साभार सद्विप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से
प्रदीप नायक प्रदेश अध्यक्ष सदगुरु कबीर सेना छत्तीसगढ़
अमावस्या को दिन में उपवास था। रात्रि में पूजा के बाद सोचा की मृत्यु को साकार करना उचित है। संध्या 7 बजे ही अंधेरा छा गया। मैं अपना दरवाजा अंदर से बंद कर दिया। चूंकि बर्फीली हवा चलने लगती थी। मैं ध्यान के उच्च शिखर पर जाकर शरीर से बाहर निकल गया। शरीर की सुरक्षा के संबंध में चिन्ता नहीं थी।
बाहर निकलते ही मैंने सोचा कि मृत्यु देवता के यहां चलना है। परंतु वह है कहां? कैसे उन तक पहुंचा जाए? अभी तक मृत्यु देवता ही मानव को खोजता है। इस समय में उन्हें खोज रहा हूं। कुछ ऊंचाई पर गया तो देखा कि नक्षत्रों के तरह चमकते हुए कुछ आत्माएं बैठी हैं में नजदीक गया, उनके चेहरे से शरीर से स्वर्णमयी आभा निकल रही थी। सभी सुंदर, युवावस्था में थे। शरीर पर वस्त्र के नाम पर मात्र लंगोटी थी मैं वहीं चुपचाप बैठ गया। फिर देखा ये कुछ जाने- पहचाने लगते हैं मैं अपने मन पर जोर दे रहा था। परंतु याद नहीं आ रहा था। अचानक एक ऋषि की आंख खुली उनकी आंखों से शीतल विद्युत-सा प्रकाश निकला। मुस्कुराते हुए बोले तो आप आ गए। आपको क्या सिद्ध करना है। आप तो सिद्ध हैं- स्वामीजी! क्या आप जिस शरीर को धारण किए हैं-उसे सिद्ध करना चाहते हैं। मेरे मन में कौतूहल था- ये कौन हैं ? वे मनुश्वेता थे ही। बोले- मैं आपका ही पूर्वज हूं- अत्रि । हम सप्तऋषि हैं। ये हैं- याज्ञवल्क्य, भरद्वाज, गौतम, सदानन्द, अगस्त्य । सप्तम आप स्वयं विश्वमित्र गए ही हैं। आपके स्थान पर ये बैठे हैं- विष्णी। ये भी आपके पूर्वज हैं। हम लोग यही मंत्रणा कर रहे थे कि आप हिमालय में आकर तप कर रहे हैं। कब तक आपका तप चलेगा। तपस्या एवं सिद्धियां तो आपकी अनुगामिनी हैं। समाज में व्याप्त अनाचार, पापाचार से आप ही मुक्ति दिला सकते हैं। हां आपके लिए कोई कार्य दुसाध्य नहीं है। आप मनोविनोद में मृत्यु देवता को खोजने चल दिए हैं। अच्छा हम लोग आपका स्वागत करते हैं।
अगस्त्य ऋषि खड़े हो गए। स्वामीजी आपको क्या क्या देखना है? आप हमें बताएं। आपको अभी क्षण भर में दिखा लाता हूं। अन्यथा आप मनोविनोद में ही समय बिता देंगे। हम लोग इस शरीर में बैठे आपके ही इशारे का नेतृत्व का इंतजार कर रहे हैं।
मैंने हंसते हुए कहा-" आप सभी को मेरा अभिवादन एवं स्वागत है। मुझे देवलोक, मृत्युलोक, घुमा दीजिए। फिर मेरी स्मृति लौट आएगी। भरद्वाज-फिर आप देवताओं को तो अपने-आप बुलाते रहेंगे। उन्हें अपने यहां बुलाना एवं नीति सिखाना तो जानते ही हैं। "
