक क्षण के लिए रुकता है। यदि उसे साकार कर लिया तो मृत्यु को साकार कर लिया। वही है महामृत्यु वही है मृत्यु का रहस्य। अन्दर जाते वक्त जहाँ मुड़ता है एक क्षण के लिए रुकता है उस बिन्दु को देख लिया तो जान गये जीवन का रहस्य। जीवन के रहस्य की सारी गुत्थियाँ अपने आप सुलझ जाती हैं। सद्गुरु कबीर कहते हैं-

"छिन्न छिन अमावस्या, छिन्न- छिन्न पूर्णमाशी"

जब अन्दर जाता तो पूर्णिमा होती, बाहर आता तब अमावस्या हो जाती। इसी योग से बुद्ध को बुद्धत्व मिला था। इसे बुद्ध अपनी भाषा में अनापानसती योग कहते हैं। बुद्ध ने अपने शिष्यों को श्वास के प्रति सजग रहने को कहा है। बुद्ध ने मात्र इसी विधि का समस्त एशिया में प्रचार किया। करोड़ों लोगों को बताया। इसका बुद्ध ने इतना प्रचार किया कि हिन्दू लोग समझ बैठे कि यह विधि बुद्ध की है। बस हिन्दू लोग इस विधि से घृणा करने लगे। यह भारतीय लोगों के लिए दुर्भाग्य रहा। विधि भी हिन्दू, बौद्ध, सिख, ईसाई होती है? यह विधि पूरी मानवता के लिए अत्यन्त लाभकारी है। शिव इसे ही देवी से कहते हैं। इसे ठीक से समझ लो। यही श्रेयस्कर है। इसी से जीवन का कल्याण सम्भव है जीवन सहज, सरल हो जायेगा। तुम उपलब्ध हो जाओगे उसको जो सब रहस्य है। बस सूक्ष्मता से श्वास-प्रश्वास के साथ यात्रा करना है। यह यात्रा होशपूर्वक होगी। अचानक वह क्षण आ जाता है जहाँ सांस जाती है न आती है बिल्कुल ठहर गयी है बस वही ठहराव श्रेयस्कर है। वही ठहराव यात्रा का अन्तिम बिन्दु है। अब कुछ करना ही नहीं है। इसी से बुद्ध कहते हैं जब तक योग जाप, तप किया, कुछ नहीं मिला। जब सब छोड़ दिया, वह मिल गया। मिला तो पहले से ही था। उसे पहचान गया। पहचान भी कैसे कहें। ये शब्द मात्र इंगित करते हैं।
क्रमशः...