याज्ञवल्क्य - " आपके संकल्प लेने एवं पार्थिव शरीर छोड़कर निकलते ही देवराज इन्द्र आपके स्वागत की तैयारी कर रहे हैं।"
यह सुनकर एवं देखकर अपने पर आश्चर्य हो रहा था। फिर क्या था? अगस्त्य जी खड़े हो गए। उनके खड़े होते ही सभी खड़े हो गए। उन्होंने कहा, "देवराज इन्द्र के स्वर्ग तक हम सभी चलते हैं। वहां से अगस्त्य जो स्वामीजी को लेकर जाएंगे या देवेन्द्र स्वयं व्यवस्था कर देंगे।"
मेरा भी शरीर उन्हीं के अनुरूप देदीप्यमान हो गया। आगे-आगे हम लोगों की संख्या आठ हो गई। बिना चले ही चल रहे थे। मात्र संकल्प की गति थी। आगे प्रकाश पूर्ण रास्ता था। सुगन्धित एवं सुव्यवस्थित था। कुछ ही समय के उपरान्त देखते हैं कि कुछ युवतियां रास्ते के दोनों तरफ खड़ी थीं। उनका शरीर शीशे की तरह चमकता हुआ, रेशमी वस्त्र में, पूर्ण सुंदर, मानो सुंदरता की देवी हैं। खड़ी थीं। जैसे ही हम लोग उनके नजदीक पहुंचे, सुनाई पड़ने लगा । अत्रीजी बोलें "स्वामीजी—ये स्वर्ग की अप्सराएं एवं देवगण की पत्नियां हैं। विश्वमित्र रचित वेद की ऋचाएं उच्चारण कर आपका अभिवादन कर रही हैं। हम लोग उनके मध्य से चल रहे थे। मणिमय सड़क था। हम लोगों पर पुष्पों की वर्षा हो रही थी। बादल चारों तरफ से घिरे थे। मानो बादल हम लोगों को अपने बाहुपाश में बांधने को व्याकुल हैं। कुछ क्षण में हम लोग एक विशाल द्वार पर पहुंचे। ऐसा ज्ञात होता था कि यह द्वार ऊपर गगन को स्पर्श कर रहा है। बाएं-दाएं पर्वत एवं बादलों में छिपा था। उस फाटक पर विचित्र-विचित्र तरह की कलाकारी की गई थीं। उससे सूर्य, चन्द्रमा की प्रकाश किरणें निकल रही थीं।"
जैसे ही हम नजदीक पहुंचे-एक व्यक्ति जो राजपुरुष की तरह प्रतीत हो रहा था। हाथ में दण्ड लिये था। झुककर प्रणाम किया। अपने दाएं हाथ से इशारा किया - फिर क्या ? गेट के मध्य से द्वार खुल गया। हम लोग अंदर प्रवेश कर गए। अंदर देखते हैं- दूर-दूर तक अन्तहीन सड़कें। उसके दोनों तरफ फलदार बाग। सड़क से सटे फूल। चारों तरफ रंग-बिरंगे फव्वारे की तरह जल प्रपात ।
बाग फुलवारी के मध्य में राजप्रासाद-प्रासादों के ऊपर रंग-बिरंगे पत्ते । प्रासाद क्या थे - वे भी गगनचुम्बी थे। सभी प्रकाशपूर्ण थे। ऐसा ज्ञात हो रहा था कि इन प्रासादों से, सड़क से, बाग से, फूल-फलों से, रंग-बिरंगे प्रकाश स्वयं निकल रहे हैं। इन प्रकाशों में मधुरता थी। आकर्षण था। मैं देखते ही मंत्र-मुग्ध हो गया। तभी एक पुरुष ने आकर माला डाली एवं हाथ में पुष्पों का उपहार देते हुए बोला, "मैं अग्निदेव हूं।" उनके पीछे से दूसरे देदीप्यमान पुरुष प्रकट हुए-वे भी उसी तरह करते हुए बोले-"मैं वायुदेव हूं।" तीसरे वरुण देव, इस तरह ग्यारह देवों ने स्वागत किया। वे आगे-पीछे चलने लगे।
सर्वत्र मनोरम हवा चल रही थी। सुगंधित हवा, सुंदर दृश्य शरीर में ताजगी
भर रही थी।
कुछ ही क्षण में रक्तवर्ण सड़क आ गई। उस पर पैर रखते ही ज्ञात हुआ कि हम लोग लाल-गुलाब की पंखुड़ियों पर चल रहे हैं। फिर श्वेत गुलाब के पंखुडियों से युक्त सड़क थी। जिधर मुड़ना होता उधर ही हरी बत्ती स्वतः प्रकाश फैला देती। चौराहे के अन्य तरफ का रास्ता लाल प्रकाश रोक देता। ये सभी कुछ स्वतः ही हो रहा था।
सड़क के मध्य में बहुत बड़ा तालाब आ गया। हम लोग वहीं खड़े हो गए। मैं सोच ही रहा था कि क्या सड़क का अन्त तालाब है या तालाब के लिए ही इतनी सुंदर बनाई गई है। उस समुद्र सा दिखाई पड़ने वाले सरोवर में कमल के पुष्प खिले थे। जगह-जगह हंस तैर रहे थे।
एकाएक सरोवर के मध्य से कुछ आकृत्ति बाहर आने लगी। धीरे-धीरे बहुत बड़ा भवन प्रकट हो गया। उस भवन के मुख्य द्वार से एक रास्ता स्वतः आगे बढ़ने लगा, जो सरोवर के अन्तिम छोर से आ मिला। जहां हम लोग खड़े थे। फिर स्वर्ग के देवगणों ने इशारा किया सभी उस रास्ते पर चलने लगे। ऐसा रास्ता था मानो हम लोग जल के ऊपर, ऊपर चल रहे हैं। सरोवर का शीतल जल हम लोगों का पद प्रच्छालन कर रहा था। भवन के नजदीक जाते ही दाएं तरफ स्वयं इन्द्र एवं बाएं तरफ शची खड़ी मिली। वे लोग झुककर अभिनन्दन किए। माल्यार्पण किए। अन्तःपुर में चले। सामने से मानो पुष्पों का कालीन बिछा था। गद्देदार पुष्प- स्वच्छ-सुगन्धित - विशाल सभा कक्ष। अंदर जगह-जगह से, सोफे से, कुर्सी से प्रकाश की किरणें निकल रही थीं। सामने आठ उच्चासन लगे थे। स्वर्णजटित आसन, उसके ऊपर लगे थे। छत्रों से सूर्य सा प्रकाश निकल रहा था। सामने पहुंचते ही देखकर चौंक गया-उन आसनों पर आठ नाम लिखे थे। सभी अपने नाम के आसन पर विराजमान हो गए। इन्द्र एवं शची स्वयं स्वर्ण थाल में सभी का पद प्रच्छालन किए। मैंने कहा-"क्या हैं, देवराज इन्द्र ?"
देवेन्द्र ने मुस्कुराते हुए कहा- "प्रभु! यह पहला अवसर है कि अष्ट ऋषि एक साथ हमारे प्रासाद में पधारे हैं। मैं पुण्य का भागी हूं। दूसरी बात जाने- अनजाने आपसे अभी भी मुझे भय लगता है। आप ऋषि हैं। आप राम ऐसे प्रतिभा को बनाने की क्षमता रखते हैं। फिर भी डरता हूं कि कहीं आप हम पर क्रोधित न हो जाएं। आपका छोटा-सा क्रोध इन्द्रासन बर्बाद करने के लिए काफी होगा। आपकी प्रसन्नता इन्द्रासन के लिए वरदान होगी। आप मान-प्रतिष्ठा से परे हैं।
लेकिन मैं राजा हूं। राजा का कार्य है---ऋषि का चरणामृत लेना। यही राजा के राजमुकुट की शोभा है। आरती वगैरह संपन्न हुई।"
क्रमशः.....